प्रतीक

2
262

रामलाल और श्यामलाल सगे भाई थे; पर बीच में तीन बहिनों के कारण दोनों में दस साल का अंतर था। अब तो दोनों दादा और नाना बनकर सत्तर पार कर चुके हैं; फिर भी श्यामलाल जी अपने बड़े भाई का पितातुल्य आदर करते हैं।

farmersघरेलू जरूरतों के चलते रामलाल जी जल्दी ही पिताजी के साथ काम-धंधे में लग गये थे; पर श्यामलाल को उन्होंने खूब पढ़ाया। अतः वह इंजीनियर बनकर सरकारी सेवा में आ गये। श्यामलाल जी नौकरी के दौरान काफी समय लखनऊ रहे। अतः उन्होंने वहां गोमती नगर में एक मकान बना लिया। इससे पूर्व जब श्यामलाल जी ने भैया से बात की, तो रामलाल जी ने पुश्तैनी सम्पत्ति में उनका जो हिस्सा था, वह तो दिया ही, कुछ राशि अपनी ओर से भी दे दी।

श्यामलाल जी को कुछ संकोच हुआ, तो रामलाल जी बोले, ‘‘भले ही तुम अपना मकान अलग बना रहे हो; पर ये मत भूलो कि जिस घर में तुम जन्मे हो, जहां तुम्हारा विवाह हुआ है, जहां हमारे माता-पिता ने अंतिम सांस ली है, वह सदा तुम्हारा है और रहेगा। इसी तरह मैं ये भी मान रहा हूं कि लखनऊ में मेरा एक घर और बन रहा है। मैं जब चाहूं, अधिकारपूर्वक वहां आ सकता हूं। क्या तुम्हें इसमें कुछ आपत्ति है ?

– जी नहीं।

– तो फिर मैं जो दे रहा हूं, उसे लेकर बढ़िया मकान बनवाओ।

यह कहकर रामलाल जी ने एक लिफाफा उनकी जेब में डाल दिया। श्यामलाल जी ने श्रद्धापूर्वक भैया के पांव छुए। इस प्रकार उनका अलग मकान बन गया। धीरे-धीरे 30 साल बीत गये। दोनों के बच्चे अपने-अपने कामों में लग गये। दूरी और काम अलग होने पर भी दोनों में प्रेम बना रहा।

कहते हैं कि किसी पर दुख आते पता नहीं लगता। अचानक रामलाल जी को हृदय रोग ने घेर लिया। बड़े अस्पताल वालों ने कुछ दिन तो दवा दी, फिर साफ बता दिया कि रोग जहां पहुंच चुका है, वहां अब बाइपास सर्जरी ही एकमात्र निदान है। एक और डॉक्टर को दिखाया, तो उसने भी यही कहा।

सब लोग चिंतित हो गये। यद्यपि रामलाल जी घरेलू जिम्मेदारियां पूरी कर चुके थे। बेटियां अपने घर जा चुकी थीं। बेटे संजय ने कारोबार संभालकर उसे काफी बढ़ा लिया था। उसका भी विवाह और बाल-बच्चे हो चुके थे। फिर भी एक बड़ा खर्चा तो सिर पर आ ही गया था; पर अब कोई विकल्प नहीं था। खबर मिलते ही श्यामलाल जी दौड़े आये और बिना देर किये ऑपरेशन कराने को कहा। उन्होंने भाभी को एक लिफाफा देकर कहा, ‘‘इसे रख लो। शायद इसकी जरूरत पड़ जाए।’’ भाभी ने कुछ संकोच किया; पर उनके आग्रह को टाल नहीं सकी। उसमें पच्चीस हजार रुपये थे।

