विविधा

विकास की विडम्बना झेलते लोग

-राखी रघुवंशी

यह जरूरी नहीं कि सरकारी विकास योजनाएं हमेशा लोगों के लिए फायदेमंद ही हो। बल्कि कई बार ये उन्हीं लोगों को संकट में डाल देती है, जिनके हित में बनाई गई है। राजस्थान और मध्यप्रदेश में इस तरह की कुछ घटनाएं सामने आई है, जो सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के तरीकों और नीतियों के बारे में सोचने को विवश करती है। राजस्थान के बीकानेर जिले में किसान क्रेंडिट कार्ड योजना और मध्यप्रदेश के देवास जिले के आदिवासी क्षेत्रों में दूध उत्पादन योजना के जरिये लोगों ने खुशहाली के सपने देखे थे। किन्तु हकीकत में ये योजनाएं ही उनकी बदहाली का कारण बन गई।

किसान क्रेडिट कार्ड योजना 1998-1999 में लागू की गई थी, जो देष के कई राज्यों में चल रही है। इसका उद्देश्‍य किसानों को सूदखोरों से बचाना और समय पर ऋण उपलब्ध करवाना है। ताकि किसान अपनी खेती को ज्यादा उन्नत और फायदेमंद बना सके। लेकिन राजस्थान में इसका जो असर देखने को मिल रहा है, वह इसके उद्देश्‍यों से ही विपरीत है। इसका एक खास कारण किसानों की व्यावहारिक जरूरतों के बजाय टे्रेक्टर जैसी बड़ी चीजों के लिए भारी कर्ज दिया जाना है। बीकानेर जिले में कुछ गांव तो ऐसे हैं जहां पिछले छह महिनों में पांच-छह नये ट्रेक्टर आ चुके हैं। इन ट्रैक्‍टरों के मालिक बहुत ही गरीब किसान है, जिन्होंने कभी यह सोचा भी नहीं था कि उनके दरवाजे पर साढ़े तीन लाख रूपयों का नया टैक्‍टर खड़ा होगा। इनकी आर्थिक दषा पहले से कमजोर है और कहा जाता है ट्रेक्टर खरीदने की इनकी पहले से कोई योजना नहीं थी। बैंक अधिकारियों, सरकारी कर्मचारियों और टे्रेक्टर कंपनी के एजेन्टों ने किसानों को इसके लिए प्रेरित किया। नतीजतन मात्र बीस एकड़ जमीन वाले किसान टे्रक्टर के मालिक तो बन गए, किन्तु इसका ब्याज तक चुकाने की स्थिति में नहीं है। कई किसानों ने तो ट्रैक्‍टर खरीदने के बाद अब तक उससे एक रूपया भी नहीं कमाया। पिछले कुछ सालों से लगातार पड़ रहे अकाल के कारण उनकी माली हालत पहले से ही दयनीय बनी हुई है। अब कर्ज न चुकाने के कारण उनकी जमीन की कुर्की का भी खतरा मंडरा रहा है।

राजस्थान में अब तक करीब 15 लाख किसानों को क्रेडिट कार्ड जारी किए गए हैं। इस तरह इस योजना को लागू करने में आंध्रप्रदेष और महाराष्ट्र के बाद राजस्थान तीसरे नंबर पर है। किन्तु क्रेडिट कार्ड के जरिए खाद, बीज जैसी जरूरतों के बजाय टे्रेक्टर जैसी चीजों के लिए ऋण ज्यादा आसानी से दिया गया। जबकि 20-25 एकड़ तक के किसानों की हैसियत नहीं है कि वे ब्याज सहित कर्ज चुका सके। खेती की आय से टे्रेक्टर की किश्‍त चुकाने के कारण कई किसानों की आर्थिक दषा बहुत कमजोर हो गई है। एक आकलन के अनुसार यदि किसान टे्रेक्टर बेचकर कर्ज चुकाना चाहे तो उन्हें 30 हजार रूपए का घाटा होगा।

