क्लास के बाद क्लास बीतता जाता है
जिन्दगी के ग़ैरमामूली ब्लैकबोर्ड पर
तीन अँगुलियों से पकड़े गए चॉक के जरिये
केवल लफ़्जों की गिनती
उसके बाद ढंग-ढंग घंटे का बज जाना
उन तजुर्बेकार लिखावटों को नया डस्टर पोंछ लेता है ।
कुछ निशान रह जाते हैं, उस्ताद जिन्दगी गुजर जाती है ।
लम्बी से और लम्बी होती समय की छाया
जिन्दगी की देह पर लेपकर
सुन्दर के स्नान का समापन
फिर भूख के अन्न का आयोजन –
पूरा हो जाने पर , फिर कभी धारा के विपरीत
चलते हुए आचमन कर लेना होता है ।
पिताजी कहा करते थे ,
पहाड़ पर चढ़ने के पहले देह पर मिट्टी का लेप करो
पाँव मजबूत करो
पानी के बोतल को गले तक भर लिया करो ।
मैंने बात नहीं मानी
पहले तो पहाड़ समझकर पठार पार किया
उसके बाद, एक के बाद एक पहाड़ ढूँढ़ता रहा ।
दिन, महीने, साल बीतते गए ।
सारी देह मिट्टी से काली पड़ गई। पैरों में जञ्जीर ।
पानी का खाली बोतल ।
और फिर फिर वही दौड़–दौड़
पहाड़ कब्जे में कब आएगा ?
(मूलत: बांग्ला में तपन कुमार बन्द्योपाध्याय द्वारा रचित इस कविता का हिंदी में अनुवाद गंगानंद झा ने किया है)
बहुत सुन्दर अभिब्यक्ति …..