कविता

कुछ भी निश्चित नहीं है

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चाँद तुम रोज़ क्यो मुस्कुराते हो ?

तुम्हारा आसमान मे निकलना, खिलना

कितना सुनिश्चित है।

तुम्हे  कभी कोई बादल भी ढकले,

तो तुम उदास हो जाते हो !

और हमे देखो,

इस धरती पर कुछ भी,

सुनिश्चित नहीं है।

कभी बाढ़ आजाती है,

कभी सूखा पड़ जाता है,

और कभी भूकंप..

धरती काँप जाती है।

ज़िन्दगी दोबारा,

वैसी नहीं होती…

सब कुछ बिखर जाता है,

हंसना क्या मुस्कुराना भी,

मुश्किल हो जाता है।

फिर भी,

कहीं से हिम्मत जुटाते हैं,

जीने के लियें,

कोई फसल उगाते हैं.. उगाते क्या हैं

उगानी पड़ती है।

पता नही ये फ़सल कैसी होगी !

इसे प्राकृतिक विपदाओ से,

बचा पायेंगे या नहीं!

पर उम्मीद मे जीना पड़ता है।

मजबूरी है हमारी,

हम रोज़ तुम्हारी तरह,

मुसकुरा नहीं सकते,

बस कोशिश कर सकते हैं।

अनिश्चितताओं मे जीने की,

मुस्कुराने की।