पश्चिमी रंग में रंगा भारत: नकलची भूरा बंदर / विश्व मोहन तिवारी

विश्व मोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल, (से.नि.)

आज जिस तरह के राक्षसी अपराध तथा भ्रष्ट कारनामें भारत में देखने मिल रहे हैं तब यह प्रश्न सहज ही उठता है कि क्या भारत सभ्य है? यही प्रश्न बीसवीं शती के प्रारंभ में विलियम आर्चर ने उठाया था और अपनी कट्टर सांप्रदायिक दृष्टि तथा औपनिवेशिक अहंकार में झूठे तर्कों से सिद्ध कर दिया था कि न केवल भारत असभ्य है, वरन हमेशा ही असभ्य था और जैसी कि दुखवादी तथा परलोकवादी उसकी संस्कृति है वह कभी सभ्य नहीं हो सकता। इसका पहला मुँहतोड़ जवाब तो संक्षेप में सर जान वुड्रफ़ ने दिया था और फ़िर बहुत ही विस्तार में श्री अरोबिन्दो ने दिया था जो कि उनकी पुस्तक ’भारतीय संस्कृति के आधार’ में दिया गया है। वह पुस्तक उन दिनों से कहीं अधिक आज प्रासंगिक है क्योंकि हम आज स्वयं ही अपनी भाषा और इसलिये अपनी संस्कृति को छोड़कर पश्चिम की संस्कृति की भोंड़ी नकल करने में लगे हुए हैं और भौतिक प्रगति की चकमक करती चौँधियाती बत्तियों में डिस्को करते हुए मस्त मस्त गा रहे हैं।

श्री अरोबिन्दो, उस पुस्तक में, कहते हैं कि द्वन्द्व, संघर्ष और प्रतियोगिता आज भी अंतर्राष्ट्रीय नियामक हैं, और यह अनुमान करना स्वाभाविक है कि सारा जगत पश्चात्य सभ्यता में दीक्षित हो जाएगा; किंतु उऩ्हें आशा थी कि इस संभावना पर भारत की छाया पड़ चली है – या तो भारत इतनी पूरी तरह से तर्कवादी एवं व्यवसायवादी हो जाएगा कि वह भारत ही नहीं रहेगा या वह अपने दृष्टांत तथा सांस्कृतिक प्रभा के द्वारा पश्चिम की नयी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करता हुआ मानव को आध्यात्मिक बनाएगा। किन्तु आज लगभग सौ वर्षों के बाद उस आशा का कोई भी आधार नहीं बचा है। फ़िर वे स्वयं कहते हैं कि भारत को अपनी रक्षा करनी होगी।

मुख्य प्रश्न यह है कि क्या मानव जाति भविष्य तर्कप्रधान एवं यांत्रीकृत सभ्यता एवं संस्कृति में निहित है या आध्यात्मिक, बोधिमूलक और धार्मिक सभ्यता एवं संस्कृति में‌ है?

खतरा इस बात का है कि पश्चिम का भोगवाद भारत की पुरानी सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था को इतना दबा सकते हैं कि वह टूटफ़ूट जाए, तब तर्कवाद में दीक्षित और पश्चिमी रंग में रंगा भारत पश्चिम की नकल करने वाला भूरा बंदर बन सकता है।

अत: एक प्रबल आक्रमणशील प्रतिरक्षा की आवश्यकता उत्पन्न होती है; आक्रमणशीलता का अर्थ है पुरानी संस्कृति में आधुनिकता लाना, और वह हमारी आध्यात्मिक संस्कृति में सहज ही संभव है। सब त्रुटियों के रहते और पतन के होते हुए भी भारतीय संस्कृति का मूल भाव, उसके श्रेष्ठ आदर्श आज भी केवल भारत के लिये नहीं अपितु समस्त मानव जाति के लिये संदेश लिये हुए हैं। और कुछ ऐसे सिद्ध आदर्शभूत विचार हैं जो एक अधिक विकसित मानवजाति के जीवन के अंग बन सकते हैं।

पाश्चात्य सभ्यता को अपनी सफ़ल आधुनिकता पर गर्व है। परंतु ऐसा बहुत कुछ है जिसे इसने अपने लाभों की उत्सुकता में गवां दिया है, जिसके कारण इसका जीवन क्षत विक्षत हो गया है। पैरिक्लीज़ यदि आज आए तब वह इसके भोगवाद, इसकी विकसित की हुई कितनी ही चीज़ों की अस्वाभाविक अतिरंजना और अस्वस्थता को देखकर घृणा से मुँह फ़ेर लेगा; . . .कि बर्बरता यहां अभी भी बची हुई है।. . .. . किन्तु तब भी अनेक महान आदर्शों का विकास भी हुआ है।

दूसरी और यदि उपनिष्त्कालीन ऋषि को लाया जाए तब उसे यह अनुभव होगा कि इस राष्ट्र और संस्कृति का सर्वनाश हो गया है।. . . कि मेरी जाति भूतकाल के बाह्य आचारों, खोखली और जीर्णशीर्ण वस्तुओं से चिपकी हुई है और अपने उदात्त तत्त्वों का नौदशमांश खो बैठी है। प्राचीनयुग की अधिक सरल और अधिक आध्यात्मिक सुव्यवस्था के स्थान पर उसे एक घबरा देने वाली, अस्तव्यस्त व्यवस्था दिखलाई देगी जिसका न कोई केंद्र होगा और न व्यापक समन्वयकारी विचार। इस देश में श्रद्धा और आत्मविशास की इतनी कमी हो गई है कि इसके मनीषी बाहर से आयी हुई विजातीय संस्कृति के लिये अपने प्राचीन भावों और आदर्शों को मटियामेट करने के लिये लालायित हैं। किन्तु भारत की आत्मा मर नहीं गई है, उसे जगाने की आवश्यकता है। भूत काल के आदर्शों की महत्ता इस बात का आश्वासन देती है कि भविष्य के आदर्श और भी महान होंगे ।

यदि हम सभ्यता की परिभाषा इन शब्दों से करें कि यह आत्म, मन और देह का सामंजस्य है, तब यह आज कहीं भी विद्यमान नहीं है।

इसमें संदेह नहीं कि प्रत्येक विघटनकारी आक्रमण का प्रतिकार हमें पूरे बल से करना होगा। और हम क्या थे, क्या हैं और क्या बन सकते हैं, यह निश्चित करना होगा। हमें पश्चिम से और प्राचीन भारत दोनों से सीखना होगा।तुलना करने पर हमें पता चलेगा कि ऐसी चीजें नहीं के बराबर हैं जिनके कारण हमें‌ पश्चिम के सामने सिर नीचा करना पड़े, और ऐसी बहुत चीजें हैं जिनमें हम पश्चिम से ऊँचे उठ जाते हैं। हमारे जीवन संबन्धी सिद्धान्तों तथा सामाजिक प्रथाओं में कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो अपने आप में भ्रान्त हैं। अस्पृशों के साथ हमारा व्यवहार इसका एक ज्वलंत उदाहरण है।

जब बाहर से आक्रमण कारी शक्तियां, इस्लाम और यूरोप भारत में घुस आए तब हिन्दू समाज संकीर्ण और निष्क्रिय आत्म संरक्षण और जीने भर की शक्ति से संतुष्ट रहा।. . और अब तो आत्म विस्तार किये बिना जीवन की रक्षा करना भी असंभव हो गया है।

यह दृष्टि हमारे सामने एक क्षेत्र खोल देती है पूर्व तथा पश्चिम के मिलन का, जो संस्कृतियों के संघर्ष के परे ले जाता है। मनुष्य के अंदर अवस्थित दिव्य आत्मा के अंदर बस एक ही लक्ष्य है, परंतु विभिन्न समुदाय पृथक पृथक दिशाओं में उस लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं। आत्मा की आधारभूत एकता को न जानने के कारण वे एक दूसरे के साथ युद्ध करते हैं और दावा करते हैं कि केवल उऩ्हीं का मार्ग मनुष्य जाति के लिये यथार्थ मार्ग है। यूरोपीय मनोवृत्ति संघर्ष के द्वारा विकास करने के सिद्धान्त को प्रथम स्थान देती है। भारतीय संस्कृति सामंजस्य के ऐसे सिद्धान्त को लेकर अग्रसर हुई है जिसने एकता में ही अपना आधार पाने की चेष्टा की है। सदा से आत्मा के सत्य को धारण करने वाले भारत को पश्चिम के अभिमानपूर्ण आक्रमण का प्रतिरोध करना होगा और अपने गंभीरतर सत्य को स्थापित करना होगा।

