विश्वनाथ के दिव्य काशी-धाम से भारत का राजनीतिक पुनरुत्थान

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                                    मनोज ज्वाला
   काशी कोई ‘असामान्य’ नगर मात्र नहीं है, अपितु समस्त भारतीय धर्म
संस्कृति ज्ञान विज्ञान कला कौशल साहित्य संगीत अध्यात्म दर्शन की स्थूल
अभिव्यक्ति है काशी । भारत की सांस्कृतिक राजधानी ही है काशी । जी हां,
भारतीय संस्कृति की राजधानी; अर्थात भारत राष्ट्र को अभिव्यक्त करने वाली
संस्कृति की धात्री है काशी । काशी अविनाशी है , सर्वाधिक पुरातन व सनातन
है और सर्वोच्च सत्य का सत्यापन है काशी । तभी तो भारत राष्ट्र भी पुरातन
व सनातन है । कहा जाता है कि काल की जो नियामक सत्ता है- ‘महाकाल’ उसके
कल्याणकारी रुप अर्थात ‘शिव’ के त्रिशूल पर कायम है काशी…जिसका अपना एक
विशिष्ट आकर्षण है… जो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण अथवा किसी भी प्रकार के
नियम या बंधन से सर्वथा मुक्त है । काशी सार्वकालिक तीर्थ है…सार्वभौमिक
तीर्थ है काशी । काशी है तभी पृथ्वी है, तभी सृष्टि है ; क्योंकि समस्त
विश्व-वसुधा सहित पूरी सृष्टि के नियामक-संहारक विश्वनाथ का धाम है काशी
। जी हां, नीति-न्याय-धर्म के नियामक और अनीति-अन्याय-अधर्म के संहारक
विश्वनाथ का धाम है काशी । और कदाचित, इसी कारण अब्राहमी रिलीजियस मजहबी
(अ)सभ्यताओं के उत्थान व उफान को गंगा की लहरों में तिरोहित-विसर्जित कर
देने की सामर्थ्य से सम्पन्न है काशी । क्योंकि, उचित-वांछनीयताओं  का
विस्तार और अनुचित-अवांछनीयताओं  का प्रतिकार करने की चुनौतियों से युक्त
योगियों-ऋषियों के तप-तेज व सृजन-संहार की भक्ति-शक्ति से सराबोर है काशी
। तभी तो अरब से निकले जिहादी मजहब का खूनी बवण्डर दुनिया भर में फतह
मचाते हुए भारत में आ कर धराशायी हो गया और तब मौलाना अल्ताफ हाली को यह
लिखना पडा कि “वो दीन ए हिजाजी का बेबाक बेडा…निशां जिसका अक्साए आलम में
पहुंचा…मजाहम हुआ कोई खतरा न जिसका…न अम्मां में ठिठका न कुलजम में
झिझका…किये पै सिपर जिसने सातों समंदर…वो डुबा दहाने में गंगा के आ कर” ।
 मजहब का वह ‘बेबाक बेडा’ रोम तुर्की स्पेन सिरिया मिस्र ईरान-ईराक आदि
अनेक देशों की सभ्यताओं को तहस-नहस करते हुए भारत में आ कर यहां के विविध
मठों-मंदिरों पर अपनी पाश्विकता का आघात कर उन पर मजहबी शक्ल चस्पां
करते-करते अंततः थक हार कर आज तक सिर धुन रहा है…भारत की भौगोलिक अखण्डता
को विभाजित कर डालने के बाद भी इसकी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता को मिटा नहीं
सका ।
      बावजूद इसके , विभाजन के साथ मिले ‘स्वशासन’ के सौदागर नेताओं की
मतांधता (वोट-लिप्सा) के कारण लम्बे कालान्तर में भारत का वर्तमान
लोकतंत्र एक ऐसे रिलीजियस-मजहबी षड्यंत्र का शिकार होता रहा कि ‘रिलीजन’
व ‘मजहब’ को शासनिक पुरस्कार-अधिकार देते रहने और ‘धर्म’ का तिरस्कार
करते रहने की राजनीतिक परिपाटी सी विकसित होती रही । फिर तो रिलीजन व
मजहब का तुष्टिकरण ही राजनीति का आदर्श बन गया । परिणामतः २१वीं सदी का
एक दशक बीतते-बीतते ऐसे तुष्टिकरणवादियों की सरकारों द्वारा रिलीजियस
मजहबी क्रिया-कलापों के संवर्द्धन एवं धार्मिक विधि-विधानों के उन्मूलन
की नीतियां निर्मित-क्रियान्वित की जाने लगीं; जिहादी आतंक-हिंसा को भी
राजनीतिक-बौद्धिक संरक्षण-समर्थन दिया जाने लगा और उसे उचित ठहराने की
कुटिल कूटनीति के तहत सेवा-शांति के धार्मिक सत्कार्यों को ही उल्टे
