(25 सितंबर 2025, 109वीं जयंती पर विशेष आलेख)
भारत की पावन भूमि सदैव से महापुरुषों की जन्मभूमि रही है। समय-समय पर यहाँ ऐसे युगपुरुष अवतरित हुए जिन्होंने अपने विचारों, कर्मों और त्याग से राष्ट्र को नई दिशा प्रदान की। ऐसी ही पुण्य भूमि पर 25 सितंबर 1916 को मथुरा जिले के नगला चन्द्रभान नामक गाँव में एक महान चिंतक, दार्शनिक और राष्ट्रनायक पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का जन्म हुआ।
उनके पिता श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय रेलवे विभाग में कार्यरत थे और माता श्रीमती रामप्यारी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। किंतु दीनदयाल जी के जीवन में प्रारंभ से ही संघर्ष की लंबी परछाई पड़ गई। मात्र तीन वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पिता को खो दिया और सात वर्ष की आयु में माँ भी चल बसीं। बाल्यावस्था में ही माता-पिता के स्नेह से वंचित होकर भी उन्होंने धैर्य, अध्ययन और आत्मबल से जीवन को नई दिशा दी।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। वे केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्पित स्वयंसेवक ही नहीं, बल्कि गहरे दार्शनिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, इतिहासकार और पत्रकार भी थे। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्र की सेवा के लिए समर्पित कर दिया।
सन् 1951 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की, जिसके सह-संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय थे। उन्हें जनसंघ का संगठन मंत्री नियुक्त किया गया। मात्र दो वर्षों में वे अखिल भारतीय जनसंघ के महामंत्री निर्वाचित हुए और लगभग 15 वर्षों तक संगठन को अपनी अद्वितीय कार्यक्षमता से सशक्त किया। 1967 में कालीकट में हुए 14वें अधिवेशन में उन्हें जनसंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने साहित्य और चिंतन के क्षेत्र में भी अमूल्य योगदान दिया। उनकी प्रमुख कृतियों में दो योजनाएं, राजनीतिक डायरी, भारतीय अर्थनीति का अवमूल्यन, सम्राट चन्द्रगुप्त, जगद्गुरु शंकराचार्य, एकात्म मानववाद और राष्ट्र जीवन की दिशा प्रमुख हैं। कहा जाता है कि उन्होंने चन्द्रगुप्त नाटक केवल एक ही बैठक में लिख डाला था।
उनकी सबसे महत्वपूर्ण देन थी “एकात्म मानववाद” – एक ऐसी विचारधारा जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के बीच सामंजस्य स्थापित करती है। उनके अनुसार हमारी राष्ट्रीयता का आधार केवल भूमि नहीं, बल्कि “भारत माता” है। यदि “माता” शब्द हटा दिया जाए तो भारत केवल भूमि का टुकड़ा रह जाएगा। एकात्म मानववाद में एकता, ममता, समता और बंधुता का दर्शन निहित है। यह विचारधारा मनुष्य को मानवता के मूल्यों के साथ जीना सिखाती है और ऐसे समाज के निर्माण का मार्ग दिखाती है जहाँ विभाजन के बजाय प्रेम और भाईचारा हो।
11 फरवरी 1968 को उनका जीवनकाल अकस्मात समाप्त हो गया। उनका मृत शरीर मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर मिला। यह रहस्यमयी घटना आज भी एक अनुत्तरित प्रश्न बनी हुई है। उनके निधन से सम्पूर्ण राष्ट्र शोकाकुल हो गया था। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जीवन हम सबके लिए प्रेरणा है। वे सच्चे अर्थों में एक राष्ट्रदृष्टा, संगठनकर्ता और प्रखर चिंतक थे, जिनकी विचारधारा आज भी राष्ट्र निर्माण का पथ प्रशस्त करती है।
लेखक
– ब्रह्मानंद राजपूत