किसी जाति की संस्कृति उसकी जीवनशैली में अभिव्यक्त होती है। और वह अपने आपको तीन रूपों में प्रकट करती है। १ – विचार, आदर्श और आत्मिक शक्ति। २. – सृजन और कल्पना शक्ति; ३.- व्यावहारिक संगठन। किसी जाति का दर्शन उसकी जीवन विषयक चेतना और जगत विषयक दृष्टि का रूप उपस्थित करता है। किसी जाति का धर्म उसके ऊर्ध्वमुखी संकल्प को प्रकट करता है; उसके सर्वोच्च आदर्श को अभिव्यक्त करता है। किसी जा‍ति का समाज और राजनीति एक बाह्य ढाँचा प्रदान करतीहैं। उसके धर्म, दर्शन, कला और समाज आदि कोई भी पीछे अवस्थित आत्मा को पूर्ण रूप से प्रकाशित नहीं करता यद्यपि वे सभी उसी से अपनी पूरी प्रेरणा ग्रहण करते हैं।वे सब मिलकर उसकी आत्मा, मन और देह का गठन करते हैं। धर्म द्वारा क्रियाशील बना हुआ दर्शन, और दर्शन द्वारा आलोकित धर्म ही समाज को जीवन देते हैं। ’ब्राह्मणों की सभ्यता’ जिसे कहा जाता है उसका सही अभिप्राय यही है; पुरोहिती सभ्यता नहीं। संस्कृति के निर्माण में दार्शनिक विचारकों और धार्मिक मनीषियों का ही हाथ रहा है, यद्यपि वे सभी के सभी ब्राह्मणकुल में नहीं जन्मे थे। किन्तु फ़िर भी उसने उस पर एकाधिकार स्थापित नहीं किया।

हमारे सामने दो विकल्प हैं – १. जीवन संबन्धी आध्यात्मिक एवं धर्म प्रधान ’त्यक्तेन भुन्जीथा:’ दृष्टिकोण, और २. जीवन का बौद्धिक और व्यावहारिक तर्क के द्वारा नियंत्रित भोगवादी दृष्टिकोण – इन दोनों में से मनुष्य जाति का सर्वोत्तम मार्गदर्शक कौन हो सकता है?

भारत और चीन में दर्शन ने जीवन पर प्रभुत्व स्थापित कर रखा है, वहां पश्चिम में‌ यह ऐसा मह्त्व स्थापित करने में‌ कभी सफ़ल नहीं हुआ। पश्चिम में सर्वोच्च मनीषियों ने दर्शन का अनुशीलन किया है पर वह अनुशीलन जीवन से कुछ पृथक ही रहा है। पश्चिम की दृष्टि में अंतिम सत्य प्राय: ही विचारात्मक तथा तर्क बुद्धि के सत्य होते हैं। औसत पश्चिमवासी अपने मार्गदर्शक विचार दार्शनिक नहीं वरन प्रत्यक्षवादी एवं व्यावहारिक बुद्धि से ही ग्रहण करता है। भारतवासी का विश्वास है कि अंतिम सत्य आत्मा के ही सत्य हैं जो आंतरिक तथा बाह्य जीवन का हित कर सकते हैं। यदि वह अपने निष्कर्षों (डाग्माज़) को धार्मिक विश्वास के विशिष्ट अंग बनाने में समर्थ हुआ है तो इसका कारण यह है कि उऩ्हें वह एक ऐसे अनुभव पर प्रतिष्ठित करने में सफ़ल हुआ है जिसकी सत्यता की जाँच कोई भी व्यक्ति कर सकता है।

किसी भी संस्कृति की परीक्षा तीन कसौटियों से करना चाहिये, १. उसकी‌ मूल भावना से, २. उसकी सर्वोत्तम प्राप्ति से और ३.उसकी अपेक्षाकृत दीर्घ जीवन और नवीकरण की शक्तियों से। पश्चिम भारतीय दर्शन के मूल्यों के विरुद्ध अभियोग लगाता है कि यह इहलौकिक पुरुषार्थ से मुंह मोड़ता है। यह समस्त इच्छा- प्रधान व्यक्तित्व का उन्मूलन करता है। यह जगत को मिथ्या मानता है, दैनिक लाभों के प्रति अनासक्ति की शिक्षा देता है, अतीत और अनागतजीवनों की तुलना में वर्तमान जीवन की तुच्छता की शिक्षा देता है। यह सब कुप्रचार कितना गलत है इसके लिये एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा, ईशावास्य उपनिषद का एक ही मंत्र – ’विद्यांचाविद्यांच यस्तद्वेदोभयंसह। अविद्यया मृत्युंतीर्त्वा विद्ययाममृतमश्नुते।।” अर्थात सांसारिक विद्याओं से हम जीवन जीते हैं और अध्यात्म विद्या से आनंदरूपी अमृत प्राप्त करते हैं। अब समय आ गया है यह तोता रटंत बन्द हो जाना चाहिये कि भारतीय सभ्यता अव्यावहारिक, निवृत्तिमार्गी और जीवन विरोधी‌ है।

यह सत्य है कि भारतीय संस्कृति ने मनुष्य के अन्दर की उस चीज को, जो लौकिक इच्छाओं के ऊपर उठ जाती है सदैव सर्वोच्च मह्त्व प्रदान किया है। प्राचीन आर्य संस्कृति समस्त मानव संभावनाओं को मान्यता देती थी, पर आध्यात्मिक संभावनाओं को वह सर्वोच्च स्थान प्रदान करती थी। और चार पुरुषार्थों, चार आश्रम और चार वर्णों की अपनी प्रणाली में उसने जीवन को क्रमबद्ध किया था। बौद्ध धर्म ने सबसे पहले स न्यास के आदर्श तथा भिक्षु प्रवृत्ति को अतिरंजित और विपुल रूप में प्रसारित किया, और जीवन के संतुलन को भंग कर डाला। अंत में शंकर का मायावाद आया, फ़लस्वरूप संसार को मिथ्या या आपेक्षिक मानकर उसकी अत्यधिक अवहेलना की जाने लगी। इसीलिये उऩ्हें प्रच्छन्न बौद्ध कहा गया। जनता ने इसे स्वीकार नहीं किया। जनता पर तो भक्ति प्रधान धर्मों का ही अधिक प्रभाव पड़ा है।

वैराग्य का थो.डा बहुत अंश लिए बिना कोई भी संस्कृति महान नहीं हो सकती; क्योंकि वैराग्य का अर्थ है आत्मत्याग और आत्म विजय जिनके द्वारा मनुष्य अपने निम्न आवेगों का दमन कर अपनी प्रकृति के महत्तर शिखरों की और आरोहण करता है। भारतीय वैराग्यवाद न तो कष्ट की विषादपूर्ण शिक्षा है और न शरीर का दु:खदायी निग्रह है, वरन वह तो आत्मा के उच्चतर आनंद के लिये एक उदात्त प्रयत्न है।

भारतीय आध्यात्मिक दर्शन कर्म और अनुभव के अंदर जो रूप ग्रहण करता है वही‌ भारतीय धर्म है; और संस्कृति उसका व्यावहारिक आधार है। क्या हमारे जीवन को शक्तिशाली और समुन्नत करने के लिये भारतीय संस्कृति में पर्याप्त शक्ति है?? किसी संस्कृति की जाँच करने के लिये इसकी तीन शक्तियों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये। (१). जीवन संबन्धी उसके मौलिक विचार की शक्ति; (२). उन रूपों, आदर्शों और व्यवहारों की शक्ति जो उसने जीवन को प्रदान किये हैं;(३). उसके उद्देश्यों की कार्यान्विति के लिये प्रेरणा, उत्साह और शक्ति। दो चीजें यूरोपीय आदर्श में महत्व रखती हैं – मनुष्य के अपने पृथक व्यक्तित्व का विकास और संगठित समुन्नत राष्ट्रीय जीवन। व्यक्तिवाद तो व्यक्ति में, परिवार मे और समाज में विघटन पैदा कर दुख ही पैदा करता है। राष्ट्रीय जीवन की समुन्नति का एक ही‌ माप है -भोग के साधनों की समृद्धि।