अनुचित बताने के लिए उसके बावत ‘भगवा आतंक’ नामक दुष्प्रचारक बकवाद गढा
जाने लगा, जिससे भारतीय अस्मिता व राष्ट्रीयता की अक्षुण्णता खतरे में
पडी दिखने लगी । अल्पसंख्यक रिलीजियस मजहबी सम्प्रदायों के तुष्टिकरण की
विभेदकारी प्रविषमतापूर्ण अवांछित राजनीति को उत्कृष्ट तथा बहुसंख्यक
धार्मिक समाज असहित समस्त जनता की संतुष्टिपरक अभेदकारी समतापूर्ण
राजनीति को निकृष्ट कहा-समझा जाने लगा और मीडिया भी ऐसी कुत्सित सोच-समझ
वाले राजनीतिबाजों को ही प्रोत्साहित करती हुई उनके गले लग ‘ताता-थइया’
करने लगी, तो एक प्रकार का अनर्थ ही कायम हो गया । धर्मनिरपेक्षता के नाम
पर भारत राष्ट्र की जडों में राम कृष्ण शिव की शाश्वतता, ऋषियों-योगियों
की सनातन परम्परा और वेद-पुराण-उपनिषद की विशद विरासत के बजाय भारत से
बाहर की आयातित मजहबी मान्यताओं को जबरिया आरोपित किया जाता रहा, तब ऐसी
अवांछित क्रियाओं के विरुद्ध वांछित प्रतिक्रिया होनी ही थी । फलतः गांगा
की धारा उल्टी दिशा में बहने से इंकार कर दी, तो ऐसे में काशी का करवट
फेरना अपरिहार्य हो गया । अंततः वर्ष-२०१४ के संसदीय चुनाव में ‘गंगा के
आह्वान’ पर नरेन्द्र मोदी (जैसा कि वे कहते रहे हैं कि ‘गंगा ने बुलाया’)
भारतीय जनता पार्टी की ओर से चुनाव लडने विश्वनाथ की इस नगरी में आये तो

                           काशी न केवल करवट फेर कर उनकी मुखापेक्षी हो
गई, बल्कि उनसे समष्टिगत संवाद भी करने लगी । जिस प्रकार से कभी महाभारत
के कुरुक्षेत्र में माधव-अर्जुन के बीच संवाद हुआ था, जिसे उन दोनों के
अतिरिक्त अन्य कोई नहीं सुन पाया था;  उसी प्रकार से भारत के इस
काशी-संसदीय चुनाव-क्षेत्र में महादेव-मोदी के बीच भी कदाचित कोई दिव्य
संवाद घटित हुआ, जिसे अन्य कोई सुना तो नहीं, किन्तु समझ गया सारा देश ।
उस राजनीतिक-सांस्कृतिक संवाद का संदेश दावानल की तरह समुचे देश भर में
ऐसे फैल गया कि उसके परिणामस्वरुप धर्म-विरोधी मजहबी तुष्टिकरणवादी
राजनीति के अभेद्य समझे जाने वाले सारे दुर्ग ढह गए …जातीय-क्षेत्रीय
क्षत्रपों के तमाम तम्बू उखड-विखर गए … काशी से सांसद चुने गए नरेन्द्र
मोदी की भारतीय जनता पार्टी को देश भर में अप्रत्याशित रुप से इतना
ज्यादा जनमत-बहुमत मिल गया कि वो संसद पर छा गई , तो मोदीजी देश के
प्रधानमंत्री बन गए । फिर तो काशी के ताप और तेज ने अपने उस प्रतिनिधि के
माध्यम से भारतीय राजनीति की दशा-दिशा के साथ-साथ उसकी धार व धारा को भी
बदल दिया । काशी का वह प्रतिनिधि समस्त भारत का प्रतिनिधि, अर्थात भारत
का प्रधानमंत्री बन भारतीय
चिन्तन-दर्शन-धर्म-अध्यात्म-ज्ञान-विज्ञान-इतिहास-परम्परा-संस्कृति-विरासत
को सियासत के केन्द्र में ला कर पुनर्स्थापित कर दिया, जिन्हें
रिलीजियस-मजहबी-तुष्टिकरणवादी राजनीतिबाजों की सत्तालोलुप चौकडी ने
तिरस्कृत-उपेक्षित-पददलित कर कहीं का भी नहीं छोडा था । काशीपति आदिगुरु
योगाधिपति शिव के शिवत्व से निःसृत योगविद्या को विश्व-पटल पर प्रतिष्ठित
कर काशी का वह प्रतिनिधि भारत के राजनीतिक-पटल पर प्रतिष्ठित मजहबी
दुराग्रहों-पाखण्डों को क्रमशः खारिज करता गया और अंग्रेजी औपनिवेशिक
मान्यताओं-स्थापनाओं से उपजे हीनताबोध को मिटाते हुए भारतीय राष्ट्रीयता
की सनातन अस्मिता के प्रति गौरव-बोध को स्थापित कर दिया । फलतः राजनीति
का ऐसा परिशोधन हुआ कि कालान्तर बाद उतरप्रदेश के विधानसभा-चुनाव में उस
