समाज

ज़िन्दगी से भागते लोग

-फ़िरदौस ख़ान

यह एक विडंबना ही है कि ‘जीवेम शरद् शतम्’ यानी हम सौ साल जिएं, इसकी कामना करने वाले समाज में मृत्यु को अंगीकार करने की आत्महंता प्रवृत्ति बढ़ रही है। आत्महत्या करने या सामूहिक आत्महत्या करने की दिल दहला देने वाली घटनाएं आए दिन देखने व सुनने को मिल रही हैं। कोई परीक्षा में उत्तीर्ण न होने पर आत्महत्या कर रहा है, कोई मां-बाप की डांट सहन नहीं कर पाता और जान गंवा देता है। किसी को प्रियजन की मौत खल जाती है और वह अपनी ज़िन्दगी ख़त्म कर लेता है। कोई बेरोज़गारी से तंग है, किसी का सम्पत्ति को लेकर विवाद है, किसी के ससुराल वाले दहेज की मांग को लेकर उससे मारपीट करते हैं। किसी को प्रेमिका ने झिड़क दिया है, तो कहीं माता-पिता प्रेम की राह में बाधा बने हुए हैं। किसी का कारोबार ठप हो गया है तो कोई दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गया है। यही या इससे मिलते कारण होते हैं जो आत्महत्या का सबब बनते हैं। परीक्षा के दिनों में छात्रों द्वारा आत्महत्या किए जाने की ख़बरें ज़्यादा सुनने को मिलती हैं।

असल हमारे समाज में किताबी कीड़े को ही मेहनती और परीक्षा में ज़्यादा अंक लाने वाले बच्चों को योग्य मानने का चलन है, जबकि हक़ीक़त में ऐसा नहीं है। इतिहास गवाह है कि कितने ही ऐसे विद्यार्थी जो पढ़ाई में सामान्य या कमज़ोर माने जाते थे, आगे चलकर उन्होंने ऐसे महान कार्य किए कि दुनिया में अपने नाम का डंका बजवाया। इनमें वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, चित्रकारों और संगीतकारों से लेकर राजनीतिज्ञों तक के उदाहरण शामिल हैं। शिक्षा ग्रहण करना अच्छी बात है। बच्चों में शिक्षा की रूचि पैदा करना उनके माता-पिता और शिक्षकों का कर्तव्य है, लेकिन शिक्षा को हौवा बना देने को किसी भी सूरत में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। अमूमन बच्चे सुबह से दोपहर तक स्कूल में पढ़ते हैं। स्कूलों में भी रुटीन पढ़ाई के बाद अतिरिक्त कक्षाएं लगाने जाने का चलन बढ़ रहा है। इसके बाद बच्चे टयूशन पर जाते हैं। इतनी पढ़ाई करने के बाद भी घर आकर स्कूल और टयूशन का होमवर्क करते हैं। इसके बावजूद अकसर अभिभावक बच्चों को थोड़ी देर खेलने तक नहीं देते। कितने ही घरों में बच्चों का टीवी देखना तक वर्जित कर दिया जाता है। हर वक़्त पढ़ाई करने से बच्चों के मन में पढ़ाई के प्रति नीरसता आ जाती है और उनका मन पढ़ाई से ऊबने लगता है। ऐसी हालत में बच्चे पिछड़ने लगते हैं और फिर अभिभावकों और शिक्षकों की बढ़ती अपेक्षाओं की वजह से वे मानसिक तनाव का शिकार हो जाते हैं, जो बाद में उनकी मौत का कारण तक बन जाता है।

दुनियाभर में हर साल क़रीब दस लाख लोग ख़ुदकुशी करते हैं। यूरोपीय देशों में आत्महत्या की दर ज़्यादा है। रूस में एक लाख की आबादी पर क़रीब तीस लोग आत्महत्या करते हैं, जबकि भारत में यह तादाद 12 है। चीन में हर साल दो लाख 87 हज़ार लोग अपनी जान देते हैं। भारत में यह तादाद एक लाख 30 हज़ार है। भारत में हर रोज क़रीब साढ़े तीन सौ लोग आत्महत्या करते हैं और दिनोदिन यह तादाद बढ़ रही है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2003 में 1,10,851 लोगों ने आत्महत्या की थी, जबकि वर्ष 2004 में 1,13,697 और वर्ष 2005 में 1,13,914 लोगों ने अपने हाथों अपनी जान गंवाई। स्वास्थ्य मंत्रालय ने स्वीकार किया है कि आत्महत्या के बढते मामलों के आगे वह मजबूर है। हर साल बढ़ रहे आत्महत्या के प्रकरणों को तेज़ी से जड़ें जमाती पाश्चात्य संस्कृति का दुष्परिणाम क़रार देते हुए स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा है कि मानसिक रोग विशेषज्ञों की कमी की वजह से भी इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने में कामयाबी नहीं मिल रही है। स्वास्थ्य मंत्रालय की मानसिक रोग संबंधी रिपोर्ट के ताज़ा आंकड़ों पर गौर करें तो देश में दस लाख की आबादी पर महज़ 3300 मानसिक रोग विशेषज्ञ हैं।

