कविता

कविता: क्या करें हम ?

ढह गई इमारत

दब गए – मर गए नाचीज़ लोग

झल्लाहट छा गई दिल्ली के दरबार में

उफ्फ, ये गरीब, करते बरबाद गुलाबी सर्दी हमारी !

कह दिया – धमका दिया जनता को

और अगले ही दिन हो गए

बेघरबार हजारों

कुछ और ढह सकने वाली इमारतों से ।

अब लेगें चैन की साँस

पीछा छूटा इन मुओं से

खुले आसमान के नीचे सोने वालों को

कोई इमारत देकर मुसीबतें क्यों बुलाएँ ?

जनता के पैसे से

जनता के वोटों से

खरीदी शालों को ओढ़

घूमता बेशर्म शासक ।

अहो परम पिता !

क्यों दे दी यह बेबस जिंदगी

कि हमारे हाथों की मेहनत से बनें उनके महल

और हमारी पगार इतनी कम ?

क्या करें अब हम

उठा लें जलती मशालें

और लगा दें आग इन रंगीन मिज़ाज लोगों को

बन जाएँ विद्रोही ?

या कि भर हुंकार

टूट पड़ें इन आदमखोरों पर

मिटा दें इनका अस्तित्व

पलट दें यह व्यवस्था ?

या फिर खड़े हो जाएँ इस बार

एक साथ

उठा दें आवाज़ इतनी

कि आसमान हो जाये मज़बूर !

बदल जाये अगली बार

मौसम, शासन, और ज़िंदगी

आ जाये हमारा अपना

संवेदनशील – लोकतंत्र !