चुनाव के दौरान रंग भेद की राजनीति

सुरेश हिंदुस्थानी

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लोकसभा चुनाव के दौरान राजनेताओं के बयान सुनकर ऐसा लगने लगता है कि ये अपनी हदों को पार कर करने लगे हैं। अभी हाल ही में कांग्रेस के नेता सैम पित्रोदा के बयान की मीमांसा की जा रही है। इसके तारतम्य यही है कि इस नेता ने भारत में भेद पैदा करने के प्रयास किए हैं, जो कभी सफल नहीं होने चाहिए। भारत में जिस प्रकार से सामाजिक विघटन की राजनीति की जा रही है, उससे समाज की शक्ति का लगातार पतन ही हुआ है। कभी तुष्टिकरण तो कभी वोट बैंक की राजनीति के बहाने सामाजिक एकता की राह में अवरोध पैदा करने के प्रयास किये गए, जिसके कारण समाज के कई हिस्से अलग अलग दुकान खोलकर बैठ गए और इसकी आज की राजनीति ने इसे मुंह मांगा इनाम भी दिया। जिसके कारण भारतीय समाज के बीच जो विविधता की एकता को दर्शाने वाली परंपरा रही, उसकी जड़ों में मट्ठा डालने का अनवरत प्रयास किया गया। यह सभी जानते हैं कि जिस देश का समाज कम से कम राष्ट्रीय मामलों पर एक स्वर व्यक्त करता है, वहां किसी भी प्रकार की सामाजिक बिखराव के प्रयास धूमिल ही होते है। लेकिन कुछ राजनीतिक दलों को यह सामाजिक एकता अच्छी नहीं लगती, इसलिए वह अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो वाली नीति अपनाते हुए ही अपनी राजनीति करते हैं। ऐसे लोगों को भारत की सांस्कृतिक एकता खटकती है। ऐसे लोग कुत्सित राजनीति के माध्यम से भारत की जनता के मानस में ऐसे बीज बोने का ही काम करते हैं, जो प्रथम दृष्टया विभाजनकारी ही कहे जा सकते हैं। ऐसे बयानों पर पूरी तरह से रोक लगनी चाहिए। क्योंकि यह विचार देश का भला नहीं कर सकता। अगर ऐसा विचार लेकर कोई राजनीतिक दल राजनीति करता है तो उसकी प्रासंगिकता पर भी सवाल हो सकते हैं।

राजनीतिक दलों ने अपना स्वार्थ साधने के लिए पूर्व और पश्चिम को अलग पहचान के रूप में प्रचारित करने में जोर लगाया, तो वहीं उत्तर और दक्षिण के लोगों के मन में नफ़रत की दरार को और ज्यादा चौड़ा किया। जबकि हमारे देश के नायकों ने एक भारत के रूप में स्वतंत्रता प्राप्त की। आज की राजनीति को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि उनके सपनों को पूरा करने का ईमानदारी से प्रयास नहीं किया जा रहा। इसी कारण कहीं जातिवाद को हवा दी रही है तो कहीं तुष्टिकरण का प्रयास किया जा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि हमारे राजनीतिक दल समाज को एक करने की दिशा में कदम उठाएं। इससे समाज का तो भला होगा ही, देश भी मजबूत होगा।

वर्तमान में कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने अस्तित्व बरकरार रखने के जिस प्रकार का परिश्रम किया जा रहा है, वह निसंदेह आवश्यक भी था, लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पिछले दो चुनावों की तरह इस बार भी पार्टी के इस अभियान को पलीता लगाते हुए दिखाई दे रहे हैं। कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में शामिल विदेशी अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने जो बयान दिया है, उसे अनजाने में दिया बयान समझकर खारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि सैम पित्रोदा कांग्रेस नेताओं के बहुत ख़ास रहे हैं। यहां तक कि राहुल गांधी के विदेशी दौरे भी यही प्रबंधित करते हैं। सैम पित्रोदा ने जो बयान दिया है, उससे भारत की कांग्रेस ने भले ही किनारा कर लिया हो, लेकिन विदेशों में सैम पित्रोदा भारत को किस रूप में प्रस्तुत करते होंगे, इस बात का सहज़ अनुमान लगाया जा सकता है। सैम पित्रोदा के बयान का आशय यह भी निकाला जा सकता है कि वे भारत को एक देश के रूप में नहीं देख सकते। उनकी नजरों में शायद भारत की चारों दिशाओं में अलग अलग देश दिखाई देते हैं। कुछ ऐसे ही बयानों के कारण कांग्रेस अपने अस्तित्व से जूझ रही है। कुछ इसी प्रकार के बयान कांग्रेस के अन्य नेता भी देते रहे हैं। एक बार मैंने अपने एक लेख में लिखा था, जिसका उल्लेख अन्य लेखक भी कर चुके हैं कि कांग्रेस प्रधानमंत्री मोदी का विरोध करते करते अनजाने में देश का विरोध करने लगती है। हालांकि कांग्रेस नेताओं का आशय देश विरोध का नहीं होगा, लेकिन सवाल यह है कि कांग्रेस के नेता ऐसे बयान देते ही क्यों हैं, जिसका एक अर्थ ऐसा भी निकलता है, जिससे देश का विरोध होने का संकेत मिलता है। इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष सैम पित्रोदा कांग्रेस के लिए कोई छोटा नाम नहीं है। वे कांग्रेस के मुख्य कर्ता धर्ताओं में गिने जाते हैं। हालांकि चुनाव में उनके बयान का विपरीत प्रभाव न हो, इसलिए सैम पित्रोदा का इस्तीफ़ा देना एक राजनीतिक कदम भी हो सकता है। अगर सैम पित्रोदा का इस्तीफ़ा लेना ही था तो उनके पहले दिए बयानों पर भी तो लिया जा सकता था। लेकिन कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया। 

