कविता

कविता- औरत

औरत तिल-तिल कर

मरती रही, जलती रही

अपने अस्तित्व को

हर पल खोती रही

दुख के साथ

दुख के बीच

जीवन के कारोबार में

नि:शब्द अपने पगचापों का मिटना देखती रही

सृजन के साथ

जनम गया शोक

रुदाली का जारी है विलाप

सूख गया कंठ

फिर भी वह आंखों से बोलती रही

जीवन के हर कालखंड में

कभी खूंटी पर टंगी

तो कभी मूक मूर्ति बनी

अनंतकाल से उदास है जीवन

पर

वह हमेशा नदी की तरह बहती रही


-सतीश सिंह