साहित्य में राजनीति एजेंडा

सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता झांसी की रानी में बदलाव

प्रमोद भार्गव

राजनीति के स्तर पर अब तक पाठ्य पुस्तकों में इतिहास के पन्नों को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत करने की कोशिशें होती रही हैं। नए तथ्यों और साक्ष्यों के आधार पर ऐसा संभव भी है। लेकिन इधर राष्ट्रवाद और राष्ट्रबोध का दंभ भरने वाली मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने साहित्य के साथ खिलवाड़ करते हुए एक रचना की रचनात्कमकता को विकृत कर उसे छठी कक्षा की पाठ्यपुस्तक में शामिल किया है। वह भी एक ऐसी लोकप्रिसद्ध कविता के साथ जिसके आज भी कई पद लाखों लोगों को कंठस्थ होंगे और कविता अपने मूल रूप में देश के अनेक पुस्तकालयों और निजी संग्रहों में संग्रहित होगी। जनश्रुति का रूप ले चुकी इस कविता के पद और पंक्तियां किसी पाठ से विलोपित करने से सत्ताधारी दल का आशय यह भी निकलता है कि यदि उसे अपनी आकांक्षाओं की मनमानी करने की पूरी छूट मिल जाए तो वह साहित्य और संस्कृति के मूल्यों से छेड़छाड़ करके उसमें अपने राजनीतिक एजेंडे के मंतव्य को किसी भी हद तक समायोजित करने की कुटिलता बरत सकता है। राज्य सरकार के शिक्षा विभाग ने यह हरकत सुभद्राकुमारी चौहान की किंवदंती का रूप ले चुकी मशहूर कविता ॔खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ के साथ की है।

सुभद्रा कुमारी चौहान ने स्वतंत्रता की लड़ाई से जूझ रहे नायकों को अभिप्रेरित करने के लिए झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की अतुल्य दुस्साहस और वीरता का आख्यान करने वाली यह कालजयी काव्यरचना रची थी। इस कविता में ग्वालियर राज्य के तत्कालीन नरेश पर अंग्रेजों की अनुकंपा ऐतिहासिक साक्ष्यों में जिस रूप में उल्लेखित है, उसे कविता के शिल्प में रोचक ढंग से ढालने का काम लेखिका ने किया है। यह केवल लोक मान्यता और जनश्रुति नहीं है कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के विद्रोही नायक जब अंग्रेजों के दांत खट्टे करके फिरंगी हुक्मरानों को देश की सरजमीं से बेदखल करने के करीब पहुंच रहे थे, तब ग्वालियर के शासक जयाजीराव सिंधिया अंग्रेजों के प्रति कृतज्ञ बने रहकर उन्हें सैन्यसुविधाएं और रशद सामग्री तो पहुंचा ही रहे थे, अपने गुप्तचरों से इन लड़ाकों की गतिविधियों का पता कर उन्हें कुचलने का भी काम कर रहे थे। इस वफादारी के बदले अंग्रेजों ने इन्हें ग्वालियर की सत्ता पर निर्विघ्न बने रहने का अभयदान भी दिया था।

अब तक भाजपा सरकारें भारतीय साहित्य और इतिहास को माक्र्सवादी वामपंथी नजरिए से देखनेपरखने का आरोप खासतौर से कांग्रेस पर लगाती रही हैं। इतिहास और साहित्य को भारतीय अथवा दक्षिणपंथी नजरिए से देखने की पैरवी भी वे करती रही हैं। लेकिन भारतीय इतिहास का निष्पक्ष पुनर्लेखन और साहित्य का दक्षिणपंथी नजरिए से पुनर्माल्यांकन की नवोन्वेषी कोशिशों की बजाय भाजपा ने उन पद और पंक्तियों को विलोपित करने का सिलसिला शुरू किया है, जिन राष्ट्रद्रोही वंशजों की आर्थिक मदद के बूते उसे राष्ट्रव्यापी विस्तार मिला। दरअसल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके हिन्दू महासभा, जनसंघ, विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल जैसे अनुषंगी संगठनों को बाल व किशोर रूप में पालनेपोषने का काम सिंधिया राजवंश और उसमें भी खासतौर से स्वर्गीय विजयाराजे सिंधिया ने बखूबी किया। महारनी विजयाराजे की इसी कृतज्ञता को नमन करने की दृष्टि से सरकार हिंदी साहित्य की इस कालजयी रचना के साथ खिलवाड़ करने से भी नहीं चूकी। साहित्य को विकृत करने की इस हरकत की परवाह उन दक्षिणपंथी साहित्यकारों को भी नहीं है जो राष्ट्रवाद की दुहाई का नारा अकसर बुलंद करते रहते हैं। लाभ के पदों पर बैठे होने के कारण उन सब की जुबानों पर ताले पड़े हैं। हालांकि पाठ्यपुस्तकों का पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाली स्थायी समिति और मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी के अध्यक्ष गोंविद प्रसाद शर्मा इतना जरूर कह रहे हैं कि ,आप किसी कविता को ले सकते हैं या छोड़ सकते हैं, लेकिन कविता की पंक्तियों से न तो छेड़छाड़ कर सकते हैं और न ही उन्हें कविता के मूल पाठ से विलोपत कर सकते हैं।’ उनका यह भी मानना है कि ,पाठ्यपुस्तक के नवीन संस्करण से कविता की कुछ पंक्तियां नदारद है। इन्हें हटाने के लिए किसी को अधिकृत नहीं किया गया।’ इसकी जांच का भी वे भरोसा जता रहे हैं।