भारतीय आध्यात्मिक मुक्ति और सिद्धि का अर्थ है कि स्वयं मनुष्य एक विश्वमय आत्मा बन सकता है। किन्तु मनुष्य को सामान्य जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के लिये एक सजग प्रयास करते हुए, इसके सुखों को पूर्ण रूप से उपभोग करना होगा। उसके बाद ही कहीं हम आत्म जीवन की ओर बढ़ सकते हैं। आवेगों की क्रीड़ा के लिये अनुमति दी गई थी, उऩ्हें तब तक परिष्कृत और सुशिक्षित किया जाता था कि जब तक वे दिव्य स्तरों के योग्य नहीं बन जाते थे। एकमात्र मन और इंद्रियों के जीवन में आसक्त रहने वाले विराट अहंभाव को भारत राक्षस का स्वभाव मानता था। और मनुष्य पर तो एक और शक्ति अधिकार रखने का दावा करती है जो कामना, स्वार्थ और स्वेच्छा से ऊपर उठी हुई है और वह है धर्म की शक्ति। धर्म तो हमारे जीवन के सभी अंगों के कार्य-व्यापार का यथार्थ विधान है। कामना, स्वार्थ और सहजप्रवृत्ति के नियमहीन आवेग को मानवीय चर ित्र का नेतृत्व नहीं करने दिया जा सकता।

भारतीय और यूरोपीय संस्कृति में‌ जो भेद है वह भारतीय सभ्यता के आध्यात्मिक उद्देश्यों से उत्पन्न होता है। इसने समस्त जीवन को आध्यात्मिकता की ओर मो.डने का प्रयास भी किया, इसलिये आवश्यक हो गया कि चिन्तन और कर्म को धार्मिक साँचे में ढाल दिया जाये और जीवन संबन्धी प्रत्येक बात को स्थायी रूप से धार्मिक भावना से भर दिया जाये, अत: एक विशिष्ट दार्शनिक संस्कृति की आवश्यकता हुई। जिस धार्मिक संस्कृति को हम आज हिन्दू धर्म से जानते हैं उसने इस उद्देश्य को केवल पूरा ही नहीं किया अपितु कई अन्य साम्प्रदायिक धर्मों के विपरीत उसने अपना कोई नाम नहीं रखा, क्योंकि उसने स्वयं कोई सांप्रदायिक सीमा नहीं बाँधी; उसने सारे संसार को अपना अनुयायी बनाने का दावा नहीं किया, किसी एकमात्र निर्दोष सिद्धान्त की प्रस्थापना नहीं की, मुक्ति का कॊई एक ही संकीर्ण पथ निश्चित नहीं किया; वह कोई मत या पंथ की अपेक्षा कहीं अधिक मानव के ईश्वरोन्मुख गति की एक सतत प्रगतिशील परंपरा थी। हिन्दू धर्म में एक मात्र स्थिर और सुनिश्चित वस्तु है सामाजिक विधान, किन्तु तब भी हिन्दू धर्म का सार आध्यात्मिक अनुशासन है, सामाजिक अनुशासन नहीं। यहां वर्ण का शासन है, न कि चर्च का; परंतु वर्ण भी किसी मनुष्य को उसके विश्वासों के लिये दण्ड नहीं दे सकता, न वह विधर्मिता पर रोक लगा सकता है और न एक नये क्रान्तिकारी सिद्धान्त या नये आध्यात्मिक नेता का अनुसरण करने से उसे मना कर सकता है। यदि वह ईसाई या मुसलमान को समाज से बहिष्कृत करता है तो वह उसे धार्मिक विश्वास या आचार के कारण नहीं वरन इसलिये कि वे उसकी सामाजिक व्यवस्था और नियम को अमान्य करते हैं।

पश्चिम ने इस उग्र एवं सर्वथा युक्तिहीन विचार का पोषण किया है कि समस्त मानव जाति के लिये एक ही धर्म होना चाहिये। मानुषी तर्कहीनता की यह भद्दी रचना अत्यधिक क्रूरता और उग्र धर्मांधता की जननी‌ है। जब कि भारत के धर्म प्रधान मन की स्वतंत्रता, नमनीयता और सरलता ने धर्म को सदैव चर्चों के समान उन परंपराओं एवं स्वेच्छाचारी पोप राज्यों जैसी किसी चीज का सूत्रपात करने से रोका है। जो जाति जी वन के विकास के साथ असीम धार्मिक स्वतंत्रता दे सकती है, उसे उच्च धार्मिक क्षमता का श्रेय देना ही होगा। आंतरिक अनुभव की एक महान शक्ति ने इसे आरंभ से ही वह वस्तु दी थी जिसकी ओर पश्चिम का मन अंधों की तरह अग्रसर हो रहा है -वह वस्तु है ’विश्व -चेतना, विश्व दृष्टि।

भारतीय धर्म का निरूपण पश्चिमी‌बुद्धि की जानी हुई परिभाषाओं में से किसी के द्वारा भी नहीं किया जा सकता। एकमेव सत्य को अनेकों पार्श्वों से देखते हुए भारतीय धर्म ने किसी भी पार्श्व के लिये अपने द्वार बन्द नहीं किये. यह मत-विश्वासात्मक धर्म बिलकुल नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक संस्कृति की एक विशाल, बहुमुखी, सदा एकत्व लाने वाली और सदा प्रगतिशील एवं आत्म विस्तारशील प्रणाली है।

परंतु आखिरकार हिंदू धर्म है क्या? भारतीय धर्म उच्चतम एवं विशालतम आध्यत्मिक अनुभव के तीन मूल तत्वों पर प्रतिष्ठित है : १. उपनिषदों का ’एकमेवाद्वितीयं’ जो अनंत है; २. मानव बुद्धि इसे अनंत प्रकार के सूत्रों में‌ प्रकट कर सकती है; ३. इन शाश्वत अनंत को खोजना– यही भारत के धार्मिक मन का प्रथम सार्वजनीन विश्वास है। एकमेव परमेश्वर अपने आपको अपने गुणों के रूप में नाना नामों और देवताओं में प्रकट करते हैं। हमारे ज्ञान ने उच्चतम सत्ता और हमारी भौतिक जीवन प्रणाली के बीच कोई खाई नहीं खोदी थी। भारतीय धर्म का सार ऐसे जीवन को लक्ष्य बनाना है जिससे हम अज्ञान का, जो इस आत्मज्ञान को हमारे मन से छुपाए रखता है, अतिक्रम करके अपने अंत:स्थित भगवान को जान सकें।

धर्म और आध्यात्मिकता का कार्य ईश्वर और मनुष्य में, अर्थात अव्यक्त सत्यचेतना के और अज्ञानी मन के बीच मध्यस्थता करना है। अधिक लोग जीवन का संपूर्ण बल बाह्य सत्ता पर ही देते हैं या बौद्धिक सत्य या नैतिक बुद्धि एवं इच्छा शक्ति या रसात्मक सौन्दर्य को पश्चिम की तरह अध्यात्मिकता समझने की भूल करते हैं। कुछ धर्म बाह्य जीवन के रूप के साथ सामंजस्य करने की अपेक्षा कहीं अधिक उससे विद्रोह करते है। ईसाई साधना की मुख्य प्रवृत्ति भौतिक जीवन को तुच्छ समझने की ही‌ नहीं अपितु हमारी प्रकृति की बौद्धिक प्यास को तिरस्कृत एवं अवरुद्ध करने और सौन्दर्य संबन्धी प्यास पर अविश्वास करने की‌ भी है। उनके लिये नैतिक भावना की अभिवृद्धि अध्यात्म जीवन की एकमात्र मानसिक आवश्यकता है।

एक अर्ध आलोकित आध्यात्मिक लहर ईसाइयत के रूप में, पश्चिम भर में फ़ैल गई थी, उसके होते हुए भी पश्चिमी सभ्यता की वास्तविक प्रवृत्ति बौद्धिक, तार्किक, लौकिक और यहां तक कि जड़वादी‌ ही रही। भारतीय समाज की संगठन शक्ति अपूर्व थी, जिसने अपने अर्थ और कामनावाले सांसारिक जीवन के सामाजिक सामंजस्य का विकास किया, उसने अपने कर्म का परिचालन सदा ही पद पद पर नैतिक और धार्मिक विधान के अनुसार किया; – परंतु इस बात को उसने आँखों से कभी ओझल नहीं किया कि आध्यात्मिक मोक्ष ही हमारे जीवन के प्रयास का उच्चतम शिखर है।

