शांति खोजता रहा
धरती के ओर चोर भटकता रहा
कहाँ है शांति
कहीं तो मिलेगी
इस चाह में जीवन कटता रहा
समुद्र की गहराई में गोता लगाता रहा
झील की शालीनता को निहारता रहा
चट्टाने चडता रहा
घाटियाँ उतरता रहा
पगडंडियों में संभालता रहा
रेगिस्तानी में धंसता रहा
कीचड़ में फिसलता रहा
बन उपवन में टहलता रहा
बाग- बगीचे फिरता रहा
हरियाली घूरता रहा
जेठ की दोपहरी तपता रहा
सावन की बोछारों में भीगता रहा
पूष की ठण्ड में ठीठुरता रहा
बसंती बयारों में मचलता रहा
फूलों की महक से मुग्ध होता रहा
मंदिर, मस्जिद में चड़ावा चडाता रहा
मन्त्रों का जाप करता रहा
कुरान की आयत पढता रहा
गुरुवाणी गाता रहा
गिरजों में प्रार्थना करता रहा
सत्संगों में प्रवचन सुनता रहा
धर्म गुरुवों के पास रोता रहा
टोने टोटके के भंवर में डूबता रहा
उपवास पे उपवास रखता रहा
जात -पात, उंच- नीच के भ्रमजाल में फंसता रहा
बहुत दूर…… दूर चलता गया
पीछे मुड़ा
हेरानी !!!!!! ओं…
जीवन यात्रा का आखरी पड़ाव !
सामने देखा …….
रास्ता बंध.
लेकिन मन,
अभी अशांत … निरा अशांत
वही बैचेनी
वही लालसा
मोहपास जाता नहीं
मेरे -तेरे का भेद मिटता नहीं
तभी एक आवाज आई
में शांति,……..
कभी अंतर्मन में झांक के देखा?
क्यों? मृगतृष्णा में भटकता रहा
कश्तुरी तो तेरे अन्दर ही थी
अब पछ्ता के क्या करे
जब चिड़िया चुग गयी खेत.
आज बेसहाय … निरा बेसहाय