समाज

कृपा बेचने वाले र्इसार्इ धर्मगुरु

प्रमोद भार्गव

र्इश्वरीय कृपा को बेचने का कारोबार फैल रहा है। अब तक हिंदू धर्मगुरु निर्मल बाबा कचौरी-समौसे खिलाकर कल्याणकारी कृपा बेच रहे थे, अब इन्हीं की तर्ज पर र्इसार्इ धर्मगुरु पाल दिनाकरण उर्फ पाल बाबा प्रार्थना का पैकेज बेच रहे हैं। निर्मल बाबा की कृपा भक्तों पर जहां दो हजार रुपये में बरसती है, वहीं पाल बाबा ऐसी ही कृपा बरसाने के दाम 3750 रुपये वसूलते हैं। निर्मल का सालाना कारोबार जहां 140 करोड़ का है, वहीं पाल का करीब 150 करोड़ का। निर्मल बाबा जहां विभिन्न टीवी समाचार चैनलों में अवतरण के लिए बतौर विज्ञापन जगह खरीदते हैं, वहीं पाल खुद ‘रेनबो टीवी चैनल के मालिक तो हैं ही अंध-विश्वास को बढ़ावा देने वाले 1800 कार्यक्रम हर महीने दक्षिण भारत की 13 भाषाओं में टीवी पर दिखाते हैं। पाल द्वारा दी जाने वाली कृपाओं की कर्इ किस्में हैं और उनकी कीमतें भी अलग-अलग हैं। बालकों को बुद्धिमान बनाने से लेकर वे भूत-प्रेत की छाया से दूर रखने और भविष्य उज्ज्वल बनाने की कृपाएं बेचते हैं। मामूली समस्याओं से छूटकारा दिलाने का दावा तो वे चुटकियों में करते हैं। जाहिर है, अंधविश्वास का कारोबार हिन्दू धर्मगुरुओं द्वारा ही नहीं किया जा रहा है, र्इसार्इ धर्मगुरुओं द्वारा भी धड़ल्ले से किया जा रहा है। हैरानी इस पर है कि मीडिया पाल बाबा के पाखण्ड का भंडाफोड़ उतने दम-खम से नहीं कर रहा है, जितना निर्मल बाबा का किया ?

50 साल के पाल बाबा भगवान यीशू के नाम पर कृपा का कारोबार करते हैं। वे जब कृपा के कारोबार का प्रचार करते हैं, तब दावा करते हैं कि उन्हें प्रभु यीशू की काया में प्रवेश हो जाने का अनुभव होने लगता है और प्रभु के प्रचार के बहाने कृपा बरसाने लग जाते हैं। वे जिन पर कृपा करते हैं, उनका यदि कोर्इ व्यापार है तो उसमें हिस्सेदारी की मांग भी करते हैं। पाल का यह भी दावा है कि वे र्इसा मसीह के साक्षात दर्शन भी कर चुके हैं। इसी मुलाकात के बाद उन्हें ज्ञान की प्राप्ति और कृपा बांटने की आध्यातिमक उपलब्धि हासिल हुर्इ। पाल दिनाकरण कारुण्या विश्वविधालय और जीसस काल्स नामक संस्थाओं के मुखिया हैं, वे काल्स जीसस संस्था के नाम से ही कृपा बांटने की शुल्क लेते हैं। पाल चेन्नर्इ के र्इसार्इ धर्मगुरु एवं प्रचारक डा. डीजीएस दिनाकरन के पुत्र हैं। डीजीएस ने भी प्रभु र्इसू से 20 साल पहले साक्षात रुबरु होने का दावा किया था। पाल दिनाकरन की पतिन इवैंजीलाइन ;विवाह से पूर्व का नाम विजयाद्ध और उनकी तीन संतानें कृपा-कारोबार का प्रबंधन देखते हैं। धर्म कोर्इ भी हो, उससे जुड़े ज्यादातर संत उसे अंधविश्वास को बढ़ावा देने और अर्थ-दोहन का ही काम करते हैं। भारतीय मूल की दिवंगत नन सिस्टर अल्फोंजा को वेटिकन सिटी में पोप ने र्इसार्इ संत की उपाधि से विभूषित किया था, तब यह विवाद उठा था कि मदर टेरेसा को संत की उपाधि क्यों नहीं दी गर्इ ? दरअसल धर्म की बुनियाद ही चमत्कारी अंधविश्वासों पर रखी गर्इ है। अल्फोंजा को संत की उपाधि से इसलिए अलंकृत किया गया था, क्योंकि उनका जीवन छोटी उम्र में ही भ्रामक दैवीय व अतीन्द्रीय चमत्कारों का दृष्टांत बन गया था। जबकि र्इसार्इ मूल की ही मदर टेरेसा ने भारत में रहकर जिस तरह से कुष्ठ रोगियों की सेवा की अपना पूरा जीवन मानव कल्याण के लिए न्यौछावर किया, जन-जन की वे ‘मां’ संत की उपाधि से विभूषित नहीं की जातीं, क्योंकि उनका जीवन चमत्कारों की बजाए, यथार्थ रुप में मानव कल्याण से जुड़ा था। इससे साफ होता है कि धर्म चाहे, र्इसार्इ हो, चाहे इस्लाम हो या हिन्दू, उनके नीति नियंत्रक ठेकेदार धर्मों को यथार्थ से परे चमत्कारों से महिमामंडित कर कूपमंडूकता के ऐसे कटटर अनुयायिओं की श्रृंखला खड़ी करते रहे हैं, जिनके विवेक पर अंधविश्वास की पटटी बंधी रहे। और वे आस्था व अंधविश्वास के बीच गहरी लकीर के अंतर को समझ पाने की सोच विकसित ही न कर पाएं ?

