कविता

कविता: जो विराट तेरा, वह विराट मेरा

-राकेश उपाध्‍याय

यह विराट मेरा, वह विराट तेरा।

कुछ भी अन्तर नहीं है, वही है……

जो विराट तेरा वह विराट मेरा॥

बादलों के घड़े जमीं पर बरसते,

बरसों-बरसों ये क्यों हैं घुमड़ते,

आकाश से जमीं पर क्यों हैं उतरते

यदि ये जमी मेरी, यदि ये आकाश तेरा।

जो विराट तेरा, वह विराट मेरा…।

आंसुओं के बादल, आंख में क्यों आते

प्यार के दो बोल, क्यों मुस्कान लाते

बदला है जमाना पर ये क्यों न बदले

यदि हंसी सिर्फ तेरी, यदि रंज सिर्फ मेरा।

जो विराट तेरा, वह विराट मेरा॥

पूरब की रोशनी में पश्चिम क्यों नहाए

पश्चिम का अंधेरा, कब तक हमें सुलाए

उजाले की घड़ी है, कहीं तो पौ फटेगी

सूर्य भी यहीं पर यदि है कहीं अंधेरा।

जो विराट तेरा, वह विराट मेरा॥

अब रात ढल रही है, भोर हो गयी है

आह्वान कर रहा है हमको अब सवेरा।

जो विराट तेरा, वह विराट मेरा॥