कविता

कविता – चिँता या चेतना-मोतीलाल

मोतीलाल

अपना कोई भी कदम

नए रुपोँ के सामने

कर्म और विचार के अंतराल मेँ

अनुभव से उपजी हुई

कोई मौलिक विवेचना नहीँ बन पाता है और विचार करने की फुर्सत मेँ

ज्यादा बुनियादी ईलाज

उपभोक्ताओँ की सक्रियता के बीच

पुरानी चिँता बनकर रह जाती है

 

शून्य जैसी हालात मेँ

स्वीकृति के विस्तार को

हवा देने की सहमति

किसी भी संदर्भ के लिए

जीने की ताकत नहीँ दे सकती है

और निरंतर नया रुप लेती इच्छाएँ कर्मक्षेत्र को खोलने को तैयार आँखेँ सोचने की फुर्सत कहाँ देती है

 

भाग्यभेद की दिशाएँ

तय कर देती हैँ सबकी सीमाएँ

 

गलियारोँ से दूर

जो धूप के टूकड़े

सार्वजनिक होने से बचते रहेँ हैँ

वे हमारे अंतस के किसी अंश मेँ

निजी चिँता का विषय बनकर

सिकंदर सा सामने खड़े हो जाते हैँ

तब परिवर्तनोँ की जरुरतेँ

कौँध से पैदा ना होकर

सुबह से देर रात तक

निर्णयोँ के जाल मे ही कहीँ

एक अलग अर्थ ग्रहण कर लेते है ।