मानवीय सरोकारों के लिए जीवन अर्पित कर देने वाले व्यकितत्व की तुलना में अलौलिक चमत्कारों को संत शिरोमणि के रुप में महिमामंडित करना किसी एक व्यकित को नहीं, पूरे समाज को दुर्बल बनाने की कोशिशें हैं। सिस्टर अल्फोंजा से जुड़े चमत्कार किंवदंती जरुर बनने लगे हैं, लेकिन यथार्थ की कसौटी पर इन्हें कभी नहीं परखा गया ? अब इस चमत्कार में कितनी सच्चार्इ है कि अल्फोंजा की समाधि पर प्रार्थना से एक बालक के मुड़े हुए पैर बिना किसी उपचार के ठीक हो गए ? यह समाधि कोटटयम जिले के भरनांगणम गांव में बनी हुर्इ है। यदि इस अलौलिक घटना को सही मान भी लिया जाए तो भी इसकी तुलना में हकीकत में मदर टेरेसा की निर्विकार सेवा से तो हजारों कुष्ठ रोगियों को शारीरिक कष्ट से मुकित मिली है। इस दृषिट से संख्यात्मक भौतिक उपलबिधयां भी मदर टेरेसा के पक्ष में थीं। फिर अल्फोंजा को ही संत की उपाधि क्यों ? क्योंकि उनके सरोकार चमत्कारों से जुड़े थे। यही अलौलिक कलावाद धर्म के बहाने व्यकित को निषिक्रय व अंधविश्वासी बनाता है। यही भावना मानवीय मसलों को यथासिथति में बनाए रखने का काम करती है और हम र्इश्वरीय तथा भाग्य आधारित अवधारणा को प्रतिफल व नियति का कारक मानने लग जाते हैं। र्इसार्इ धर्मगुरु कितने कटटरपंथी हैं, यह इस बात से भी पता चलता है कि जब बाबा रामदेव का ‘योग, प्रचार के चरम पर दुनिया में विस्तार पा रहा था, तब इंग्लैण्ड की दो चचोर्ं में योग के पाठ पर पाबंदी लगा दी गर्इ थी। टान्टन की एक चर्च के पादरी सिमथ ने तो यहां तक कहा था कि योग र्इसार्इ धर्म से भटकाने का एक रास्ता है और यह भारतीय मूल के हिन्दू, बौद्ध व जैन दर्शन से कतर्इ अलग नहीं है। इसी तरह 2007 में अमेरिकी सीनेट के उदघाटन के अवसर पर जब हिंदू पुरोहित ने वैदिक मंत्रों का शंखनाद किया तो सूली पर टंगे र्इसार्इ धर्म की सूलियां हिल गर्इं। सदन में मौजूद कटटरवादी र्इसार्इयों ने भविष्य में वेद मंत्रों के पाठ पर पाबंदी लगाने के लिए हल्ला बोल दिया। यह शोर तभी थमा, जब मंत्रोच्चार पर भविष्य में स्थार्इ तौर से रोक लगा दी गर्इ।

दरअसल भारत या अन्य पूर्वी देशों से कोर्इ ज्ञान यूरोपीय देशों में पहुंचता है तो इन देशों की र्इसाइयत पर संकट के बादल मंडराने लगते हैं। ओशो रजनीश ने जब अमेरिका में उपनिषद और गीता को बाइबिल से तथा राम और कृष्ण को जीसस से श्रेष्ठ घोषित करने के दावे शुरु किए और धर्म तथा अधर्म की अपनी विशिष्ट शैली में व्याख्या की तो रजनीश के आश्रम में अमेरिकी बुद्धिजीवियों का तांता लग गया। उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि पूरब के जिन लोगों को हम हजारों मिशनरियों के जरिये शिक्षित करने में लगे हैं, उनके ज्ञान का आकाश तो कहीं बहुत उंचा है। यही नहीं जब रजनीश ने व्हाइट हाउस मेें राष्टपति रोनाल्ड रीगन ;जो र्इसार्इ धर्म को ही दुनिया का एकमात्र धर्म मानते थेद्ध और वेटीकन सिटी में पोप को धर्म पर शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी तो र्इसाइयत पर संकट छा गया और षडयंत्रपूर्वक रजनीश को अमेरिका से बेदखल कर दिया गया। अब तो अमेरिका और बि्रटेन में हालात इतने बदहाल हैं कि वहां के कर्इ राज्यों में डार्विन के विकासवादी सिद्धांत को स्कूली पाठयक्रमों से हटाने की मांग जोर पकड़ रही है, क्योंकि डार्विन को र्इसार्इ धर्म का विरोधी और नासितक माना जाता है। यही कारण है कि पाल बाबा पर सवाल उठना शुरु हुए तो कर्इ चर्चों के फादर उनका बचाव करते दिख रहे हैं। बहरहाल खुद को र्इसार्इ धर्म का प्रचारक बताते हुए पाल दिनाकरन का र्इश्वर तक भक्तों की बात पहुंचाने और फिर कृपा बरसाने का कारोबार निष्कंटक जारी है।