आत्मरक्षा एक सहज प्रवृत्ति है और आत्महत्या एक विकृत अमानवीय रुझान। जिन्दगी की कडवाहटों का सामना न कर पाने, खुद असमर्थ महसूस करने, परिस्थितियों का मुकाबला न कर पाने, आकांक्षाओं के धूमिल हो जाने या इच्छा के अनुसार कोई काम न हो पाने आदि से अति संवेदी व्यक्ति घोर मानसिक तनाव का शिकार हो जाता है। वह जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं का भी केवल नकारात्मक पक्ष देखने लगता है। सकारात्मक सोच का पूर्ण ह्रास हो जाता है और मानसिक असंतुलन की इसी अवस्था में यह विचार मानसिक पटल पर उभरने लगता है कि ‘उसका जीवन व्यर्थ है, वह ज़िन्दगी को ढो रहा है या वह जमीन पर एक बोझ है’ और जब यह विचार उसके पूरे अस्तित्व पर छा जाता है तो वह न केवल ख़ुद को बल्कि अपने परिवार को भी मौत के हवाले कर देता है।

आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? पारंपरिक रूप से मज़बूत भावनात्मक अंतर संबंधों और सहिष्णुता के लिए विख्यात इस देश में मरने की इच्छा क्यों बढ़ रही है? यह कहना गलत न होगा कि आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण हमारे परंपरागत समाज की संरचना में बदलाव है। आज संयुक्त परिवार, जाति सामंजस्य और ग्राम समाज की पहली वाली बात नहीं रही। हमारे जीवन को भरोसेमंद आधार देने वाला कोई नहीं है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमारा समाज टूट रहा है। सामाजिक संबंधों में बिखराव का दौर जारी है। व्यक्तिवाद का जमाना आ गया है और समाज तेजी से व्यक्ति केंद्रित हो रहा है। पहले जब किसी व्यक्ति पर कोई संकट आता था तो बहुत-सी संवेदनशील संस्थाएं उसकी मदद के लिए आ जाती थीं जैसे संयुक्त परिवार, बिरादरी व सामाजिक संगठन आदि, लेकिन आज ऐसा नहीं है। आज जब मुसीबत आती है तो व्यक्ति खुद को अकेला पाता है। इंसान को हमेशा सामाजिक रिश्तों की जरूरत होती है। मानव की मानव के प्रति संवेदना जीवन का आधार है। आत्महत्या के कारणों का विश्लेषण किया जाए तो सहज ही आभास होता है कि यदि अमुक व्यक्ति ज़रा भी धैर्य व संयम से काम लेता और निराश व हताश होने की बजाय साहस बटोरकर हालात से उबरने की कोशिश करता तो कोई कारण ऐसा न था कि स्थिति न बदल पाती।

वास्तव में ये मौतें आत्महत्या नहीं, हत्या जैसी हैं जिसकी जवाबदेही हमारे समाज और सरकार की है। लेकिन समाज और सरकार दोनों ने ही अपनी ज़िम्मेदारी से बचने का सबसे मुफ़ीद रास्ता यह खोज लिया है कि इस तरह की मौत को आत्महत्या मान लिया जाए। दुनियाभर में ज़्यादातर आत्महत्याओं का कारण संवेदनात्मक ही होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस प्रवृत्ति पर शोध किया है। स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ अब तक ज्ञात सभी बीमारियों में से 30 फ़ीसदी मनोवैज्ञानिक ही होती हैं। इनके इलाज के लिए दवाओं के साथ संवेदनात्मक आधार पर सहयोग की भी जरूरत होती है। विदेशों में तो आत्महत्या को रोकने की दिशा में कई स्वयंसेवी संगठन सक्रिय हैं। इन्हें सरकार की तरफ़ से पर्याप्त सहायता भी मिलती है। लोगों का रवैया भी सकारात्मक रहता है। हमारे देश में अभी इस प्रवृत्ति को गंभीर समस्या के तौर पर नहीं आंका जा रहा है। हालांकि लोगों में इस तरह की चेतना भी बन रही है कि आत्महत्या एक सामाजिक समस्या है और इसे रोकने की दिशा में सार्थक क़दम उठाने चाहिएं, लेकिन सरकारी स्तर पर कुछ भी ऐसा नहीं किया जा रहा है जिसे संतोषजनक या सराहनीय कहा जा सके।

आत्महत्या की समस्या दिनोदिन भयावह रूप धारण कर रही है। इसे रोकने की दिशा में पूरी सतर्कता बरतते हुए प्रयास किए जाने चाहिए। आज समाज को आत्म विश्लेषण की जरूरत है और यहां के संदर्भ में अपनी पहचान ढूंढनी है। जीवन अमूल्य धरोहर है और हर शर्त पर इसे बचाना और संवारना हमारा फ़र्ज़ है। संभावना के रूप में जीवन हमें अवसर देता है और इसे खोना व्यक्ति व समाज किसी के भी हित में नहीं है।