दुर्भाग्यवश भारतीय संस्कृति का ह्रास हुआ। यदि भारतीय संस्कृति को जीवित रखना है तो उसके विकास को केवल पौराणिक प्रणाली को फ़िर से प्रचलित करने में नहीं, वरन उपनिषदों की ओर मुड़ना होगा।

भारतीय संस्कृति के विकास की आधुनिक अवस्था की तैयारी दीर्घकाल से हो रही है। इसमें एक तो यह भावना है कि मनुष्य मात्र अपना जीवन परमात्मा के महान सत्य पर प्रतिष्ठित करे। दूसरी यह कि उस सत्ता तक मात्र आरोहण ही नहीं वरन भगवत्चेतना के अवरोहण द्वारा मानव-प्रकृति के दिव्य-प्रकृति में रूपांतरण को भी संभव करे। यदि भगवत चेतना उसकी सत्ता के अंगों में जरा भी चरितार्थ हो जाए तो वह मानव जीवन को एक दिव्य अधिजीवन में परिणित कर देगा। इस के लिये जनसाधारण को हर क्षण धार्मिक प्रभाव में रहना चाहिये। और यह हमारी सुखद परंपरा रही‌ है। हमारी संस्कृति की प्रणाली का ढाँचा एक त्रिविध चौपदी से गठित था : प्रथम वृत्त में जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ काम और मोक्ष। दूसरे वृत्त में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था, तीसरे वृत्त में जीवन के चार आश्रम – विद्यार्थी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और स्वतंत्र समाजातीत मनुष्य। इसीलिये भारतवासियों के लिये समस्त जीवन ही धर्म है।

आध्यात्मिक ज्ञान पर प्रतिष्ठित जीवन का संपूर्ण व्यवहार भारतीय संस्कृति की दृष्टि में धर्म कहलाता है, जिसमें नैतिकता का विशेष मह्त्व होता है। धर्म के जटिल जाल में सबसे पहले आता है सामाजिक विधान, क्योंकि मनुष्य का जीवन कहीं अधिक अनिवार्यरूप में समष्टि के लिये ही‌ है, यद्यपि सर्वाधिक अनिवार्य रूप में वह आत्मा परमात्मा के लिये है। तब भी वैराग्यरूपी उच्च तपस्या के रहते, मनुष्य का सौंदर्यप्रिय या यहां तक कि सुखभोगवादी प्रवृत्ति पर भी कोई रुकावट नहीं लगायी। काव्य, नाटक, गीत, नृत्य, संगीत को प्रस्तुत किया गया, और उसे भी आत्मा के उत्कर्ष के रूप में। अध्यात्म सिद्धि के लिये प्रमुखत: तीन मार्ग बनें – बुद्धिप्रधान के लिये ज्ञान योग; कर्मठ नैतिक के लिये कर्मयोग; और भावुक सौन्दर्यप्रेमी एवं सुखभोगवादी के लिये प्रेम तथा भक्ति योग की रचना की गयी थी।

उससे महान संस्कृति क्या हो सकती है जो यह मानती है कि मनुष्य सनातन और अनंत को केवल जान ही नहीं सकता वरन आत्मज्ञान के द्वारा आध्यात्मिक और दिव्य भी बना सकता है? किसी भी महान संस्कृति का संपूर्ण लक्ष्य यह होता है कि वह मनुष्य को ज्ञान की ओर ले जाए, शुभ और एक्त्व के साथ सुन्दरता और समस्वरता के साथ द्वारा जीना सिखाए।

विज्ञान द्वारा विपुल आर्थिक उत्पादन ही मनुष्य को उसका दास, अथवा आर्थिक व्यवस्था -रूपी शरीर का एक अंग बना देता है – तब हमें पूछने का अधिकार है क्या यही हमारी संपूर्ण सत्ता है, और सभ्यता का स्वस्थ या संपूर्ण वर्तमान एक ऐसी बुद्धिमान आसुरिक बर्बरता प्रतीत होता था जिसका कि जर्मनी एक अत्यंत प्रशंसित और सफ़ल नायक था। क्या भारत के लिये यह ठीक नहीं है कि वह पश्चिम के अनुभव से शिक्षा भले ग्रहण कर ले पर पश्चिम का अनुकरण न कर अपनी‌मूल भावना और संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ और अत्यंत मौलिक तत्वों को विकसित करे? बहुत समय तक यह सत्य था, और मैं‌ कहूंगा कि अब और अधिक सत्य है, कि भारतीय का कर्तव्य यही रहा है कि वह सभ्य बनाने वाली अंग्रेज की डोर में बँधा हुआ एक बंदर बन कर उसके ढोल की आवाज पर नाचा करे।

शंकर के सिद्धान्त में एक प्रवृत्ति अपनी चरम पर पहुँच गई जिसने भारतीय मन पर गहरी छाप डाली और अवश्य ही कुछ समय के लिये उसने सांसारिक जीवन की निषेधात्मक दृष्टि को स्थिर करने और विशालतर भारतीय आदर्श को विकृत करने की चेष्टा की। परंतु उनका सिद्धान्त महान वेदान्तिक शास्त्रों से निकलने वाला कोई अनिवार्य परिणाम बिलकुल नहीं है।

आखिर जीवन का अर्थ क्या है, हम अत्यंत पूर्ण और महान जीवन किसे कहते हैं? जीवन निश्चित ही मनुष्य की आत्मा की सक्रिय आत्म-अभिव्यक्ति है, और विचार, सृजन, प्रेम और कर्म करना तथा सफ़लता प्राप्त करना उसके संकल्प ही हैं। यह भी संभव है कि जीवन यापन के सभी साधारण करणोपकरण और परिस्थितियां विद्यमान हों, पर यदि जीवन महान अर्थात आध्यात्मिक आशाओं, अभीप्साओं और आदर्शों के द्वारा ऊँचा न उठा हो तब हम कह सकते हैं कि वह समाज वास्तव में जीवित नहीं है।

शून्य, दशमलव तथा स्थानमूल्य की अवधारणाओं के बल पर गणित में, तथा चरक, सुश्रुत, (विमान शास्त्र के रचयिता) भरद्वाज मुनि, आर्य भट, भास्कराचार्य प्रथम एवं द्वितीय, नागार्जुन, वरह मिहिर, आदि आदि के बल पर विज्ञान में यह देश अग्रणी रहा है, साहित्य में वेद, उपनिषद, गीता हैं और सर्वाधिक महान और उदात्त महाकाव्य रामायण है; जीवन को अद्भुत पूर्णता से अभिव्यक्त करने वाला महाकाव्य महाभारत है, कालिदास, माघ, भास, भारवि, बाणभट्ट आदि की अनुपम कृतियां हैं, पाली, प्राकृत, तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियां भी हैं। तूफ़ानी सदियों के समस्त विध्वंस के बाद जो कुछ बचा है वह तथा भरत मुनि के अनुपम ’नाट्यशास्त्र, चाणक्य के अर्थशास्त्र, भारत की कलाओं की सुदीर्घ परंपरा भारत की श्रेष्ठता का उद्घोष करते हैं। वैदिक काल में शूद्रों में से ऋषि उत्पन्न हुए। बाद के युग में बुद्ध और महावीर से लेकर रामानुज, चैतन्य, नानक रामदास, और तुकाराम, और फ़िर विवेकानन्द और दयानंद तक की अविच्छिन्न परंपरा है। प्रामाणिक इतिहास चन्द्रगुप्त, चाणक्य, अशोक और गुप्तवंशी सम्राटों के प्रभावशाली व्यक्तित्वों से प्रारंभ होता है। प्राचीन भारत में गणतंत्र और जनतंत्र थे। साम्राज्य निर्माण का दीर्घकालीन प्रयत्न, पठानों और मुगलों के उत्थान और पतन से सन्लग्न तीव्र संघर्ष, राजपूती वीर ता का आश्चर्यजनक इतिहास, आदि है। हमारे शूद्रों में से सम्मानित संत प्रकट हुए, जिसे यूरोप का पतनशील काल (डार्क मैडीवियल एजैज़) कहा जाता है, वह काल संत साहित्य की कृपा से भारत का स्वर्णकाल है।