इसमें दो राय नहीं कि यह कविता उन वंशजों और उनके निष्ठावान अनुयायिओं को चुभने वाली हो सकती है, जिनकी राष्ट्रभक्ति संदेह के दायरे में रही हैं। कविता की यह पंक्ति जिसे मूल पाठ से अब विलोपित कर दिया गया है॔’अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी…’’ निश्चित रूप से सिंधिया राज घराने के राजनीतिक वंशजों को आघात पहुंचाने वाली है। लेकिन यह कविता नई नहीं है, इसलिए इस पंक्ति को विलोपित करने की हरकत को चूक नहीं माना जा सकता। यह जानबूझकर की गई नादानी है। वैसे भी यह कविता केवल मध्यप्रदेश के हिंदी पाठ्यक्रम में नहीं पॄाई जाती, अपितु देशभर के हिन्दी पाठ्यक्रमों में हर साल पॄाई जाती है। इस कविता का अनुवाद भी देश की लगभग सभी भाषाओं में हुआ है और यह कविता सभी राज्यों के पाठ्यक्रम में कमोबेश शामिल हैं। इस कारण यदि राज्य सरकार इस भ्रम में है कि किसी पंक्ति विशेष को निकालकर वह किसी राजवंश के राष्ट्रद्रोह जैसे कलंक को धो देगी तो यह एक मुगलता ही साबित होगा। बल्कि नए सिरे से कविता चर्चा में आकर सिंधिया राजवंश के कलंक को नई पीढ़ी में और गहरे पैठ बनाने का अवसर देगी।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की वास्तविकताओं को झुठलाने का प्रयत्न कोई पहली बार नहीं हुआ है। पाश्चात्य इतिहास लेखकों की स्वार्थपरक और कूटनीतिक विचारधारा से कदमताल मिलाकर चलने वाले कुछ भारतीय इतिहास लेखकों के चलते आज भी इतिहास व साहित्य की कुछ पुस्तकों और ज्यादातर पाठ्यपुस्तकों में यह मान्यता चली आ रही है कि 1857 का संग्राम फिरंगी सत्ता के खिलाफ चंद बागियों का बर्बरतापूर्ण विद्रोह था। यह विद्रोह तत्कालीन ब्रितानी हुकूमत से अपदस्थ गिनेचुने राजामहाराजाओं, जमींदारों और कुछ हिन्दूमुस्लिम बागी सैनिकों तक सीमित था। लेकिन विडंबना देखिए कि इसी संग्राम को विद्रोह की संज्ञा देने वाले इतिहास लेखक यह निर्विवाद रूप से स्वीकारते हैं कि उस समय के शक्ति संपन्न राजघराने ग्वालियर, हैदराबाद, कश्मीर, पंजाब और नेपाल के नरेशों तथा भोपाल की बेगमों ने फिरंगी सत्ता की मदद नहीं की होती तो भारत 1857 में ही दासता से मुक्त हो गया होता। अंग्रेजी सत्ता के सुरक्षा कवच बनने वाले इन नरेशों को अंग्रेजों ने स्वामीभक्त कहकर दुलारा भी था। इसी तथ्यात्मक साक्ष्य को आधार बनाकर सुभद्रा कुमारी चौहान की पंक्ति ॔अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी’ रची थी। राजपरिवार से जुड़ा यह शर्मनाक पहलू अब एक लोक प्रचलित पहलू का रूप ले चुका है, लिहाजा इस कालिख को किसी कविता की चंद पक्तियां हटाकर पोता नहीं जा सकता।

किसी कविता के मूल पाठ से जुड़ा यह तो मात्र एक पंक्ति हटा देने का प्रसंग है, लेकिन यहां सवाल उठता है कि क्या राज्य सरकार मध्यप्रदेश के राजकीय अभिलेखागार में संग्रहित 1857 के संग्राम से संबंधित उन पत्रों से भी छेड़छाड़ करेगी, जिनमें न केवल ग्वालियर राजघराने से बल्कि अन्य राजघरानों से जुड़े ऐसे साक्ष्य मौजूद हैं जो अंग्रेजों से उनके लाभकारी संबंधों का खुलासा करते हैं। ये पत्र महारानी लक्ष्मीबाई, रानी लड़ई दुलैया, राजा बख्तबली सिंह, राजा मर्दन सिंह, राजा रतन सिंह और उस क्रांति महान योद्घा, संगठक एवं अप्रतिम सेनानायक तात्याटोपे द्वारा लिखे गए थे। इनमें कई पत्र ऐसे भी हैं, जो आम आदमी, किसान, सैनिक और तांत्रिकों द्वारा लिखे गए। ये पत्र इस संग्राम के पुख्ता ऐतिहासिक साक्ष्य तो हैं ही, पत्रों की भावना से यह भी स्पष्ट होता है कि आजादी की इस पहली लड़ाई का विस्तार दूरदराज के ग्रामीण अंचलों तक हो रहा था और केवल स्वतंत्रता की इच्छा से आम व्यक्ति क्रांति के महायज्ञ में समिधा डालने को तत्पर था। राजामहाराजाओं के राष्ट्रीय अपराधों को छिपाने का सिलसिला शुरू करने वाली प्रदेश की सरकार इन पत्रों के वजूद को ही नष्ट करने की साजिश न रच द, यह सवाल यहां विचारणीय है ?

राज्य सरकार किस तरह रानी लक्ष्मीबाई से जुड़े प्रसंगों को लेकर कथनी और करनी में भेद रखते हुए दोहरी नीति को अंजाम दे रही है, यहां यह भी दृष्टव्य है। कुछ समय पूर्व फ्रांसीसी उपन्यासकार माइकल डी ग्रीस का 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े ऐतिहासिक उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद ॔लॉ फेम सेक्री’ प्रकाशित हुआ था। इसमें रानी लक्ष्मीबाई को सामान्य व कमजोर महिला निरूपित करने की कवायद तो की ही गई थी, एक काल्पनिक प्रसंग ग़कर उनके मन में एक अंग्रेज वकील के प्रति रागात्मक आकर्षण पैदा करने का छल भी किया गया था। तब इसी सरकार के संस्कृति मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा और भारत भवन के सदस्य सचिव रामेश्वर मिश्र ‘पंकज’ ने सार्थक व कठोर प्रतिरोध किया था, जो जरूरी भी था। इन दोनों ने अपने वक्तव्य में कहा था कि, “इस उपन्यास में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरूपयोग हुआ है। लेखक ने ऐतिहासिक तथ्यों से खिलवाड़ करके, रानी झांसी को लक्ष्य बनाकर काल्पनिक, निराधार व मनग़ंत प्रसंग रचा है। लक्ष्मीबाई के समूचे जीवन के बारे में भारत में पर्याप्त तथ्य और अभिलेखित साक्ष्य मौजूद हैं। उनसे प्रमाणित है कि वे तेजस्विनी और शील व संयम से सपन्न वीरांगना थीं। ऐसी ऐतिहासिक विभूति पर अपनी मनमानी लालसा व कल्पना आरोपित करना अच्छे रचनाकार का लक्षण नहीं है।’ परंतु विडंबना देखिए कि आज भी दोनों विद्वान इन्हीं पदों पर ही पदासीन हैं। किंतु मौन हैं। लेखकीय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संकट अब उन्हें दिखाई नहीं दे रहा ? यह कुटिलता किस राजनीतिक विचारधारा का हिस्सा है ? वैसे भी शिक्षा का प्रयोजन किसी मौलिक और प्रचालित पाठ को यथावत पाठक्रम में रखना होना चाहिए, न कि किसी तथ्यात्मकता से जुड़ी पंक्तियों को विलोपित करके साक्ष्य मिटाने में ?

देश के बुद्धिजीवी शासन की विचारधारा के अनुरूप सोचने को मजबूर नहीं हैं, दुर्भाग्यवश यदि वे उसी अनुकूलता के प्रवाह में चलते हैं तो सत्ताधारियों का जयघोष करने वाले चारणों और प्रज्ञावानों के बीच विभाजक रेखा खींची जानी नमुमकिन है। अपना रजनीतिक एजेंडा थोपने वाली इस काल की चेतना को बुद्धिजीवियों ने नहीं समझा तो मान लेना चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आंच डालने वाली संकट की घड़ी निकट है।

 

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