महिला-जगत

दलीय राजनीति और महिलाएं

-राखी रघुवंशी

दलित महिलाओं की स्थिति पर अक्सर मीडिया का ध्यान तब जाता है जब वे बलात्कार की शिकार होती हैं या उन्हें नग्न, अर्धनग्न करके सड़कों पर घुमाया जाता है। ऐसी शर्मनाक घटनाओं की रिर्पोटिंग के बाद उनका फॉलोअप बहुत ही कम किया जाता है। दरअसल आजादी के छह दशक बाद भी दलित महिलाओं को भेदभाव, हिंसा, सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है। गरीब, महिला व दलित- ये तीनों फैक्टर उसके शोषण में मुख्य भूमिका निभाते हैं। अपने देश में अंदाजन 20 करोड़ दलित हैं, उनमें 10 करोड़ दलित महिलाएं शामिल हैं। अच्छी खासी तादाद के बावजूद वे सामाजिक, आर्थिक, व राजनीतिक मोर्चे पर हाशिए में हैं। सवर्ण जातियों की पेशेवर महिलाएं ऊंचे अहोदों पर ही नहीं हैं बल्कि ऐसी जातियों में कामकाजी महिलाओं की संख्या स्पष्ट तौर पर दिखाई देती है। लेकिन पढ़ी-लिखी काम–काजी दलित महिलाओं की संख्या निराशाजनक है और रोजगार बाजार से बाहर रहने का मतलब उनकी क्षमताओं, संभावनाओं का कत्ल करना है। दरअसल दलित महिलाएं कुछ खास किस्म की हिंसा की शिकार होती हैं। ऊंची जाति के मर्द अक्सर दलित पुरूषों से बदला लेने के लिए उनके समुदाय की औरतों के साथ बलात्कार करते हैं, सरेआम नंगा करते हैं। उनके दांत व नाखून उखाड़ दिये जाते हैं। उन्हें डायन घोषित कर गांव से बेदखल करना आम बात है और कई मर्तबा डायन मानकर हत्या भी कर देते हैं। दक्षिण के मंदिरों में देवदासी प्रथा की शिकार भी दलित लड़कियां ही हैं। दलित महिलाओं के साथ किसी भी प्रकार के भेदभाव को रोकने के जिम्मेवारी राज्य की है। सनद रहे कि अपने देश ने कई ऐसी अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों पर हस्ताक्षर किए हुए हैं जो महिला व पुरूष दोनों की बराबरी की वकालत करते हैं। अंतरराष्ट्रीय कानूनों में यह स्वीकार किया गया है कि सरकार का काम महज मानवाधिकार संरक्षण प्रदान करने वाले कानूनों को बनाना ही नहीं है बल्कि इसके परे ठोस पहल करना भी है। सरकार का काम ऐसी नीतियां बनाना व बजट में प्रावधान करना है ताकि महिलाएं अपने अधिकारों का इस्तेमाल बिना किसी खौफ से कर सकें। इसके इलावा जाति आधारित हिंसा व भेदभाव करने वालों को सख्त से सख्त सजा देना भी है। इंटरनेशनल कन्वेंशन ऑन सिविल एण्ड पॉलटिकल राइट्स के अनुसार भारत सरकार का दायित्व ऐसा माहौल बनाना है जिसमें दलित महिलाओं को यंत्रणा, गुलामी, क्रूरता से आजादी मिले, कानून, अदालत के सम्मुख उसकी पहचान एक मानव के नाते हो। वे निजता व जीने के अधिकार का इस्तेमाल कर सकें और उन्हें अपनी मर्जी से शादी करने का अधिकार भी है।

वस्तुत: एक दलित महिला की जिंदगी व सम्मान ऐसे मानवाधिकारों पर बहुत निर्भर करता है। लेकिन अपने लोकत्रांतिक देश में उनके इन मानवाधिकारों का बहुत ही व्यवस्थित तरीके से उल्लंघन देखने को मिलता है। बाल जन्म व विवाह पंजीकरण दलित लड़कियों को यौन उत्पीड़न, तस्करी, बाल मजदूरी, जबरन व छोटी उमर में शादी से संरक्षण प्रदान करता है लेकिन अपने देश में बाल जन्म व विवाह पंजीकरण की अनिर्वायता के महत्व को सिर्फ अदालतों ने ही समझा है। प्रशासन की लापरवाही व गैर संवदेनशीलता के कारण 46 प्रतिशत शिशुओं का जन्म पंजीकरण नहीं हो पाता और इसमें दलित लड़कियों की संख्या गौरतलब है। आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकारों की बात करें तो यहां भी दलित महिलाएं हाशिए पर ही खड़ी हैं। उनके हिस्से ज्यादातर ऐसे काम आते हैं जहां काम की स्थितियां अमानवीय होती हंै। उन्हें न ही सामाजिक संरक्षण प्रदान होता है और न ही पारिवारिक संरक्षण। स्कूली शिक्षा के चार्ट पर नजर डालें तो अनपढ़ दलित लड़कियों की संख्या चिंता का विषय है। दलित महिलाओं के बच्चों को न तो गुणात्मक शिक्षा मुहैया कराई जा रही है। न ही ऐसी शिक्षा जिसे हासिल कर वे सशक्त बन सकें। दलित महिलाओं की इस चिंतनीय स्थिति से जुड़े कारण भी बैचेन करने वाले हैं। यह एक हकीकत है कि दलित महिलाओं के साथ सिर्फ ऊंची जाति के लोग ही भेदभाव नहीं करते बल्कि अपने समुदाय के भीतर ही उन्हें कमजोर बनाए रखने की हर संभव कोशिश की जाती है। दलित राजनीति में महिलाओं का वजूद सिर्फ संख्या तक ही सीमित है। उधर महिला आंदोलन में भी दहेज हत्या जैसी सामाजिक समस्याओं पर ज्यादा फोकस किया गया। इस महिला आंदोलन में दलित महिलाओं की आवाज, उनके विद्रोह ज्यादा नजर नहीं आते। इसके अलावा आम दलित महिलाओं को उनके पक्ष में बने कानूनों की जानकारी भी बहुत कम होती है। दलित महिलाओं को प्रताड़ित करने वाले मामलों में सिर्फ 1 फीसद अपराधियों को ही अदालत सजा सुनाती है। अदालतों में अपराधियों को सजा से मुक्त करना भी एक बहुत बड़ी समस्या है जो पीड़ित दलित महिलाओं को सालती है।