अतएव यह कथन कि भारत जाति में अपनी संस्कृति के कारण जीवन, इच्छाशक्ति और क्रियाशीलता का अभाव है. एक षड़यंत्र है। एक अत्यंत विचित्र और झूठ बात यह है कि इस दोष का कारण जीवन के प्रति वैराग्य को माना गया है – भारत सनातन में इतना व्यस्त था कि उसने उसने समय की जानबूझकर उपेक्षा की। यह एक और मिथ्या गाथा है।. . . . औसत यूरोपीय मन एक अहंकारमय अस्तित्व पर भीषण आग्रह के साथ बल देता है। जो शार्लमान ई साई बनाने के लिये सैक्सनों का संहार करता है, वह अशोक के पश्चाताप को कैसे समझ सकता है। भारत ने निर्वैयक्तिकता को अधिक महत्व प्रदान किया है। निर्वैयक्तिता सत्ता का अभाव नहीं वरन नदी बनने के स्थान पर उसकी सागर के समान समग्रता है। पूर्णताप्राप्त मनुष्य विश्वमय हो जाता है, वह सहानुभूति और एकता की भावना में प्राणिमात्र का आलिंगन करता है।

यह सत्य है कि भारत किऩ्हीं कारणों से गुलाम हुआ और उसका पतन हुआ। किन्तु जैसा कि ऊपर दर्शाया गया है, उसमें‌ सदा ही एक महान दिव्य आध्यात्मिकता रहती है जिसके बल पर वह पुन: अपनी उच्चस्थिति प्राप्त कर सकता है। किन्तु इसके लिये एक ही खतरा है कि पश्चिम की रंगीन चकाचौंध में फ़ँसकर, उनकी भाषा और भोगवादी संस्कृति की नकल करता हुआ भारतीय कहीं भूरा बंदर ही न बन जाए।

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विश्‍वमोहन तिवारी
१९३५ जबलपुर, मध्यप्रदेश में जन्म। १९५६ में टेलीकम्युनिकेशन इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि के बाद भारतीय वायुसेना में प्रवेश और १९६८ में कैनफील्ड इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलाजी यू.के. से एवियेशन इलेक्ट्रॉनिक्स में स्नातकोत्तर अध्ययन। संप्रतिः १९९१ में एअर वाइस मार्शल के पद से सेवा निवृत्त के बाद लिखने का शौक। युद्ध तथा युद्ध विज्ञान, वैदिक गणित, किरणों, पंछी, उपग्रह, स्वीडी साहित्य, यात्रा वृत्त आदि विविध विषयों पर ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित जिसमें एक कविता संग्रह भी। १६ देशों का भ्रमण। मानव संसाधन मंत्रालय में १९९६ से १९९८ तक सीनियर फैलो। रूसी और फ्रांसीसी भाषाओं की जानकारी। दर्शन और स्क्वाश में गहरी रुचि।

21 COMMENTS

  1. बहुत ही सुन्दर लेख है, क्या हमारा भारतबर्ष की संस्कृति पश्चिमी संस्कृतिओ को प्रत्याहाबन दे पायेगा

  2. क्षमा करें सर, लेख की भाषा जटिल होने के कुछ कम ही समझ आया. परन्तु जितना आया अच्छा लगा.
    में पटेल जी की बात से भी सहमत हूँ की ये लोग भारतवासी नहीं इंडियन हैं जो भारत की सभ्यता एवम् संस्कृति का हनन कर रहे हैं. वध हर समस्या का हल नहीं होता यह भी एक सच है

  3. महोदय , आपका लेख पढ़कर अच्छा लगा . लेकिन आपकी यह बात गलत है की भारत पश्चिम का अंधानुकरण कर रहा है . पश्चिम का अन्धानुकरण इंडिया के लोग कर रहे हैं . भारत की जमीं पर एक इंडिया नाम का देश बन गया है , इसके लोग फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हैं , देशद्रोह का हर काम करते हैं . अपनी माँ-बहनों से वैश्यावृत्ति करवाते हैं . ये लोग श्रम का कोई काम नहीं करते . सारे भ्रस्ताचार का काम यही करते हैं . भारत के सम्पूर्ण संसाधनों का ९५ फीसदी यही लोग हजम कर जाते हैं . ये भारतवासियों को हे की दृष्टि से देखते हैं . इनकी आबादी मुश्किल से पांच-सात करोड़ है . ये लोग भारत को गुलाम बनाये हुए हैं . अगर आज भारत को बचाना है , तो इंडिया के इन पांच -सात करोड़ लोगों का वध करना पड़ेगा . भारत में आजादी की लड़ाई का शंखनाद करना होगा . पूरे भारत को बचाने के लिए इनका वध हर हालत में करना होगा . आज देश बहुत विकट परिस्तिथि में है. आज देश में जो सरकार है , वो भारत की नहीं , बल्कि इंडिया की सरकार है . हाय रे भारत का दुर्भाग्य , आज मनमोहन जैसा नौकर प्रधानमंत्री और प्रतिभा पाटिल जैसी नौकरानी राष्टपति है .मनमोहन देशद्रोह का काम करने का रिकॉर्ड बनाने में लगा हुआ है .

    आज भारत के युवाओं को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और रामप्रसाद बिस्मिल , चंद्रशेखर आजाद , सरदार भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियो से प्रेरणा लेकर इन गद्दारों , देशद्रोहियों के खिलाफ महायुद्ध का बिगुल बजाना होगा , वर्ना देश नहीं बच पायेगा . मनमोहन जैसा देशद्रोही भारत को बेच चुका है . आज देश को बचाना बहुत जरुरी है .

  4. भारत की अध्यात्मिक विविधता ही इस धरा की सब्से बडी धरोहर है. हम भारतीय हिन्दु, मुस्लीम, इसाई एवम अन्य मतावलम्बियो को यह समझना चाहिए की हमारी विविधता हमे यह विशिष्टता प्रदान करती है की इस विश्व को अगला अध्यात्मिक गुरु इस क्षेत्र से मिलने वाला है. अतः हमे एक दुसरे से अनावश्यक प्रतिस्पर्धा करने की बजाय सह-अस्तित्व और समाधान का रास्ता चुनना होगा.

    मै यह क्यो कहता हुं की अगला विश्व गुरु भारत मे ही पैदा होगा. क्योकि ईतिहास हमे सिखाता है की कही भी ठहराव नही है. एक समय अंतराल के बाद कोई आता है. और जो आता है वह रुढियो को अस्वीकार करता है तथा अध्यात्म का सत्यार्थ जन-जन में प्रकाशित करता है. ऐसा कोई सदगुरु विश्व के अन्य भाग मे पैदा हो तो लोग उसे पनपने ही न देंगें. भारत के बाहर कोई पैदा भी हो भी गया तो विकसित न हो सकेगा.

    भारत मे भी जिस प्रकार भोग-वादी संस्कृति फैल रही है. शहरो से यह संक्रमण गांवो तक हो रहा है. इस के उपर चिता लेनी होगी. यह काम सिर्फ धर्म-प्रचारक कर सकते है. उन्हे खुद समझना होगा की यह संस्कृति अन्धे कुए मे धकेल्ने वाली है – यह रास्ता विनाश की और जाता है. शायद हम वैदिक बुद्धिमता को कुछ हद तक बचाने मे सफल हो जाए.

  5. प्रणाम भाई साहब ,निश्चित ही अब समय आ गया है की हम अंधाधुन्द पश्चिमी सभ्यता और भोग विलास का अनुसरण त्याग कर भारतीय सभ्यता और संस्कारों को ठोस रूप में स्थापित रखने की दिशा में सही कादम उठायें अन्यथा “अब पछताए क्या होय ,जब चिड़िया चुग गई खेत “की कहावत चरितार्थ होगी ,हम केवल हाथ मलते ही रह जायेंगें .

  6. प्रेम सिल्ही जी
    मैं अपनी‌बात दुहराना चाहता हूं, कृपया ध्यान दें, “मुख्य प्रश्न यह है कि क्या मानव जाति भविष्य तर्कप्रधान एवं यांत्रीकृत सभ्यता एवं संस्कृति में निहित है या आध्यात्मिक, बोधिमूलक और धार्मिक सभ्यता एवं संस्कृति में‌ है?