चौकडी की ऐसी करारी हार हुई कि प्रदेश के शासन की बागडोर एक भगवाधारी
योगी के हाथ में आ गई, जो गुरु गोरखनाथ की सन्यास-परम्परा के मठाधीश हैं
। फिर तो शिव के दोनों शिष्यों- मोदी-योगी ने भारत की राजनीति में
कुण्डली मारे बैठी उस परिपाटी को खारिज कर दिया जो किसी नेता को
विधायक-सांसद मंत्री बनने के लिए मस्जीदों-मदरसों-दरगाहों में जाने व गोल
जालीदार टोपी पहन ईद के मौके पर मुल्ला बन इफ्तार भक्षण करने की विवशता
का अनुपालन सिखाती थी एवं मठ-मंदिरों से दूरी बनाये रखने, सनातन
देवी-देवताओं-शास्त्रों-ग्रंथों-पर्व-त्योहारों का उपहास उडाने और
पूजा-पाठ-जप-यज्ञ-तिलक-त्रिपुण्ड आदि से परहेज करने की अनिवार्यता-युक्त
नसीहत प्रदान करती थी । काशी के उत्त्कर्ष ने राजनीति की चाल और चलन
दोनों को बदल कर रख दिया । भारत की पहचान को रिलीजियस-मजहबी रुप देने का
जो राजनीतिक-शासनिक षड्यंत्रकारी प्रयास दशकों से चल रहा था; जिसके तहत
विदेशी अतिथियों को कभी किसी ताजमहल से तो कभी किसी आतताई के मकबरा से ;
कभी किसी दरगाह से तो कभी किसी पिकनिक स्पॉट से भारतीय धरोहर के तौर पर
साक्षात्कार कराया जाता था ; उसे निरस्त करते हुए इसकी धार्मिक पहचान को
पुनर्स्थापित कर दिया तथा विदेशी राष्ट्राध्यक्षों को गीता-ग्रंथ ,
गंगा-आरती , राम-जन्मभूमि व महाबलिपुरम के मंदिर आदि से परिचित करा कर इस
तथ्य के सत्य को पुनः सत्यापित कर दिया कि धर्म ही भारत की राष्ट्रीयता
का मूल है और मजहब व रिलीजन अभारतीय मान्यताओं के मोहताज हैं । काशी की
गलियों-पगड्ण्डियों से शुरु हुआ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का स्वच्छता
अभियान और गंगा सफाई कार्यक्रम जैसे-जैसे आगे बढता गया वैसे-वैसे राजनीति
का परिदृश्य भी बदलता गया । धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मजहबी राजनीति की
जो गंदगी फैली हुई थी, सो अब कूडे-कचडों की ढेर में तब्दील हो गई । भारत
की सनातन राष्ट्रीयता को विकृत करने के बावत भगवा आतंक नाम का षड्यंत्र
रचने और राम-कृष्ण-शिव को काल्पनिक बताने वाले राजनेताओं की चौकडी के लोग
अब स्वयं भगवा दुपट्टा के साथ  तिलक-त्रिपुण्ड-रुद्राक्ष भी धारण कर
मंदिरों की परिक्रमा करने और स्वयं को सनातनी धार्मिक सिद्ध करने का
स्वांग भरते दिख रहे हैं । क्योंकि, उन्हें अब समझ में आ गया कि धर्म ही
भारतीय राष्ट्रीयता का मूल है और इसकी उपेक्षा करने वाली राजनीति इस देश
में कतई सफल नहीं हो सकती । रिलीजियस मजहबी राजनीति की जो धारा भारत की
जडों को अर्थात भारतीय राष्ट्रीयता को सुखाये जा रही थी , वह धारा ही अब
तिरोहित हो कर एकबारगी खुद सूखती जा रही है । इसी बीच काशी के विश्वनाथ
मंदिर धाम से दिव्यता और भव्यता की अद्भूत छ्टा विखरने लगी है, जिसकी
चकाचौंध से उस मजहबी औरंगजेब को तथाकथित कयामत के दिन उसे मिलने वाली
दोजख की आग के तडपाउ ताप का एहसास होने लगा है, जिसने कभी इस मंदिर के एक
भाग पर मस्जीद चस्पां कर देने की हिमाकत की थी । विश्वनाथ के काशी धाम का
पुनर्निर्माण वस्तुतः भारत के सांस्कृतिक पुनरुत्थान का ही नहीं , बल्कि
राजनीतिक पुनरुत्थान का भी एक ऐसा लम्बा अध्याय है , जिसका लेखन अभी शुरु
ही हुआ है, जिसमें अनेकानेक अभारतीय अवांछित स्थापनाओं के उन्मूलन और
भारतीय सनातन परम्पराओं के पुनर्प्रतिष्ठापन के बहुतायत पन्ने जुडने अभी
बाकी हैं, जो महाकाल के निर्देशानुसार ससमय जुडते ही जाएंगे ।

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