कविता

कविता / कपूत

कितने तीर्थ किये माता ने और मन्नत के बांधे धागे!

चाह लिए संतति की मन में, मात-पिता फिरते थे भागे!

सुनी प्रार्थना ईश ने उनकी मैं माता के गर्भ में आया!

माना जन्म सार्थक उसने हुई विभोर ज्यों तप-फल पाया

नौ-दस मास पेट में ढोया पर माथे पर शिकन न आई!

सही उसने प्राणान्तक पीड़ा मुझे जगत में जब वो लाई!

रात-रात भर जागी माता मगर शांति से मुझे सुलाया!

लालन-पालन किया चाव से अमृत सा निज दूध पिलाया!

पकड़ बांह निज कर से मेरी चलना भी उसने सिखलाया!

मेरी पूर्ण करीं सब इच्छा मन मसोस निज समय बिताया!

रोती फिरती थी सारे दिन जब भोजन मैं नहीं खाता था!

पापा डांट दिया करते थे तो दिल उसका भर आता था!

टुकुर-टुकुर थी राह ताकती जब विलम्ब से घर आता था!

वही पकाती सदा प्रेम से भोजन जो मुझको भाता था!

बीता बचपन आया यौवन दिन बीते में बड़ा हो गया!

पढ़-लिखकर उसके असीस से अपने पग पर खडा हो गया!

कटु सत्य अपने जीवन का मैं निर्लज्ज तुम्हें बतलाता!

निज गृहस्थ में मस्त मगन मैं विधवा, वृद्धा हो गई माता!

बस अपने आँगन तक सीमित, शेष सभी कर्तव्य मैं भूला!

पत्नी परसे मुझे रसोई माता अपना फूंके चूल्हा!

सत्य है परिवर्तन का पहिया सतत घूमता ही रहता है!

घर-घर की है यही कहानी मगर कवि अपनी कहता है!


-सुरेश चंद शर्मा