    खतरा इस बात का है कि पश्चिम का भोगवाद भारत की पुरानी सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था को इतना दबा सकते हैं कि वह टूटफ़ूट जाए, तब तर्कवाद में दीक्षित और पश्चिमी रंग में रंगा भारत पश्चिम की नकल करने वाला भूरा बंदर बन सकता है।

    अत: एक प्रबल आक्रमणशील प्रतिरक्षा की आवश्यकता उत्पन्न होती है; आक्रमणशीलता का अर्थ है पुरानी संस्कृति में आधुनिकता लाना, और वह हमारी आध्यात्मिक संस्कृति में सहज ही संभव है।”

    और दूसरी तरफ़ आपके कथन को दुहराना चाहता हूं :
    “विचारों की मध्यमता और सम्पूर्ण भारत में भ्रष्टता और अनैतिकता के कारण गिरावट अवश्य ही चिंता प्रस्तुत करती है लेकिन दूसरी ओर दिल्ली मेट्रो के डा: एलात्तुवालापिल श्रीधरन द्वारा फाउंडेशन फॉर रेस्टोरेशन ऑफ नैशनल वैल्यू को रचा देशवासियों में अच्छा आचरण और सहभाजी मान्यताएं जगाना; बाबा रामदेव द्वारा भारतीय स्वाभिमान ट्रस्ट बना राजगुरु की भांति अनैतिकता और भ्रष्टता को मिटा कुशल राजनीति व प्रशासन की मांग करना; रमेश और स्वाती रामानाथन द्वारा संगठित जनाग्रह की रचना कर नागरिकों का जन संबंधी शासन-प्रणाली में भाग लेते नगरीय जीवन को उत्तम बनाना और ऐसे अनेक प्रयोजन भारतीय सभ्यता को उच्च पटल पर बनाए रखेंगे|”

    हम भारतीय संस्कृति पर आए संकट को छोटा न समझें.
    यह आपके द्वारा उद्धृत महान लोग संस्कृति की रक्षा हेतु एक प्रकार से सेना ही तो तैयार कर रहे हैं। मेरी समझ में हमें ऐसी सेनाओं की शक्ति बढ़ाना चाहिये ।

  7. मैं स्वयं किसी प्रस्तावित सांस्कृतिक सेना और भारतीय सनातन धर्म व हिन्दू सभ्यता में कोई तालमेल नहीं देख रहा हूँ| अनादिकाल से व्यक्तिवाद में समाया भारतीय सांस्कृतिक और आध्यात्मिक ज्ञान उस अनुपम परम्परा से जुड़ा हुआ है जो नानक, राममोहन राय, महावीर, और दूसरे अनेक साधू संतों के विभिन्न विचारों के होते उन्हें आदर और सम्मान देती रही है| इस पर भी उनके अनुयायी अल्पसंख्यक ही रहे हैं| तीन दशक से ऊपर संयुक्त राष्ट्र अमरीका में रहते मैंने सनातन धर्म व भारतीय संस्कृति का जो प्रचार देखा है वह यहाँ सर्वत्र देश में बने भव्य मंदिरों, गुरद्वारों और सांस्कृतिक सभाओं से प्रामाणित है| सांस्कृतिक सेना अथवा धार्मिक संगठन तो तब हों जब इस अनादिकाल से नित नयी दिशा को धारण करती भारतीय सभ्यता को कोई आंच आती दिखाई दे| भारतीय जीवन की निरंतर परिवर्तनशीलता ही इसके अलौकिक चरित्र को स्थापित किये हुए है| विचारों की मध्यमता और सम्पूर्ण भारत में भ्रष्टता और अनैतिकता के कारण गिरावट अवश्य ही चिंता प्रस्तुत करती है लेकिन दूसरी ओर दिल्ली मेट्रो के डा: एलात्तुवालापिल श्रीधरन द्वारा फाउंडेशन फॉर रेस्टोरेशन ऑफ नैशनल वैल्यू को रचा देशवासियों में अच्छा आचरण और सहभाजी मान्यताएं जगाना; बाबा रामदेव द्वारा भारतीय स्वाभिमान ट्रस्ट बना राजगुरु की भांति अनैतिकता और भ्रष्टता को मिटा कुशल राजनीति व प्रशासन की मांग करना; रमेश और स्वाती रामानाथन द्वारा संगठित जनाग्रह की रचना कर नागरिकों का जन संबंधी शासन-प्रणाली में भाग लेते नगरीय जीवन को उत्तम बनाना और ऐसे अनेक प्रयोजन भारतीय सभ्यता को उच्च पटल पर बनाए रखेंगे|

  8. अभिषेक पुरोहित जी
    बहुत धन्यवाद।
    बूढ़े और युवा तो गए या जा रहे हैं, बच्चे ही हमारा भविष्य हैं, उऩ्हें बचाना चाहिये ।
    क्या आप उनमें संस्कार डालने के लिये कुछ समय दे सकते हैं?

  9. क्या आप नहीं सोचते हैं कि इतनी ऊँची संस्क्रृति को बचाने के लिए एक विश्वमोहन नहीं वरन एक सेना की आवश्यकता है ?
    हमें एक सांस्‍कृतिक सेना तैयार करना है..
    mai is bat se shat pratishat sahamat hu ,isake liye yogy kam karane ko katibadh hu………

  10. डा. मधुसुदन जी
    आपने कहा :
    ” एक ही, बिंदु जिसे मैं, एक प्रमेय ही, मानता हूं, आपके लेख में भी है, पर मैं उसे अधोरेखित करना आवश्यक मानता हूं।
    प्रेरणा की तर-तम (वरीयता)ता, न्यूनाधिकता का प्रमेय:
    **शारीरिक/भौतिक प्रेरणा की पहुंच(sustaining power ) कक्षा से अधिक प्रभावी,== मानसिक/बौद्धिक प्रेरणा की पहुंच(sustaining power ) कक्षा होती है, ==और उससे भी सर्वाधिक ऊंची होती है, (sustaining power )आध्यात्मिक प्रेरणा की पहुंच कक्षा।**
    यह हमारी सनातनता का एक प्रमुख कारण प्रतीत होता है।”
    किन्तु मुझे आज के भारत में व्याप्त भोगवाद के राक्षसी रूप को देखकर लगता है कि, इस ज्ञान का तो नहीं किन्तु भारत का अस्तित्व संकट में है..हाँ इंडिया बचेगा – राक्षसमय !!

  11. अभिषेक पुरोहित जी
    आपने धैर्यपूर्वक टिपण्णी की है धन्यवाद..इससे मुझे आपके ज्ञान की गहराई का भी ज्ञान हुआ , जिसके बिना मैंने बहुत ही सरल शब्दों में अपनी बात कही थी..आपने उनके भाष्य (गीता प्रेस गोरखपुर) को उतारने में बहुत धैर्य का तथा अपनी गंभीरता का परिचय दिया है..अब आपकी गंभीरता को देखते हुए फिर भी संक्षेप में ही लिख रहा हूँ ( इस विषय पर तो संवाद होना चाहिए, ब्लॉग बहुत उपयुक्त नहीं) :
    ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः’ का अर्थ आदि शंकर देते हैं की” इस संसार को त्याग कर अपनी रक्षा कर..”
    त्यागने का अर्थ वे समझाते हैं जैसा की आपने भी लिखा है इच्छाओं का त्याग और कर्मों कात्याग देखिये ” तीनों इशानाओ के त्याग में ही अधिकार है-कर्म में नहीं|” मुझे आदि शंकर के इसी कथन से विरोध है, हमें कर्मों का त्याग नहीं करना है .. मुझे उनका यह तर्क भी नहीं जंचता ” इस प्रकार जो,ईश्वर ही चराचर जगत का आत्मा है-इसी भावना से युक्त है,उसका putradi तीनों इशानाओ के त्याग में ही अधिकार है” ईश्वर ही जगत का आत्मा है यह मानते हुए हम ईश्नाओं का त्याग क्यों करें?? यह संसार उससे आच्छादित है तब हम क्यों न उसमें रहकर ऐसे कर्म करें की आनंद को प्राप्त हों !! गीता का निष्काम कर्म योग यही कहता है..संसार में कर्मफलों कोत्याग कर कर्म करने को कहता है.. शेष हम लोग फोन पर या स्काइप पर बात करें तो बेहतर होगा..
    इच्छाओं का त्याग भी एक अत्यंत कठिन अवधारणा है- संक्षेप में कहूं तो कर्म फल का आश्रय लेकर कर्म न करना
    जब यह सब ब्रह्म ही है तब यह संसार भी ब्रह्म का ही रूप है..तब यह भी सत का ही रूप है..यह शरीर भी उसी का रूप है तबा दो अस्तित्व हैं एक ब्रह्म का और दुसरे उसके रूप का , और दोनों के अपने अपने नियम हैं , होता यह है की रूप के भ्रम में रहते रहते हम उस तत्त्व को भूल जाते हैं जिसका यह द्रृश्य जगत रूप है, यह हमें नहीं भूलना चाहिए..आदि आदि
    मेरा फोन ०९९५८८६४४९९
    बहुत धन्यवाद

  12. श्री प्रेम सिलही जी
    आपका बहुत बहुत धन्यवाद की आपने इस लेख का सकारात्मक द्रृष्टि से अध्ययन किया..