ऑपरेशन सफल हुआ। कुछ समय बाद रामलाल जी घर आकर अपने सामान्य कामकाज में लग गये। हर दिन दो-तीन घंटे वे कारोबार में भी देने लगे। इससे जहां एक ओर संजय को सहारा हो जाता था, वहां उनका समय भी कट जाता था; लेकिन दो साल बाद छोटे भाई पर संकट आ गया। एक दिन वे सीढ़ी से उतरते हुए लड़खड़ा गये। इससे लोहे ही रेलिंग से उनका सिर टकराया और वे बेहोश हो गये। अस्पताल गये, तो जांच के बाद डॉक्टरों ने कहा कि तुरंत ऑपरेशन नहीं हुआ, तो वे कोमा में चले जाएंगे। घर वाले क्या कहते ? अगले ही दिन ऑपरेशन कर दिया गया।

रामलाल जी को पता लगा, तो उन्होंने तुरंत संजय को भेजा। श्यामलाल जी अस्पताल में ही थे। संजय ने अपने चचेरे भाई विनय को एक लिफाफा देते हुए कहा, ‘‘पिताजी ने यह भेजा है। इसे रख लो। शायद इसकी जरूरत पड़ जाए।’’ उसमें पचास हजार रु. थे।

भगवान की कृपा, डॉक्टरों के परिश्रम और घर वालों की सेवा से श्यामलाल जी भी ठीक होकर घर आ गये। एक दिन रात में पिताजी को दवा देते हुए विनय ने पूछा, ‘‘ताऊ जी को पता है कि हमारी आर्थिक स्थिति ठीक है। हमें इलाज के लिए किसी दूसरे के सहयोग की जरूरत नहीं है। फिर उन्होंने पैसे क्यों भेजे ?

श्यामलाल जी बोले, ‘‘बेटा, तुम भैया को ‘दूसरा’ मानते हो; पर हम दोनों एक-दूसरे को हमेशा अपना ही मानते हैं।

– वो तो ठीक है; पर पैसे भेजने की क्या तुक थी। ऑपरेशन में तो इससे बहुत अधिक खर्चा हुआ है ?

– देखो बेटा, शादी-विवाह के दिनों में हम बहुत जगह जाते हैं। वहां सौ-पचास रु. आशीर्वाद के रूप में भी देते हैं। इससे विवाह का खर्चा पूरा नहीं होता; पर इससे यह प्रकट होता है कि हम सब एक बड़े परिवार के अंग हैं। हमारा योगदान वहां एक ‘प्रतीक’ बन जाता है। जैसे हम उनके सुख-दुख में काम आते हैं, वैसे ही वे भी समय आने पर हमारे साथ खड़े होते हैं ?

– तो क्या ताऊ जी के ऑपरेशन के समय आपने भी उनकी कुछ सहायता की थी ?

– हां। मैं नौकरी में हूं और वे पुश्तैनी व्यापारी हैं। उनकी आर्थिक स्थिति हमसे बहुत अच्छी है। फिर भी मैंने कुछ सहयोग दिया था। वे पैसे कितने थे, इसका महत्व नहीं है। हर चीज पैसे की तराजू पर नहीं तोली जाती। जैसे मैंने कष्ट में उनका हाथ थामा, वैसा ही उन्होंने भी किया। मेरा तुमसे भी यह आग्रह है कि न केवल अपने रिश्तेदारों, बल्कि अपने मित्रों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार बनाये रखना।

विनय को परस्पर सम्बन्धों के बारे में सोचने का आज एक नया दृष्टिकोण प्राप्त हुआ था। जीवन में प्रतीकों का कितना महत्व है, यह उसे आज ठीक से समझ में आ गया। रात के दस बज रहे थे। श्यामलाल जी के सोने का समय हो गया था। विनय ने चादर ओढ़ायी, उनके पांव छुए और वहां से उठ गया।

2 COMMENTS

  1. आ. गोयल जी की टिप्पणी नें ध्यान आकर्षित किया। सुन्दर आलेखन, सभीने पढना चाहिए।

  2. यह कहानी है कि लेख है – जो भी है अच्छा है – आज की नयी पीढ़ी को इसे पढ़ना और इस पर मनन करना चाहिए.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress