अमेरिका ने पाकिस्तान को दुनिया की मुख्य आतंकवादी शरणस्थली बना दिया

लालकृष्ण आडवाणी

एक मई को पूर्वी मानक समयानुसार रात्रि 11.35 बजे अमेरिकी के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने नाटकीय ढंग से टेलीविज़न पर आकर घोषणा की कि 11 सितम्बर, 2001 के मुख्य षड़यंत्रकर्ता ओसामा बिन लादेन को खोजकर अमेरिकी सेना की विशेष टीम ने मार गिराया है।

दुनियाभर के करोड़ों लोगों के लिए यह घोषणा काफी राहत और संतोष प्रदान करने वाली रही। अंतत: उन हजारों निर्दोष लोगों तथा बच्चों को न्याय मिला जो दस वर्ष पूर्व मारे गए थे।

लेकिन इस दिन की घोषणा में एक अन्य जानकारी भी छिपी थी जो अमेरिका द्वारा 9/11 का शिकार बनने के बाद आतंक के विरूध्द छेड़े गए वैश्विक युध्द पर नजर रख रहे लोगों को बेचैन कर गई।

उस दिन का समाचार था कि अमेरिकी सेना ने बिन लादेन को पाकिस्तान के कैंटोन्मेंट शहर एबाटाबाद में ढूंढ निकाला जो पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद से मात्र 75 मील दूर है और पाक सैन्य प्रशिक्षण एकेडमी के परिसर में है। जैसे-जैसे बिन लादेन के छुपने की जगह के बारे में ब्यौरा आ रहा है इससे साफ है कि दुनियाभर का वांछित आतंकवादी अनेक वर्षों से पाकिस्तान में आराम से रह रहा था और यह निश्चित है कि वह अफगानिस्तान के किसी अंदरूनी क्षेत्र में नहीं छुपा था जैसाकि सामान्य तौर पर प्रचारित किया गया था।

ओसामा के मारे जाने के बाद वाशिंगटन पोस्ट में लिखे गए एक स्तम्भ में पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने कहा है कि उनके देश को बिन लादेन के छुपने के बारे में कुछ भी नहीं पता था !

यदि जरदारी ने कहा होता कि वह व्यक्तिगत रूप से ओसामा के अड्डे के बारे में नहीं जानते तो उनका वक्तव्य शायद सभी को पचता। लेकिन सेना प्रमुख और आईएसआई को इसके बारे में कुछ नहीं पता था, यह एक सफेद झूठ है। वस्तुत: यदि राष्ट्रपति द्वारा कहे गए को ही सत्य मान लिया जाए तो यह इतना बताने के लिए पर्याप्त है कि पाकिस्तान के सैन्य ढांचे में गैर-सैन्य राष्ट्राध्यक्ष मात्र ‘डम्मी‘ है।

रिपोर्टों के मुताबिक ओसामा और उसके परिवार के तीन मंजिला छुपने के स्थान का निर्माण सन् 2005 में किया गया था। इससे यह निष्कर्ष निकालना सही होगा कि यह निर्णय तब लिया गया जब पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ के हाथों में सत्ता केंद्रित थी।

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मई, 2001 में प्रधानमंत्री वाजपेयी ने विदेश मंत्री जसवंत सिंह और मुझे अपने निवास पर दोपहर भोज पर बुलाया। कारगिल युध्द की समाप्ति हमारे पक्ष में रही थी लेकिन पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ ने विद्रोह कर नवाज शरीफ को हटाकर औपचारिक रूप से राष्ट्रपति पद संभाल लिया था।

इस भोज के दौरान मैंने अटलजी को सुझाया –”क्यों न जनरल को भारत में बातचीत के लिए आमंत्रित किया जाए?” मैंने कहा, हो सकता है कि एक सैनिक की सोच राजनीतिक प्रक्रिया से अलग हो सकती है।

इस सुझाव के लाभ और हानि पर कुछ विचार-विमर्श के बाद वाजपेयी और जसवंत सिंह दोनों सहमत हो गए। आगरा को स्थान के रूप में चुना गया। जनरल मुशर्रफ को औपचारिक निमंत्रण भेजा गया। जनरल मुशर्रफ अपनी पत्नी साहेबा के साथ 14 जुलाई, 2001 को नई दिल्ली पहुंचे। राष्ट्रपति भवन में जहां उन्हें ठहराया गया था, मिलने वालों में से सबसे पहला मैं ही था।

हमारी प्रारंभिक बातचीत इस तथ्य पर केंद्रित रही कि हम दोनों ही कराची के सेंट पैट्रिक्स हाई स्कूल में पढ़े थे। अभिवादन के बाद मैंने कहा, ‘जनरल वैसे तो आप दिल्ली में पैदा हुए थे, लेकिन तिरपन वर्षों के बाद आप पहली बार अपने जन्म-स्थान पर आए हैं। इसी तरह मैं कराची में पैदा हुआ था, लेकिन विभाजन के बाद मैं सिर्फ एक बार अपने जन्म-स्थान पर गया हूं, वह भी बहुत कम समय के लिए। लाखों परिवार तो ऐसे भी हैं जो विभाजन के परिणामस्वरूप प्रवास के बाद अपने जन्म अथवा मूल स्थान पर एक बार भी नहीं जा पाए हैं। आधी शताब्दी से भी ज्यादा समय बीत जाने पर भी यह स्थिति है– क्या यह बात स्वयं में अजीब नहीं लगती? क्या हमें उन मसलों का स्थायी हल नहीं निकालना चाहिए, जिनके चलते हमारे दोनों देश और देशवासी इतने अलग हो गए हैं?

