विविधा

विकास के नाम पर भुखमरी भुगतते लोग

-राखी रघुवंशी

बिसाली गांव के पूनमसिंह ने जीवन जीने के लिए कड़ा संघर्ष किया। बचपन से ही मजदूरी की, बंधुआ मजदूर रहा और अभावों में पला। किन्तु उसने हिम्मत नहीं हारी और कठोर परिश्रम, सूझबूझ तथा पाई-पाई की बचत से गांव के आटा चक्की लगाई। जिससे वह हर रोज 50-60 रूपए कमा लेता। इस तरह 4 बच्चों सहित 6 सदस्यों वाले इस परिवार की आसानी से गुजर-बसर होने लगी। पूनमसिंह ने यह तरक्की आज से तीन साल पहले बगैर किसी सरकारी सहायता के हासिल की थी।

बिसाली गांव मध्यप्रदेष के देवास जिले के उदयनगर आदिवासी क्षेत्र का एक गांव है, और पूनमसिंह खुद एक भूमिहीन आदिवासी है। सरकार द्वारा आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए पिछले साल यहां कई विकास योजनाएं शुरू की गई, जिसके तहत कई लोगों को क्रास ब्रीडिंग व जर्सी नस्ल की गायें कर्ज के रूप में दी गई। पूनमसिंह बताते हैं कि ”दुग्ध संघ, बैंक और सरकारी अधिकारी गांव आए और उन्होंने मुझे भी गाय पालने के लिए कहा। मैने इसके लिए इंकार कर दिया। किन्तु उन्होंने जोर देकर कहा कि ये गायें खूब दूध देगी, जिससे ज्यादा आमदनी होगी। उनकी बातों से प्रभावित होकर मैंने दो गायें ले ली, जिनकी कीमत 28000 रूपये है। शुरू के एक-दो महीने तो इन गायों ने 10-12 लीटर दूध हर रोज दिया, किन्तु बाद में दूध की मात्रा कम होकर हर रोज 5-6 लीटर ही रह गई। इनका दूध पतला होने से डेयरी वालों ने 6 रूपए लीटर के भाव से खरीदा। जबकि इन गायों के आहार में 60-70 रूपए हर रोज खर्च होने लगे। जब पैसे कम पड़ने लगे तो मै चक्की की आमदनी से गायों का पेट भरने लगा, जिससे बिजली का बिल नहीं भर पाया और बिजली विभाग वालों ने बिजली काट दी।” इस तरह कड़ी मेहनत और बचत से शुरू की गई आटा चक्की बंद हो गई। बिजली बिल का ज्यादा पैसा बकाया होने के कारण कुछ दिनों बाद बिजली विभाग वालों ने चक्की की विद्युत मोटर भी जब्त कर ली। अब न तो चक्की चल रही है और न ही गायें दूध दे पा रही है। कमाई का कोई और साधन न होने से उसकी आर्थिक दषा बहुत खराब हो चुकी है। अपनी मेहनत से आत्मनिर्भर होने वाले पूनमसिंह की हालत यह है कि उसके पास परिवार के छह लोगों का पेट भरने के लिए अनाज तक नहीं है। जबकि बैंक से 6000 रूपए की वसूली के नोटिस आ चुके हैं, जो गायों के कर्ज की पहली किष्त है।

इस क्षेत्र में पूनमसिंह की तरह और भी कई लोग हैं, जिनके हित में लागू योजना ने उन्हें ही संकट में डाल दिया है। यहां सरकारी विकास योजना की सारी कवायतें आदिवासी असंतोष के चलते शुरू हुई, जो कई सालों पहले ”आदिवासी मोर्चा” के नाम से शुरू हुआ था, जिसकी परिणति ”मेंहदीखेड़ा गोलीकांड” के रूप में सामने आई थी। उल्लेखनीय है कि पष्चिम निमाड़ के खरगोन जिले की सीमा पर स्थित देवास जिले के इस क्षेत्र मे ंज्यादातर भिलाला और बारेला समुदाय के आदिवासी बसर करते हैं, जो अपनी थोड़ी सी खेती और कभी-कभार मिलने वाली मजदूरी के जरिए भरण-पोषण करते हैं। यह क्षेत्र मध्यप्रदेष के सर्वाधिक पिछड़े क्षेत्रों में गिना जाता है, जहां पानी से लेकर स्वास्थ और रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। साहूकारी ऋण्ा पर लोगों की निर्भरता इस हद तक रही है कि तीन से दस रूपए सैकड़ा प्रतिमाह, यानी 36 से 120 प्रतिषत वार्षिक ब्याज दर पर रूपए उधार लेने पड़ते हैं। इसके अलावा जंगल एवं अन्य विभागों से जुड़े कर्मचारियों के रवैये से भी लोग असंतुष्ट रहे हैं। इस सबके चलते करीब पांच साल पहले यहां के लोग ”आदिवासी मोर्चा” के नाम से इकठ्ठे हुए। लोगों को इस संगठन की प्रेरणा समीपस्त खरगोन और सेंधवा में चल रहे आदिवासी आंदोलनों से मिली। अपने शुरूआती दौर में मोर्चा ने शराब, साहूकारी ऋण तथा सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी। किन्तु धीरे-धीरे आदिवासी मोर्चा का यह आंदोलन वन विभाग के साथ तनाव में बदलने लगा। मोर्चा के लोगों ने वन विभाग के कर्मचारियों के भ्रष्टाचार एवं उत्तरदायित्वहीन रवैये को उजागर करने का प्रयास किया, वहीं वन विभाग ने आदिवासियों पर जंगल कटाई के आरोप लगाए। इसी के चलते सितम्बर 1999 में कटुकिया नामक गांव में वनकर्मियों द्वारा एक आदिवासी की गोली मारकर हत्या कर दी गई। क्षेत्र में आदिवासी आक्रोष को बढ़ाने में इस घटना का खास योगदान रहा। किन्तु वर्ष 2001 में यहीं के एक गांव ”मेंहदीखेड़ा” में हुई पुलिस गोलीकांड की घटना ने पूरे क्षेत्र को हिला कर रख दिया, जिसमें 4 आदिवासियों की मृत्यु हो गई थी। इस घटना के बाद ”आदिवासी मोर्चा” लगभग निष्क्रिय हो गया।