मध्यप्रदेष के देवास जिले के आदिवासियों को दी गई जर्सी नस्ल की गायों के कारण भी इसी तरह की स्थिति उत्पन्न हो गई है। जिले का उदयनगर आदिवासी क्षेत्र लम्बे समय से विकास से वंचित रहा है। जिसके फलस्वरूप यहां आदिवासी आंदोलन सामने आएं। पिछले साल यहां हुई ”मेंहदीखेड़ा गोलीकांड” की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद प्रशासन ने यहां विकास के लिए कुछ कदम उठाए। आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ने और उन्हें आर्थिक तरक्की के अवसर देने के लिए स्वर्ण जयंति स्वरोजगार योजना के तहत 30 हजार रूपए मूल्य की दो-दो गायें इन्हें दी गई। ये गायें जर्सी नस्ल की या क्रासब्रिडिंग है। इनके बारे में यह कहा गया कि ये खूब दूध देगी। किन्तु ये गायें इस क्षेत्र के अनुकूल नहीं पाई गई। एक तो यहां की गर्म जलवायु इनकी सेहत के लिए हानिकारक है और दूसरा इन्हें अनाज खिलाना पड़ता है। चूंकि इन गरीब आदिवासियों को खुद के लिए अनाज मुश्किल से मिल पाता है, तो गायों के लिए अनाज कहा से लायेंगे। इस दषा में ये गायें बहुत ही कमजोर हो चुकी है और बहुत कम दूध दे पा रही है। इसके अलावा जो भी थोड़ा-बहुत दूध होता है, उसे बेचने के लिए भी यहां बाजार उपलब्ध नहीं है। नतीजतन कुछ लोगों को तो 4 रूपये प्रति लीटर के भाव दूध बेचना पड़ा। अब बैंक का कर्ज चुकाने का दबाव भी इन पर पड़ रहा है।

ट्रैक्‍टर और गायों के इन उदाहरणों से विकास के बारे में बहुत कुछ सीखा और समझा जा सकता है। यह सच है कि आजादी के बाद सरकार द्वारा लोगों के कल्याण के लिए कई योजनाएं शुरू की गई। अब तक देष में छह पंचवर्षीय योजनाएं क्रियान्वित की जा चुकी है और सातवीं पंचवर्षीय योजना 2002 से जारी है जो सन् 2007 तक चलेगी। किन्तु ये योजनाएं अपेक्षित असर नहीं दिखा पाई। इसका एक खास कारण इन योजनाओं को धरातल पर सही तरीके से क्रियान्वित नहीं किया जाना है। राजस्थान के ट्रेक्टर और मध्यप्रदेष की गायें इसका ठोस सबूत है।

विकास योजनाओं का एक नुकसानदायक पहलू उनमें होने वाला भ्रष्टाचार भी है। इस बारे में सरकारी तंत्र से लेकर राजनेताओं तक सभी पर उंगली उठा चुकी है। यही कारण है कि कतिपय लोगों ने अनुचित तरीके से लाभ पाने के लिए राजस्थान में किसानों को टे्रक्टर खरीदने के लिए प्रेरित किया। सरकारी रिकॉर्ड में तो टे्रेक्टर आवंटन की बात विकास में रूप में दर्ज की गई, किन्तु हकीकत तो कुछ और ही है। जबकि दूसरी ओर खाद, बीज एवं खेती की अन्य जरूरतों के छोटे कर्ज के लिए किसानों को भटकना पड़ता है। यानी जितना ज्यादा कर्ज, उतना ज्यादा कमीशन। इसी रवैये का सबसे ज्यादा नुकसान हितग्राहियों को उठाना पड़ता है।

इन दिनों आर्थिक विकास और स्वरोजगार को बढ़ावा देने की लिए कई योजनाएं चलाई जा रही है। स्वयं सहायता समूह जैसे अभियानों के जरिये महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण और आत्मनिर्भरता की बात कही जा रही है। किन्तु इन्हें वास्तव में लोक हितकारी बनाने के लिए योजनाओं के निर्माण में लोगों की भागीदारी के बारे में सोचना होगा। हमारे यहां ऐसा कोई तरीका नहीं है कि योजना बनाते समय समाज में कमजोर तबकों की राय ली जाए। इस दशा में कई बार लोगों की जरूरतों और योजनाओं के लक्ष्य में फर्क दिखाई देता है। अत: जब तक योजनाओं के निर्माण से लेकर क्रियान्वयन तक सभी स्तरों पर लोगो की भागीदारी नहीं होगी, तब तक योजनाएं अपना सही असर नहीं दिखा पाएगी।