‘बिल्कुल निकालना चाहिए।‘ मुशर्रफ का जवाब था। ‘आपके क्या विचार हैं?’

‘सबसे महत्वपूर्ण है, परस्पर विश्वास का निर्माण करना।‘

मुशर्रफ ने सहमति में सिर हिलाया और बोले, लेकिन कैसे?’

‘मैं आपको एक उदाहरण दूंगा। मैं हाल ही में तुर्की की एक सफल यात्रा से आया हूं। मुझे पता चला कि आपको तुर्की से विशेष लगाव है, क्योंकि आपने अपने जीवन के प्रारंभिक वर्ष वहां बिताए हैं।‘

जी हां, मेरे पिताजी वहीं तैनात थे। मैं धारा-प्रवाह तुर्की में बोल सकता हूं।‘

‘मैं वहां भारत और तुर्की के मध्य एक प्रत्यर्पण संधि को अंतिम रूप देने के लिए गया था। भारत और तुर्की के बीच प्रत्यर्पण संधि की इतनी बड़ी जरूरत क्या है? वास्तव में प्रत्यर्पण संधि की जरूरत तो भारत और पाकिस्तान के बीच है, ताकि किसी एक देश में अपराध करके दूसरे देश में छिपने वाले अपराधी को संबंधित देश के हवाले करके उस पर मुकदमा चलाया जा सके।‘

मुशर्रफ अब तक कुछ भी नहीं समझ पाए थे कि मैं बातचीत को किस ओर ले जा रहा हूं। उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, ‘बिल्कुल, क्यों नहीं! हमें प्रत्यर्पण संधि करनी चाहिए।‘

मैंने कहा, ‘जनरल, दोनों देशों के बीच औपचारिक प्रत्यर्पण संधि की प्रक्रिया पूर्ण होने से पहले अगर आप दाऊद इब्राहिम को भारत के हवाले कर दें तो यह शांति-प्रक्रिया में आपका बहुत बड़ा योगदान होगा; क्योंकि दाऊद इब्राहिम वर्ष 1993 के मुंबई बम कांड का मुख्य अभियुक्त है और अभी वह कराची में रह रहा है।‘ अचानक मुशर्रफ का चेहरा तमतमा गया। अपनी असहजता को छिपाने में असमर्थ उन्होंने जो कुछ कहा, वह मुझे बहुत आक्रामक लगा।

‘जनाब, आडवाणी, यह हलकी चाल है।‘ उन्होंने कहा। मैंने अनुभव किया दोनों पक्षों के पांच-पांच अधिकारियों की मौजूदगी में कमरे का माहौल अचानक बदल गया।

मैंने कहा, ‘जनरल, आप सेना से जुड़े व्यक्ति हैं और चाल या रणनीति की बात आप ही सोच सकते हैं। आगरा में प्रधानमंत्री वाजपेयी और आप भारत व पाकिस्तान के मध्य स्थायी शांति लाने की रणनीति पर चर्चा करने वाले हैं। दोनों देशों के लोग आगरा शिखर वार्ता के नतीजे की बड़ी उम्मीद से प्रतीक्षा करेंगे। लेकिन भारत के गृहमंत्री होने के नाते और पचास वर्षों तक सार्वजनिक जीवन में बने रहनेवाले एक जननेता होने के नाते मैं आपको बताना चाहूंगा कि दाऊद इब्राहिम को भारत के हवाले करने के आपके एक ही कार्य से भारत की जनता का आप में और आपके देश में विश्वास बहुत बढ़ जाएगा। विश्व में ऐसे मौके आए हैं, जब औपचारिक प्रत्यर्पण संधि के बिना भी किसी एक देश द्वारा दूसरे देश को अपराधियों का प्रत्यर्पण किया गया है।‘

मुशर्रफ अपनी असहजता छिपा नहीं पा रहे थे। इस बार उन्होंने थोड़ा कड़े शब्दों में कहा, ‘जनाब आडवाणी, मैं आपको बता दूं कि दाऊद इब्राहिम पाकिस्तान में नहीं है।‘ कई वर्षों बाद एक पाकिस्तानी अधिकारी, जो उस दिन बैठक में उपस्थित थे, ने मुझे बताया, ‘हमारे राष्ट्रपति ने दाऊद इब्राहिम के बारे में उस दिन जो कुछ कहा था, वह एक सफेद झूठ था।‘ यह उसी प्रकार से है जैसे कि पाकिस्तानी इन वर्षों में ओसामा के बारे में अमेरिकियों को बताते रहे।

