संदर्भ- एसईआई और यूएनईपी की रिपोर्ट के अनुसार जीवाश्म ईंधन का बढ़ रहा है प्रयोग
जीवाश्म ईंधन के उत्पादन को कई देश दे रहे हैं बढ़ावा
प्रमोद भार्गव
जलवायु परिवर्तन की एक नई रपट ने चेतावनी दी है कि पेरिस जलवायु समझौते के दस साल बाद भी कई देश जीवाश्म ईंधन के उत्पादन को बढ़ावा दे रहे हैं। उत्पादन अंतराल रपट 2025 के अनुसार, अनेक देशों की सरकारें 2030 तक कोयला, तेल और गैस के उत्पादन की योजना बना रही हैं, जो वायुमंडल की तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए जरूरी ईंधन से दोगुने से अधिक हो सकता है। यह उत्पादन लक्ष्य से 120 प्रतिशत अधिक और 2 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के लक्ष्य से 77 प्रतिशत अधिक है।
पेरिस समझौता 2025 में 10 साल पूरे कर रहा है। इसके अंतर्गत देशों ने तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री तक सीमित रखने और इसे दो डिग्री से बहुत नीचे रखने के प्रयास की प्रतिबद्धता जताई थी। दुबई में आयोजित हुए सीओपी 28 में सरकारों ने ‘ऊर्जा प्रणालियों में जीवाश्म ईंधन से दूसरे स्रोतों की ओर जाने‘ के आवाहन पर सहमति व्यक्त की थी। स्टाकहोम एनवायरमेंट इंस्टीट्यूट (एसईआई) और इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट एंड क्लाइमेट एनालिटिक्स (यूएनईपी) की रपट के अनुसार जीवाश्म ईंधन का उपयोग कम करने की बजाए सरकारें अब सामूहिक रूप से 2035 तक कोयला उत्पादन, 2050 तक गैस उत्पादन और सदी के मध्य तक तेल उत्पादन में निरंतर वृद्धि की योजना बना रही हैं। अतएव कहा जा सकता है कि व्यतीत हो चुके समय की भरपाई के लिए आने वाले दशकों में जीवाश्म ईंधन उत्पादन में और भी तेजी से कमी लानी होगी।
भारत, अमेरिका, चीन, रूस, सऊदी अरब और आस्ट्रेलिया सहित 20 प्रमुख उत्पादकों को शामिल करते हुए किए गए विषलेशण से पता चला है कि 17 देश अभी भी 2030 तक एक जीवाश्म ईंधन का उत्पादन बढ़ाने की योजना बना रहे हैं। अर्थात कोयला, तेल या गैस का उत्पादन दो साल पहले की तुलना में कहीं अधिक होगा। रपट में बताया है कि 2030 तक कोयला उत्पादन 1.5 डिग्री सेल्सियस के अनुरूप स्तर से 500 प्रतिशत अधिक होगा, तेल 31 और गैस का उत्पादन 92 प्रतिशत से अधिक होगा। जबकि वैश्विक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए 2040 तक कोयले का उपयोग लगभग समाप्त करने और 2050 तक तेल एवं गैस उत्पादन में तीन चौथाई कटौती की प्रतिबद्धता जताई थी।
धरती पर रहने वाले जीव-जगत पर करीब तीन दशक से जलवायु परिवर्तन के वर्तमान और भविष्य में होने वाले संकटों की तलवार लटकी हुई है। मनुष्य और जलवायु बदलाव के बीच की दूरी निरंतर कम हो रही है। पर्यावरण विज्ञानियों ने बहुत पहले जान लिया था कि औद्योगिक विकास से उत्सर्जित कार्बन और षहरी विकास से घटते जंगल से वायुमंडल का तपमान बढ़ रहा है, जो पृथ्वी के लिए घातक है। इस सदी के अंत तक पृथ्वी की गर्मी 2.7 प्रतिशत बढ़ जाएगी, नतीजतन पृथ्वीवासियों को भारी तबाही का सामना करना पड़ेगा। इस मानव निर्मित वैश्विक आपदा से निपटने के लिए प्रतिवर्श एक अंतरराश्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन जिसे कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी/कॉप) के नाम से भी जाना जाता है की पिछली बैठक सीओपी 28वीं दुबई में संपन्न हुई थी। पेरिस समझौते के तहत वायुमंडल का तापमान औसतन 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने के प्रयास के प्रति भागीदार देशों ने वचनबद्धता जताई थी। लेकिन वास्तव में अभी तक 56 देशों ने संयुक्त राश्ट्र के मानदंडों के अनुसार पर्यावरण सुधार