मेंहदीखेड़ा गोलीकांड के बाद शासन ने आदिवासियों के विकास के कई प्रयास किए, जिसका एक उदाहरण स्वरोजगार के लिए कर्ज के रूप में गायें दिया जाना है। सरकार द्वारा स्वर्ण जयंति स्वरोजगार योजना के तहत उन्हें 28 से 30 हजार रूपये मूल्य की क्रास ब्रीडिंग एवं जर्सी नस्ल की गायें फरवरी 2002 में दी गई। कुल 6 लाख रूपए मूल्य की 40 गायें महाराष्ट्र के दोंडाईचा (जिला धुले) से खरीद कर क्षेत्र के छह गांवों मेंहदीखेड़ा, बिसाली, जमासी, नरसिंगपुरा, सीतापुरी एवं खूंटखाल के 22 आदिवासी परिवारों को दी गई। इन गायों की खास बात यह है कि ये जंगल में नहीं चरती, बल्कि एक ही जगह पर रहती है और इन्हें खाने के लिए अनाज व खली जैसे मंहगे आहार की जरूरत होती है। अत: इनके पालन-पोषण की अनुकूल परिस्थितियां न होने तथा आहार का खर्च न उठा पाने के कारण यह योजना अपेक्षित लाभ नहीं दे पाई, बल्कि नुकसानदायक ही साबित हुई है।

ग्राम नरसिंगपुरा के फूलसिंह बताते हैं कि ”हमने पहले ही बता दिया था कि हमें गाय पालना नहीं आता, किन्तु अधिकारियों ने कहा कि गाय पालना आसान है, जल्दी ही सीख जाओगे और खूब आमदनी होगी।” शासन द्वारा इसके लिए प्रयास भी किए गए। गाय पालन सिखाने के लिए क्षेत्र के आदिवासियों को बलसाड़ा (गुजरात) ले गए। किन्तु धरातल पर इसका कोई लाभ देखने को नहीं मिला। क्योंकि वहां की परिस्थिति और यहां के हालात में बहुत फर्क है। लोग बताते हैं कि ”डेयरी द्वारा कम भाव में दूध खरीदने के कारण यह योजना सफल नहीं हो पाई। क्योंकि ज्यादा दूध के लिए गायों को ज्यादा आहार देना पड़ता है, जबकि डेयरी द्वारा फैट रेट के आधार पर दूध खरीदा जाता, जो बहुत ही कम है। इन गायों के दूध का फैट कम होने के कारण साढ़े पांच से साढ़े छह रूपये प्रति लीटर का भाव ही मिल पाता है। अत: कम आमदनी के चलते ज्यादा और उचित आहार खरीदकर गायों को खिला पाना संभव नही रहा और गायें कमजोर हो गई तथा दूध भी कम हो गया।” पूनमसिंह ने एक साल में दो गायों के आहार पर 22 हजार रूपये खर्च किए, जबकि उन्हें दूध बेचकर कुल साढ़े सौलह हजार रूपये ही मिले। बिसाली गांव के ही मोहन भिलाला बताते हैं कि उन्होंने गायों के आहार मे करीब 18 हजार रूपए खर्च किए जबकि कुल 24 हजार रूपए प्राप्त हुए, यानी एक साल में 6000 रूपयों की बचत हुई। इतनी कम आमदनी से घर चलाना ही मुष्किल है तो बैंक की किष्त कैसे चुकाएं।” अब गायों ने दूध देना बंद कर दिया है और लोगों के पास बैंक की किष्त वसूली के नोटिस पहुंच रहे हैं। इसी गांव के भूमिहीन आदिवासी रामचन्द्र भिलाला कहते हैं कि ”इन गायों से हमें बहुत नुकसान हुआ है। गायों की देखभाल करने के लिए मजदूरी पर जाना छोड़ दिया और गायों से भी इतनी आमदनी नहीं हो पाई कि परिवार का पेट भर सके।” वे बताते हैं कि ”यदि दूध ज्यादा दाम पर खरीदा जाता तो कुछ लाभ हो सकता था।” दूध का भाव बढाने के लिए वे खुद देवास कलेक्टर से मिलने गए थे। कलेक्टर ने उनकी बात ध्यान से सुनी और आष्वासन भी दिया, किन्तु दूध के भाव में कोई बढ़ोतरी नहीं हो पाई। ग्राम मेंहदीखेड़ा की रीछाबाई बताती है कि ”ये गायें अब हर रोज 3-4 लीटर से ज्यादा दूध नहीं देती और दूध के भाव भी कम मिलते है। इस हालत में हम बैंक का कर्ज नहीं चुका सकते।”

