कविता व्यंग्य

गिरगिट‌ दादा-प्रभुदयाल श्रीवास्तव

मिले सड़क पर गिरगिट दादा

लगे मुझे दुख दर्द बताने|

बहुत देर तक रुके रहे वे

अपने मन की व्यथा सुनाने|

 

बोले ‘सदियों सदियों से मैं

सदा बदलता रंग रहा हूं|

दीवालों आलों खिड़की में,

इंसानों के संग रहा हूं|

 

रंग बदलने के इस गुण में ,

जगवाले मुझसे पीछे थे|

रंग बदलने के गुण सारे,

दुनियां ने मुझसे सीखे थे|

 

किंतु आजकल नेता अफसर,

इस गुण में मुझसे हैं आगे|

ह‌म तो हाय फिसड्डी हो गये,

बन गये मूरख और अभागे|

 

एक रंग जब तक मैं बदलूं,

अफसर‌ पाँच बदल देते हैं|

पकड़ूं एक पतंगा जब तक ,

नेता देश निगल लेते हैं|

 

बाबू शिक्ष‌क पटवारी तक,

रंग बदलने में माहिर हैं|

भीतर से सब काले काले,

तन पर रंग बहुत सुंदर हैं|

 

अभी अभी ही मंत्री जी ने,

पांच मिनिट में दस रंग‌ बदले|

पकड़ॆ गये घुटालों में तो,

घर ने रुपये करोंड़ों उगले|

 

रंग बदलने के ही कारण,

इंसानों का पतन हो गया|

रंग बदलने के गुण से ही,

भ्रष्टाचारी वतन हो गया|

 

किसी तरह से हे प्रभु मुझको,

मेरे गुण वापस दिलवा दो|

एक बार स्वयं रंग बदलकर,

नेताओं को सबक सिखा दो|