की घोषणा की है। इनमें यूरोपीय संघ, अमेरिका, चीन जापान और भारत भी शामिल हैं। लेकिन रूस और यूक्रेन तथा इजरायल और फिलिस्तीन युद्ध के चलते कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण और नवीकरणीय ऊर्जा को जो बढ़ावा दिया जाना था, वह उम्मीद के अनुरूप नहीं हो पा रहा है। क्योंकि जिन देशों ने वचनबद्धता निभाते हुए कोयला से ऊर्जा उत्सर्जन के जो संयंत्र बंद कर दिए थे, उन्हें रूस द्वारा गैस देना बंद कर दिए जाने के बाद फिर से चालू करने की तैयारियां हो रही हैं।
ब्रिटेन में हुई पहली औद्योगिक क्रांति में कोयले का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 1500 ईंसवीं में बड़ी मात्रा में कोयले के उत्खनन की षुरूआत हुई थी। इसके बाद जिन देशों में भी कारखाने लगे, उनमें लकड़ी और कोयले का प्रयोग लंबे समय तक होता रहा। दुनिया की रेलें भी कोयले से ही लंबे समय तक चलती रही हैं। भोजन पकाने, ठंड से बचने और उजाले के उपाय भी लकड़ी जलाकर किए जाते रहे हैं। अतएव धुएं के बड़ी मात्रा में उत्सर्जन और धरती के तापमान में वृद्धि की षुरुआत औद्योगिक क्रांति की बुनियाद रखने के साथ ही आरंभ हो गई थी। इसके बाद जब इन दुश्प्रभावों का अनुभव पर्यावरणविदों ने किया तो 14 जून 1992 में रियो डी जनेरियो में पहला अंतरराश्ट्रीय पृथ्वी संयुक्त राश्ट्र सम्मेलन संपन्न हुआ। इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप जापान के क्योटो षहर में 16 फरवरी 2005 को पृथ्वी के बढ़ते तापमान के जरिए जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए क्योटो प्रोटोकॉल अंतरराष्ट्रीय संधि अस्तित्व में आई। इस संधि में षामिल देशों ने ग्रीन हाउस अर्थात मानव उत्सर्जित गैसों को कम करने के लिए प्रतिबद्धता जताई। दुनिया के वैज्ञानियों ने एक राय होकर कहा कि मानव निर्मित गैस सीओ-2 के उत्सर्जन से धरती का तापमान बढ़ रहा है, जो जीवाश्म ईंधन का पर्याय है। 192 देशों ने इस संधि पर हस्ताक्षर किए हुए हैं।
लेकिन वर्तमान में चल रहे दो भीशण युद्ध ने हालात बदल दिए हैं। नवंबर 2021 में ग्लासगो में हुए वैश्विक सम्मेलन में तय हुआ था कि 2030 तक विकसित देश और 2040 तक विकासशील देश ऊर्जा उत्पादन में कोयले का प्रयोग बंद कर देंगे। यानी 2040 के बाद थर्मल पावर अर्थात ताप विद्युत संयंत्रों में कोयले से बिजली का उत्पादन पूरी तरह बंद हो जाएगा। तब भारत-चीन ने पूरी तरह कोयले पर बिजली उत्पादन पर असहमति जताई थी, लेकिन 40 देशों ने कोयले से पल्ला झाड़ लेने का भरोसा दिया था। 20 देशों ने विश्वास जताया था कि 2022 के अंत तक कोयले से बिजली बनाने वाले संयंत्रों को बंद कर दिए जाएंगे। परंतु ऐसा कुछ हुआ नहीं। इन बदलते हालातों में हमें जिंदा रहना है तो जिंदगी जीने की षैली को भी बदलना होगा। हर हाल में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करनी होगी। यदि तापमान में वृद्धि को पूर्व औद्योगिक काल के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है तो कार्बन उत्सर्जन में 43 प्रतिशत कमी लानी होगी। आईपीसीसी ने 1850-1900 की अवधि को पूर्व औद्योगिक वर्ष के रूप में रेखांकित किया हुआ है। इसे ही बढ़ते औसत वैश्विक तापमान की तुलना के आधार के रूप में लिया जाता है। गोया, कार्बन उत्सर्जन की दर नहीं घटी और तापमान में 1.5 डिग्री से ऊपर चला जाता है तो असमय अकाल, सूखा, बाढ़ और जंगल में आग की घटनाओं का सामना निरंतर करते रहना पड़ेगा। बढ़ते तापमान का असर केवल धरती पर होगा, ऐसा नहीं है। समुद्र का तापमान भी इससे बढ़ेगा और कई शहरों के अस्तित्व के लिए समुद्र संकट बन जाएगा।
प्रमोद भार्गव