राजनीति

कटघरे में सियासतः विधायक निधि या वसूली निधि?

बाबूलाल नागा

   राजस्थान की राजनीति एक बार फिर उस सवाल के कटघरे में खड़ी है जो भारतीय लोकतंत्र को भीतर से खोखला करता रहा है – क्या जनप्रतिनिधि जनता की सेवा के लिए चुने जाते हैं या सत्ता को निजी कमाई का साधन बनाने के लिए? जनता के विकास के लिए बनी विधायक स्थानीय क्षेत्र विकास निधि अब सवालों के घेरे में नहीं बल्कि सीधे आरोपों के कठघरे में है। राजस्थान के एक समाचार पत्र से जुड़े रिपोर्टर द्वारा किए गए स्टिंग ऑपरेशन में प्रदेश के तीन विधायकों की कथित बातचीत सामने आने के बाद यह बहस बेमानी हो चुकी है कि भ्रष्टाचार है या नहीं। असली सवाल अब यह है कि क्या यह पहली बार उजागर हुआ है या पहली बार कैमरे में कैद हुआ है।

   यह मामला केवल तीन विधायकों तक सीमित नहीं है बल्कि यह पूरी राजनीतिक व्यवस्था, प्रशासनिक निगरानी और जवाबदेही तंत्र पर सवाल खड़े करता है। जिस निधि का उद्देश्य स्थानीय विकास, बुनियादी सुविधाओं और जनकल्याणकारी कार्यों को गति देना था, वही निधि यदि भ्रष्टाचार का माध्यम बन जाए तो यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है।

   विधायक निधि की मंशा साफ थी। गांवों की सड़कें सुधरें,  कस्बों में नालियां बनें,  स्कूलों और अस्पतालों की जरूरतें पूरी हों लेकिन समय के साथ यह निधि विकास से ज्यादा प्रभाव और नियंत्रण का हथियार बनती चली गई। वर्षों से यह आरोप लगता रहा है कि- ठेकेदार तय होते हैं, कार्यों के एस्टीमेट जानबूझकर बढ़ाए जाते हैं,  बिना काम हुए भुगतान हो जाता है और सबसे अहम, कमीशन संस्कृति फलती-फूलती है। अब जब उसी निधि से जुड़े कामों के बदले कमीशन मांगने की बातें सामने आई हैं  तो यह मानने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि सिस्टम कहीं न कहीं सड़ चुका है। यह केवल तीन नामों का मामला नहीं है,  यह उस सोच का मामला है जिसमें जनता के पैसे को निजी मोलभाव का जरिया समझ लिया गया है।

   स्टिंग ऑपरेशन पर सवाल उठाना आसान है लेकिन सवाल यह भी है कि अगर कैमरा न होता तो क्या यह बातचीत कभी बाहर आती। बंद कमरों में होने वाली सौदेबाजी वर्षों से चलती रही है. फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार रिकॉर्ड बटन दबा हुआ था। इसीलिए इस पूरे प्रकरण को मीडिया ट्रायल कहकर खारिज करना भी उतना ही सुविधाजनक है जितना खुद को पाक-साफ घोषित कर देना। सच यह है कि स्टिंग ने व्यवस्था के उस चेहरे को दिखाया है जिसे जनता रोज महसूस करती है लेकिन साबित नहीं कर पाती।

   इस पूरे घटनाक्रम का सबसे बड़ा नुकसान उस भरोसे को होता है, जिस पर लोकतंत्र टिका है। चुनाव के वक्त जिन विधायकों को जनता अपना प्रतिनिधि मानकर भेजती है, उन्हीं पर अगर वसूली के आरोप लगें तो यह विश्वास टूटता है। यह टूटन खामोश होती है  लेकिन गहरी होती है। लोग राजनीति से दूरी बनाने लगते हैं, व्यवस्था से उम्मीद छोड़ देते हैं और यही लोकतंत्र की सबसे बड़ी हार होती है।

   राजस्थान में यह सवाल और भी चुभता है क्योंकि राज्य के कई इलाकों में आज भी बुनियादी सुविधाएं अधूरी हैं। राजस्थान जैसे राज्य, जहां शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी और रोजगार जैसे बुनियादी मुद्दे आज भी चुनौती हैं, ऐसे में अगर विकास के लिए तय पैसा भी कमीशन की भेंट चढ़ जाए, तो यह केवल भ्रष्टाचार नहीं बल्कि सामाजिक अन्याय है। यह सीधे तौर पर उस गरीब नागरिक के हक पर चोट है जो सरकार की योजनाओं पर निर्भर है। विकास निधि में भ्रष्टाचार गरीब और हाशिए पर खड़े व्यक्ति से उसका हक छीनने जैसा है।

   राजनीतिक दलों की भूमिका इस मामले में सबसे ज्यादा संदेह के घेरे में है। विपक्ष का काम आरोप लगाना है, सत्ता पक्ष का बचाव करना लेकिन जनता अब इस खेल को पहचानने लगी है क्योंकि इस मामले में पक्ष व विपक्ष दोनों की तरफ के विधायकों पर कमीशन मांगने के आरोप लगे हैं। सवाल यह नहीं है कि विधायक किस पार्टी का है. सवाल यह है कि क्या पार्टी अपने ही लोगों पर कार्रवाई करने की हिम्मत रखती है। अगर जांच के नाम पर फाइलें चलती रहीं और आरोपी संरक्षण में रहे तो यह मान लेना चाहिए कि राजनीति ने आत्मशुद्धि का मौका गंवा दिया।

   कानून के स्तर पर भी यह मामला हल्का नहीं है। विधायक निधि से जुड़े मामलों में जनप्रतिनिधि लोक सेवक माने जाते हैं। कमीशन मांगना कोई नैतिक चूक नहीं, बल्कि सीधा अपराध है। ऐसे में जांच एजेंसियों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता की परीक्षा भी इसी मामले से होगी। अगर जांच धीमी हुई, दिशाहीन हुई या दबाव में बदली गई, तो यह संदेश जाएगा कि कानून केवल कमजोर के लिए है।

   यह स्टिंग ऑपरेशन केवल सनसनीखेज खबर बनकर खत्म नहीं होना चाहिए। यह समय है यह तय करने का कि विधायक निधि पारदर्शिता का उदाहरण बनेगी या भ्रष्टाचार का स्थायी स्रोत। जब तक हर काम की जानकारी सार्वजनिक नहीं होगी, जब तक निगरानी व्यवस्था मजबूत नहीं होगी, तब तक ऐसे मामले सामने आते रहेंगे और हर बार भरोसा थोड़ा और टूटेगा।

   राजस्थान की राजनीति आज एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी है। यह तय करना होगा कि सत्ता सेवा का माध्यम बनेगी या सौदेबाजी का। विधायक निधि जनता के विकास के लिए है या नेताओं की सुविधा के लिए- इस सवाल का जवाब अब शब्दों से नहीं, कार्रवाई से दिया जाना चाहिए। अगर इस बार भी मामला दब गया तो यह सिर्फ तीन विधायकों की कहानी नहीं रहेगी बल्कि पूरे सिस्टम पर लगे एक स्थायी दाग के रूप में दर्ज हो जाएगी।

   जनता अब देख रही है और शायद पहले से ज्यादा जागरूक होकर सवाल भी पूछ रही है। अब जवाब देने की बारी सत्ता की है।

बाबूलाल नागा