काश।
एक कोरा केनवास ही रहता
मन…।
न होती कामनाओं की पौध
न होते रिश्तों के फूल
सिर्फ सफेद कोरा केनवास होता
मन…।
न होती भावनाओं के वेग में
ले जाती उन्मुक्त हवा
न होती अनुभूतियों की
गहराईयों में ले जाती निशा।
सोचता हूं,
अगर वाकई ऐसा होता मन
तो मन मन नहीं होता
तन तन नहीं होता
जीवन जीवन नहीं होता…।
तो सिर्फ पौधा एक पौधा होता
फूल सिर्फ एक फूल होता
फूल पौधों का उपवन नहीं होता…।
हवा सिर्फ हवा होती
निशा सिर्फ निशा होती
कोई खूशबू नहीं होती
कोई उषा नहीं होती…।
जीवन की संजीवनी है भाव
रिश्तों का प्राण है प्यार
मन और तन दोनों का
यही तो है
शाश्वत शृंगार
एक मात्र मूल आधार… ।
-अंकुर विजयवर्गीय
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शुक्रिया लक्ष्मी नारायण जी
आप लोगों का प्यार और आशीर्वाद रहा तो कुछ और रचनाओं से आपको रूबरू करा पाउंगा ।
सादर
अंकुर
अंकुर जी आप का कविता अच्छा लगा आप के विचार प्रसंसनीय है आपको हार्दिक बधाई ……………..
लक्ष्मी नारायण लहरे
कोसीर छत्तीसगढ़