इससे कांग्रेस की सोच का पता चलता है और बैठे ठाले ही कांग्रेस ने भाजपा को एक और मुद्दा दे दिया। सैम पित्रोदा के बयान ने कांग्रेस की एक बार फिर से फ़जीहत करा दी। राहुल गांधी के इर्द गिर्द राजनीति करने वाले कांग्रेस के बड़े नेताओं के पलायन करने के बाद भी अगर शीर्ष नेतृत्व इस बात से अनभिज्ञ है कि कांग्रेस की ऐसी दुर्दशा क्यों हो रही है? तो स्वाभाविक ही है कांग्रेस को अपनी पिछली दो शर्मनाक पराजय का बोध भी नहीं हो सकता। अभी तक के राजनीतिक इतिहास में अपने सबसे बड़े दुर्दिनों का सामना कर रही कांग्रेस पार्टी समूहों में विभाजित होकर अवनति के मार्ग पर बेलगाम बढ़ती जा रही है। यह समस्याएं उसकी खुद की देन हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि वर्तमान में कांग्रेस की राजनीति में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। इसके पीछे बहुत सारे कारण हो सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण यह भी माना जा रहा है कि आज की कांग्रेस में स्पष्ट दिशा और स्पष्ट नीति का अभाव सा पैदा हो गया है। उसके जिम्मेदार नेताओं को यह भी नहीं पता कि कौन से मुद्दे पर राजनीति की जानी चाहिए और किस पर नहीं। इसी कारण कांग्रेस का जो स्वरूप दिखाई दे रहा है, वह अविश्वसनीयता के घेरे में समाता जा रहा है। यह स्थिति जहां एक ओर कांग्रेस के वरिष्ठ नेतृत्व के प्रति अनास्था की धारणा को जन्म देने वाला कहा जा सकता है, वहीं यह भी प्रदर्शित कर रहा है कि राहुल गांधी युवाओं को आकर्षित करने में असफल साबित हुए हैं। इसमें उनकी अनियंत्रित बयानबाजी भी कारण है। हम जानते हैं कि कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक बार नहीं, बल्कि कई बार झूठे बयान दिए हैं, जिसमें वे माफी भी मांग चुके हैं। यह बात सही है कि झूठ के सहारे आम जनता को भ्रमित किया जा सकता है, लेकिन जब सत्य सामने आता है, तब उसकी कलई खुल जाती है। सबसे बड़ी विसंगति तो तब बनती है, जब अपने नेता के बयान को कांग्रेस के अन्य नेता समर्थन करने वाले अंदाज में निरर्थक रूप से पुष्ट करने का असफल प्रयास करते हैं। ऐसे प्रयासों से भले ही यह भ्रम पाल ले कि उसने केन्द्र सरकार को घेर लिया, लेकिन वास्तविकता यही है कि इसके भंवर में वह स्वयं ही फंसी नजर आती है।

कांग्रेस अपनी कमियों को छिपाने के लिए भले ही भाजपा पर आरोप लगाने की राजनीति करे, लेकिन सत्य यह है कि इसके लिए कांग्रेस की कुछ नीतियां और वर्तमान में नेतृत्व की खामियां भी बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। बयानों की राजनीति के बीच कांग्रेस एक बार फिर बैकफुट पर है। सैम पित्रोदा के बयान पर कांग्रेसी नेता सफाई भी देने की स्थिति में नहीं है। ऐसे बयान भारत को शक्तिशाली बनाने से रोकते हैं। इसलिए यह आज की आवश्यकता है कि भारत को शक्ति संपन्न बनाने की राजनीति की जाए।

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