कविता

रोते कितने लोग यहाँ

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इस माटी का कण कण पावन।
नदियाँ पर्वत लगे सुहावन।
मिहनत भी करते हैं प्रायः सब करते हैं योग यहाँ।
नीति गलत दिल्ली की होती रोते कितने लोग यहाँ।।

ये पंजाबी वो बंगाली।
मैं बिहार से तू मद्रासी।
जात-पात में बँटे हैं ऐसे,
कहाँ खो गया भारतवासी।
हरित धरा और खनिज सम्पदा का अनुपम संयोग यहाँ।
नीति गलत दिल्ली की होती रोते कितने लोग यहाँ।।

मैं अच्छा हूँ गलत है दूजा।
मैं आया तो अबके तू जा।
परम्परा कुछ ऐसी यारो,
बुरे लोग की होती पूजा।
ऐसा लगता घर घर फैला ये संक्रामक रोग यहाँ।
नीति गलत दिल्ली की होती रोते कितने लोग यहाँ।।

सच्चाई का व्रत-धारण हो।
एक नियम का निर्धारण हो।
अवसर सबको मिले बराबर,
नहीं अलग से आरक्षण हो।
मिलकर सभी सुमन कर पाते सारे सुख का भोग यहाँ
नीति गलत दिल्ली की होती रोते कितने लोग यहाँ।।

श्यामल सुमन