कविता

कविता/अपनी जमीं पर…

आसमाँ सा ऊँचा उठकर,

झिलमिल सपनों में खो जाऊँ।

दीन-हीन की पीन पुकार,

एक बधिरवत् सुन न पाऊँ।

सागर-सी गहराई पाकर,

अपने सुख मेँ डूबूँ-उतराऊँ,

गम मेँ किसी के गमगीँ होकर,

आँसू भी दो बहा न पाऊँ।

तो, नहीं चाहिए ऐसी उच्चता,

और न ऐसी गहराई।

इससे तो मैं अच्छा हूँ,

अपनी जमीं पर ठहरा ही।

अपनी जमीं पर अपनों के संग,

सुख-दुख मिलकर बाटूँ।

पनप रही जो बैर की खाई,

प्यार से उसको पाटूँ।

-डॉ. सीमा अग्रवाल