‘एशियन जुग्गरनॉट‘ के लेखक ब्रह्म चेलानी ने लिखा कि: ”9/11 के बाद से आतंकवाद का सामना करने के लिए पाकिस्तान को 20 बिलियन अमेरिकी डॉलर देने के बावजूद, अमेरिका को अच्छी से अच्छी चीज मिली अनैच्छिक सहजता और खराब से खराब धोखेबाजीभरा सहयोग मिला।”

भले ही बिन लादेन के मारे जाने पर अमेरिका फूले नहीं समा रहा परन्तु अमेरिकी सरकार को यह स्वीकारना पड़ेगा कि पाकिस्तान सम्बन्धी इसकी असफल नीति ने उसे देश को अनजाने में ही दुनिया की मुख्य आतंकवादी शरणस्थली बना दिया है।”

टेलपीस (पश्च्य लेख)

जेठमलानी और मेरी तरह बेनजीर भुट्टो सिंध से हैं। वास्तव में भुट्टो परिवार और जेठमलानी लरकाना से जुड़े हैं, यह वह जिला है जो 5000 वर्ष प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष मोहन जो दोड़ो में पाए गए हैं।

मैं बेजनीर से पहली बार तब मिला जब वह 1991 में राजीव गांधी की अंत्येष्टि में भाग लेने आई थीं। तब से जब भी वह भारत आईं वे मुझे मिलती थीं और अक्सर मेरी पत्नी कमला द्वारा उनके लिए बनाए गए सिंधी भोजन का आग्रह करती थीं।

मुझे उनकी अंतिम यात्रा का स्मरण हो आता है जब वे जनरल मुशर्रफ के वाया नई दिल्ली, आगरा जाने से पहले कुछ समय के लिए मेरे निवास पृथ्वीराज रोड पर आईं थीं।

उस दिन हुई हमारी गपशप के दौरान मैंने बेनजीर से एक प्रश्न किया कि यद्यपि भारत और पाकिस्तान दोनों के राजनीतिक नेतृत्व ने अंग्रेजी शासनकाल में एक ही तरह की राजनीतिक संस्कृति आत्मसात् की थी लेकिन भारत ने उल्लेखनीय सफलता के साथ अपने लोकतंत्र को संभाला है परन्तु पाकिस्तान में लोकतंत्र पूरी तरह से विफल रहा है। ब्रिटिशों के जाने के बाद अधिकतर समय पाकिस्तान में सैनिक तानाशाही रही है।

बेनजीर भुट्टो का उत्तर संक्षिप्त और सारगर्भित था ”मैं आपके देश की सफलता के लिए दो बातों को श्रेय देती हूं। पहली, आपकी सशस्त्र सेना राजनीति से दूर है। दूसरी, आपका चुनाव आयोग संवैधानिक तौर पर कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त है।”

मुझे अच्छी तरह से याद है उनकी मुख्य टिप्पणी थी कि कारगिल की अपनी योजना के असफल होने के बाद भी जनरल मुशर्रफ ने भारत का निमंत्रण क्यों स्वीकार किया। उन्होंने मुझसे कहा कि आपकी सरकार को समझ लेना चाहिए कि वह शांति के लिए आगरा नहीं आ रहे। वह यहां राजनीति के लिए आ रहे हैं। उनकी इच्छा है पाकिस्तान का ऐसा गैर-सैनिक राष्ट्रपति बनने की है और जो यह आशा करते हैं कि वे वाशिंगटन के सहयोग से पाकिस्तान के लिए कश्मीर ले पाने में सफल हो सकेंगे जोकि अन्य कोई पाकिस्तानी नेता अभी तक हासिल नहीं कर पाया है।

2 COMMENTS

  1. सोचे कुछ भीआप, पर यह कभी भूले नहीं, कि हमारे क्षेत्रीय पडौसियों के साथ, शांति हमेशा सशक्त, सक्षम, सबल, होकर; रणनीति युक्त-दोस्ती का हाथ बढाने से ही होंगी।
    ६०-६५ वर्षॊंका इतिहास यही कह रहा है।
    सैन्य बल. बुद्धि बल, कूटनीति बल, —और फिर दोस्तीका हाथ।

  2. जनाब आडवाणी ने जनरल मुसर्फ से एक ईमान्दार अपील की थी। आज भी भारत पाकिस्तान के नेताओ को शांती बहाली की भर्पुर कोशीश करनी चाहिए। यह इस क्षेत्र के विकास के लिए अहम है। पाकिस्तान और भारत दो जिस्म मगर एक जान है। यह तो अमेरिका जैसे बदमास जमींदार है जो दोनो भाईयो मे लडाई करवाते रहते हैं।

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