    आपने यह लिखा कि
    “जब तक भारतीय समाज में तिवारीजी जैसे विद्वान हैं भूरा बन्दर केवल अस्थाई रूप में दिखाई देगा|”
    इससे मुझे भी आशा बढ़ती दिखाई देती है..किन्तु मेरा एक अनुरोध है ;
    क्या आप नहीं सोचते हैं कि इतनी ऊँची संस्क्रृति को बचाने के लिए एक विश्वमोहन नहीं वरन एक सेना की आवश्यकता है ?
    हमें एक सांस्‍कृतिक सेना तैयार करना है..

  13. सर्वस्पर्शी, समग्र विषय को विश्लेषित, और दूर दृष्टिसे युक्त लेख लिखने के लिए, बहुत बहुत धन्यवाद।
    (१)एक ही, बिंदु जिसे मैं, एक प्रमेय ही, मानता हूं, आपके लेख में भी है, पर मैं उसे अधोरेखित करना आवश्यक मानता हूं।
    प्रेरणा की तर-तम (वरीयता)ता, न्यूनाधिकता का प्रमेय:
    **शारीरिक/भौतिक प्रेरणा की पहुंच(sustaining power ) कक्षा से अधिक प्रभावी,== मानसिक/बौद्धिक प्रेरणा की पहुंच(sustaining power ) कक्षा होती है, ==और उससे भी सर्वाधिक ऊंची होती है, (sustaining power )आध्यात्मिक प्रेरणा की पहुंच कक्षा।**
    यह हमारी सनातनता का एक प्रमुख कारण प्रतीत होता है।
    कुछ पंक्तियां==>
    हम तो पुरातन हैं, सनातन हैं, चिरंतन हैं,
    हज़ारों घाव सहके भी नित्य नूतन हैं।
    (वेदके बाद, ३८ संस्कृतियां आयी और गयी)
    ऐरावत हमारा निकल पडा है, भरे बाज़ार।
    जाओ श्वानों को इकठ्ठा करके भुंकवा दो।।
    लगता है, इन पंक्तियोंमें, कुछ अधिक कह दिया।
    पर मेरा सांस्कृतिक गौरव जगा, तो रहा नहीं गया। यदि आपको उचित ना लगे, तो क्षमा चाहता हूं। मैं ऐसा आध्यात्मिक नहीं हूं,कि कुछ अस्मिता भी ना जगे।
    मैं आप के इस समग्र चिंतन को प्रस्तुत करने वाले लेख का फिर एक बार, हृदय तलसे स्वागत करता हूं।
    पाठकों को बिनती की इस पर पढकर कुछ विचार भी करें।

  14. आशा है आप अन्यथा न लेंगे ………..इसे छोटा सा प्रयास मानकर विचार करेंगे……क्योकि आपकी प्रतिमा में व् मुझमे बहुत ज्यादा अंतर है लेकिन ये सब बाते मेरी नहीं है मेरी गुरु परम्परा व् गीता प्रेस में छपे शंकर भाष्य की ही है मेने बस शब्द दिए है ………

  15. संसार को त्यागने का क्या अर्थ है??
    इसका अर्थ है सभी प्रकार की आसक्तियो का त्याग कर देना न की घर बार छोड़ कर वैरागी हो जाना अगर एसा होता तो भगवान गीता में अर्जुन को युध्ध का नहीं सन्यासी बन जाने का उपदेश देते ,सन्यासी होना उसकी बाह्य निशानी है जो प्रत्येक के लिए अनिवार्य नहीं है आपकी जानकारी के लिए बता दू शंकराचार्य ही थे जिन्होंने सन्यासियों के लिए जो नियम बनाये थे उनमे परिवारक जन से अनुमति लेकर ही सन्यास जाने का विधान है संसार की समस्या से डर कर कायरो की तरह भागने का यह पथ नहीं है यह वीरो का मार्ग है जिसका उपदेश रन भूमि में खड़े होकर महा प्राकर्मी कृष्ण महान धनर्धर अर्जुन को दे रहे है पुरे संसार को विनाश करने का सामर्थ्य रखने वाले शिव शम्भू शिव गीता में राम को दे रहे है भगवती दक्ष को बता रही है ………..जिसकी सिंह गर्जना विवेकनद कर रहे है राम्त्रिथ कर रहे है

  16. ‘ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या’
    इस प्रसिद्ध vaky का अर्थ है “ब्रह्म ही एक मात्र सत्य सत्ता है यह जगत जो हमें दिखे दे रहा है वो अपने अस्तित्व के लिए ब्रह्म पर आरोपित है जैसे घड़ा अपने अस्तित्व के लिए मिटटी पर,सोने का हaर सोने पर उसी प्रकार देश कaल व् परिश्थिति के अनुसार यह ब्रहम ही जगत रूप से भासता है जैसे स्वपन में देखे गए पदार्थ हमारी अपनी ही स्रष्टि होते है हमसे भिन्न नहीं उसी प्रकार यह जगत उस ब्रहम की ही स्रष्टि है कोई भिन्न सत्ता नहीं अत ब्रहम ही सत्य है जगत mithya|
    अब सत्य का क्या अर्थ है??
    सत्य बना है सत से जिसका अर्थ जो त्रिकाल रूप से अस्तित्व में हो माने उसकी सत्ता हमेशा हो,कभी भी एसा न हो जब वो नहीं हो जबकि इस जगत को देखो एक समय एसा था जब ये नहीं था एक समय एसा आयेगा जब ये नहीं होगा अत इसके सत होने का कोई प्रश्न ही नी है जैसा घड़ा अपने जन्म से पहले मिटटी ही था व् नष्ट होने के बाद मिटटी ही रहेगा तो घड़े के स्तर पर मिटटी सत्य है घड़ा मिथ्या इसका तात्पर्य ये नहीं है की घड़ा ही झूठा है …………….

