कविता

पेट्रोल पंप

उसे पेट्रोल पम्प मिल गया है ये सुना अभी,

कैसे हुआ ये चमत्कार अवाक हैं सभी ,

अब और भी लघु लगने लगी है मेरी लघुता,

इस पेट्रोल पंप से उसकी कितनी बढ़ेगी प्रभुता

अब सालेगी न उसे कोई बात चिंता की,

भले ही बाबूजी की पेंशन रहे जब-तब रुकती,

क्योंकि पेट्रोल पंप को होना होता है एक वरदान सरीखा,

यह मैंने भी जाना और सीखा,

कोई देवत्व जरूर ही होता होगा

इन पेट्रोल पंपों में शायद ,

नेता,अधिकारी,धर्माचार्य से

लेकर वेश्या तक,

सभी तो इस मृग मरीचिका के पीछे दौड़े-भागे फिरते हैं,

इनको लेकर सरकारों के भी, अपने-अपने सब्जबाग हैं,

इस पेट्रोल पम्प से जुड़ी, हसरतों की एक दुनिया आबाद है,

विधवा विकलांग, छोड़ी हुई औरत से लेकर,

ऊंची जाति, जनजाति और

अगड़े -पिछड़े,कमतर-बेहतर,

जिनको हैं रहने और खाने के लाले,

वो भी हैं पेट्रोल पंप का ख्वाब पाले,

वैसे तो तरक्की पाने के और भी रास्ते हैं

मगर पेट्रोल पंप पाने के फार्म काफी सस्ते हैं,

अब मैं और मेरा दोस्त एक जैसे न रहें शायद ,

वैसे मेरी और उसकी कभी लम्म -सम्म एक जैसी थी हैसियत

अभी कुछ वर्षों पहले तक ही तो सब कुछ एक जैसा ही था,

खाना पीना स्कूल, ट्यूशन,

घर की कलह झगड़े तमाशे और सिर फुटव्वल भी,

अलबत्ता हमारे घर में शांति ज्यादा थी,

और उसके घर में संयम ज्यादा था,

उससे थोड़ा इक्कीस ही सही,

मगर हमारा वैभव था,

फर्क सिर्फ इतना था उसके, बाप की नौकरी सरकारी थी,

और मेरे पिता प्राइवेट नौकरी में बारह घण्टे खटा करते थे,

फिर सरकारों की तरह ही

बदला उनका रंग -ढंग,

दिन-ब-दिन वह होते गये धनवान,

पहले कारें आईं फिर उनका तिमंजिला होता गया मकान,

मैं सरकारी कालेज में पढ़ा और जूझा,

वह इंजीनियरिंग पढ़ने गया और बिन पढ़े छोड़ भी आया,

वो रात -रात घूमा करता था,

और मैं रात-रात भर पढ़ता और ख़टता रहता था,

वह ऐश पर ऐश ही करता रहा,

मैं मेहनत से पढ़ता-खटता रहा,

ये और बात थी कि तब लोगों को,

उसके बजाय मेरा भविष्य कहीं ज्यादा सुरक्षित लगता था,

वह हजार कामों में उलझा,

मैं राह बनाकर चलता गया,

अचानक एक दिन में ही, फ़िर हम में इतना फर्क कैसे हो गया ?

सुनते हैं जब बहुत वर्षों बाद धरा पर कहीं पेट्रोल न होगा,

तब तक शायद मैं भी जीवित न रहूं,

तब शायद मेरी और उसकी हैसियत फिर एक जैसी हो जाये,

उम्मीद तो नहीं है मगर फिर भी,

कितना अच्छा होता अगर ?

मेरे भी खानदान में काश,

कोई एक पेट्रोल पंप पा जाए?

समाप्त

दिलीप कुमार