जैसा कि स्पष्ट है, कोई भी आदिवासी बैंक का कर्ज चुकाने की स्थिति में नहीं है। उनके पास ऐसी कोई पूंजी भी नहीं है, जिससे वे कर्ज चुका सके या बैंक वाले कर्ज वसूल सके। इस दषा में आदिवासियों को दूरगामी नुकसान उठाना पड़ेगा। कर्ज न चुका पाने के कारण बैंक द्वारा उन्हें ”डिफाल्टर” घोषित कर दिया जाएगा। जिससे कोई भी बैंक उन्हें या उनके परिवार को भविष्य में किसी तरह का ऋण नहीं देगा। इस तरह इस योजना से ये लोग बैंकिंग ऋण की सुविधा से हमेषा के लिए वंचित हो जाएंगे।

लोग बताते हैं कि पहले हर रोज दुग्ध संघ की गाड़ी यहां आकर दूध ले जाती थी और दुग्ध संघ वाले ही 500 रूपए प्रति क्विंटल के भाव से पषु आहार उपलब्ध करवाते थे। किन्तु इस साल जनवरी के बाद यहां दूध बहुत कम हो गया, जिससे गाड़ी आना बंद हो गई।” बिसाली, मेंहदीखेड़ा, और नरसिंगपुरा गांव के कई लोगों ने बताया कि ”हम गाय के बजाय बकरियां पालना चाहते थे। उन्होंने बैंक के अधिकारियों को भी बकरियों के लिए कर्ज देने को कहा था। किन्तु उन्होंने इसके लिए मना कर दिया। उनका कहना था कि बकरियां जंगल में चरेगी, जिससे जंगल खत्म हो जाएगा। जबकि ये गायें जंगल के लिए नुकसानदायक नही है।” अत: बकरी पालने के लिए प्रोत्साहित न करते हुए ऐसी गायें दी गई, जिसका उन्हें कोई अनुभव नहीं था। जबकि लोगों का मानना था कि उन्हें बकरी पालन का अनुभव है तथा इस क्षेत्र के उसके लिए अच्छा बाजार है।

उचित पालन-पोषण और पर्याप्त आहार के अभाव में इन दिनों कई गायें बेहद कमजोर हो चुकी है, जिससे उनका दूध कम हो गया है। साथ ही कमजोर गायों का गर्भाधान भी नहीं हो पा रहा है, और जिनका गर्भाधान हुआ भी है उन गायों के बछड़े एक-दो माह में ही मर गए। इसके अलावा गायों के मरने की तादाद भी बढ़ रही है। ग्राम जमासी में 16 गायों में से 8 गायें मर चुकी है। इस गांव की सुकमाबाई बताती है कि ”मेरी दोनों गाये मर गई है, हमारे पास उन्हें खिलाने को कुछ नहीं था।” ग्राम सीतापुरी में 4 में से 3 गाये मर गई। इसप्रकार पूरे क्षेत्र में 40 गायों में से 16 गायें मर चुकी है, जो एक बड़ी संख्या। स्पष्ट है कि लोगों के पास खुद के खाने को अनाज नहीं है, इस दषा में वे गायों का पेट कैसे भरे? लोग बताते हैं कि ”गायों को भूखा मरते देखकर हमें बहुत दुख होता है। बैंक वाले आकर इन गायों को जब्त कर लें तो अच्छा है, कम से कम हमे इनसे मुक्ति मिलेगी।”

उदयनगर क्षेत्र की इस घटना के संदर्भ में सरकारी विकास योजनाओं की रीति-नीति पर विचार करने की जरूरत महसूस होती है। पंचायत राज और स्थानीय स्वषासन के सिध्दान्तों के अनुसार हर विकास योजना में जनभागीदारी जरूरी मानी गई है। किन्तु उक्त स्वरोजगार योजना में कितनी जन भागीदारी हुई, यह उसका हश्र देखकर आंकी जा सकती है। जर्सी नस्ल या क्रास ब्रीडिंग गाये इस क्षेत्र में किस तरह रह पाएगी? लोग उसकी देखभाल कर पायेंगे या नहीं? लोग अपने लिए क्या बेहतर समझते है? इन सब सवालों पर उन लोगों के साथ बैठकर विचार करना जरूरी था, जिनके लिए योजना बनाई गई।