  17. पहले तो मै आपक हार्दिक आभारी हु कि आपने वापस लिखा।आपके बारे मे मेने “पाथेय कण” मे पढा था तब से ही आपके प्रति एक सम्मान्न का भाव मेरे मन मे है केवल दार्शनिक भेद है जिसे भी मै गलत नही मानता हु ये केवल स्वाध्याय का नतिजा है कि हम लोग शंकर के “मिथ्या” को झुठ के समक्ष मानते है पहले मै भी एसा ही सोचता था फ़िर मेरे गुरु जी ने व्याख्या सहित बताया कि मिथ्या का अर्थ होता है कि वस्तु को अपने अस्तित्व के लिये किसि ओर की आव्श्यकता होति है या हम कहे अध्यारोपित करना।
    जैसे भीषण गर्मी मे जब हम रेगिस्तान से गुजरते है तो मरीचिका देखते है उसे ही सत्य मानते है लेकिन वो हमारे मन की प्यास की इच्छा का बाहर अध्यारोपण ही तो है,
    जैसे किसी अन्धेरे कमरे मे अगर पांव मे कोयी पतली व नर्म लम्बी चीज को सर्प मान कर चिल्लाते है प्रकाश आने पर वहा रज्जु या रस्सि दिखायि देति है तो हम उस सर्प को क्या कहे??झुठा??नही वो हमारे मन के भय का अध्यारोपण ही है लेकिन क्या रस्सि भी वास्त्व मे रस्सि है??नही वो तो धागा है??नहि वो तो रेशा है???नही वो तो कण है नहि वो तो और आगे बढते जाते है ध्यान आता है कि ये वो ही परमाणु है लेकिन ओर आगे जाने पर रस्सि का अस्तित भी तो मेरे “मैं” पने पर निर्भर करता है ना इसका अर्थ है कि यह भौतिक जगत मिथ्या है जो अपने अस्तित्व के लिये पुर्न्त ईश्वर पर निर्भर है ईश्वर के अत्रिक्त ओर कुछ है ही नही।
    अब मैं आपने जॊ ईशावास्योपनिषद का जो प्रसिध्द श्लोक दिया है उसके शंकर भाष्य का हिन् अनुवाद दे ता हुँ
    “जो ईशन {शासन} करे उसे ईट कहते है;उसका तॄतियान्त रुप “ईशा” है।सबका ईशन करनेवला परमेश्वर प्रमात्मा है।वही सब जीवों का आत्मा होकर अन्त्र्यामीरूप से सबका ईशन करता है।उस अपने स्व्रूप्भुत आत्मा ईश से सब वास्य-आच्छादन करने योग्य है।
    क्या{आच्छादन करने योग्य है}?यह सब जॊ कुछ जगती अर्थात पॄथ्वी में जगत{स्थावर-जगंम प्राणिवर्ग} है वह सब अपने आत्मा ईश्वर से-अन्तर्यामिरूपसे यह सब कुछ मैं ही हुँ।-ऎसा जानकर अपने परमार्थसत्यस्वरूप परमात्मा से यह सम्पूर्ण मिथ्यभुत चराचर आच्छादन करने योग्य है |
    जिस प्रकार चन्दन ओउर अगरु अदि की ,जल अदि के संभंध से गीलेपन अदि के कारण उत्पन्न हुई ओउपधिक दुर्गन्ध उन{चन्दनादी} के svarup को घिसने से उनके पारमार्थिक गंध से आच्छादित हो जाती है,उसी प्रकार अपने आत्मा में आरोपित स्वाभाविक कर्तव्य -भोक्त्रत्व अदि लक्षनोवाला dhvaitrup जगत जगती में यानि पृथ्वी में -जगत्यां यह शब्द{स्थावर-जंगम सभी का} उपलक्षण करने वाला होने से-इस परमार्थ-सत्यस्वरूप आत्मा की भावना से नाम-रूप ओउर कर्ममय सारा ही विकाराजात परित्यक्त हो जाता है|इस प्रकार जो,ईश्वर ही चराचर जगत का आत्मा है-इसी भावना से युक्त है,उसका putradi तीनों इशानाओ के त्याग में ही अधिकार है-कर्म में नहीं|उसके त्यक्त अथार्त त्याग से {आत्मा का पालन कर}|त्यागा हुआ अथवा मारा हुआ पुत्र या सेवक ,अपने सम्बन्ध का आभाव हो जाने के कारण अपना पालन नहीं करता;अत: त्याग से-यही इस श्रुति का अर्थ है-भोग यानि पालन कर|
    इस प्रकार एषानाओ से रहित होकर तू गर्द्ध अथार्त धनविशायक आकांक्षा न कर |किसी के धन की अथार्त अपने या पराये किसी भी धन की इच्छा न कर|यहाँ “खित” यह अर्थ रहित निपत है|
    अथवा आकांक्षा न कर,क्योकि धन भला किसका है?इस प्रकार इसका आक्षेप सूचक अर्थ भी हो सकता है अर्थात धन किसी का भी नहीं है जो उसकी इच्छा की जय|यह आत्मा ही है-इस प्रकार ईश्वर भावना से यह सभी परित्यक्त हो जाता है अत: यह सब आत्मा से उत्पन्न हुआ तथा सब कुछ आत्मरूप ही होने के कारण मिथायापदार्थ विषयक आकांक्षा न कर -एसा इसका तात्पर्य है |

  18. उत्तम साहित्यिक भाषा में लिखा यह हिंदी निबंध केवल मेरी उस शंका को शांत करता है जब मैं सामान्य हिंदी के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचार-पत्र पढ़ते पढ़ते हतोत्साहित हो हिंदी भाषा का निधन होते देख रहा था| प्रवक्ता.कॉम पर ऐसे शुद्ध हिंदी में लेख पढ़ मानो इस दोआबे के पंजाबी में हिंदी के समस्त भारत में व्यवहारिक व क्रियाशील राष्ट्रभाषा होने की उपयुक्तता पर विशवास हो चला है| लेख के गंभीर आध्यात्मिक विषय-वस्तु को लेख के शीर्षक से जोड़ने का भी भरसक प्रयास किया है| आज २०११ में पैरिक्लीज़ और आदि शंकराचार्य के कई सदियों पश्चात् और विशेषकर भारतीय स्वतंत्रता के तिरेसठ वर्षों बाद अच्छे सामाजिक व राजनैतिक नेत्रित्व के अभाव के कारण हमारा समाज भारतीय सनातन आध्यात्मिक ज्ञान से गिरते समयोचित प्रत्यक्षवादी एवं व्यावहारिक पाश्चात्य आधुनिकता में अटक भूरा बन्दर बनने को बाध्य है| यदि आधुनिक विचार में व्यक्तिवाद केवल समाज में विघटन उत्पन्न करता है, विशाल अलौकिक भारतीय सभ्यता और आध्यात्मिक ज्ञान को अणु के कण कण की तरह व्यक्तिवाद ही अपने में संजोय है| जब तक भारतीय समाज में तिवारीजी जैसे विद्वान हैं भूरा बन्दर केवल अस्थाई रूप में दिखाई देगा|

  19. अभिषेक जी बहुत धन्यवाद ..
    यहाँ ठीक है की आदि शंकराचार्य अंत में भक्ति परा आए – भज गोविन्दम उनकी बहुत बाड़ा की रचना है..
    पहले तो वे संसार को त्याग कर अपनी रक्षा करने का आदेश ही दे रहे थे – ईशावास्य उपनिषदा के पहले मंत्र की ही व्याख्या में वे कहते हैं :
    ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः’
    इस संसार को त्याग कर अपनी रक्षा करो !!
    और ‘ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या’ का क्या अर्थ है?
    यदि यह जगात झूठा है, रिश्ते नाते झूठे हैं तब छोडो इसे !!
    उस काल के लिए समाज को संयासियों की सेना की आवश्यकता थी, अत: उस काल के लिए उनकी व्याख्या उचित थी किन्तु आजा नहीं ..
    इसकी आज के लिए सही व्याख्या है कि उस संसार को त्यागपूर्वक भोगो..
    किन्तु मेरे इस से उनकेबड़प्पन परा आंचा नहीं आती, वे इतने विशाल, विराट थे आत्मज्ञानी थे , किन्तु आजा जो मुझे सत्य लगता है वह मैं कहना चाहता हूँ..

  20. आपका यह लेख इतने ज्यादा ग्यान से भरा है कि चाह कर भी नहि लिख पा रहा हु…………………फ़िर भी आपका मायावाद व मिथ्यात्व पर आरोप सत्य नहि है थोडा विषय भिन्नता हो जायेगि अत विस्तार तो नहि दुन्गा लेकिन भक्त्ति आन्दोलन कि सहि मुल श्न्करचर्य हि है जरा उनके “भज गोविन्दम,सोन्द्र्य लहरि,निर्वनत्कम,भ्वानि भुजन्ग आदि देखे भक्ति का अद्भुत आन्दन देखने को मिलेगा………………..भक्ति कि चरम प्राकाश्ता यहि है कि भक्त-भगवान का भेद मित जाये सिर्फ़ सिर्फ़ भगवान रह जाये……………..इसे हि अद्धैत कहते है………….

  21. तिवारि जी मै आपकि बात से पुर्न्त सहमत हु भारत नश्त नहि होगा वो फ़िर उथेगा निश्चित रुप से उथेगा वरना सारि मानवता नश्त हो जायेगि,अपने भोग के लिये पुरे सम्सार को उजाड देगि धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष के सम्वन्य व ध्र्म आधारित रचन से हि उध्ध्हर सम्भव है………..

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