भाव और आजीविका विचार

भावों के अनुसार आजीविका का विचार इस प्रकार किया जा सकता हैं: –

1 प्रथम भाव (लग्न): – इससे जातक के स्वरूप, मानसिक स्थिति, रूचि, स्वभाव, गुण, कार्यकुशलता, उन्नति आदि का विचार किया जाता हैं। ये विषय जातक के व्यवसाय को प्रभावित करते हैं। अतः व्यवसाय का विचार करने में इस भाव का विशेष महत्व हैं।

2 द्वितीय भाव – इस भाव से जातक की आर्थिक स्थिति, धन-संचय, पूँजी आदि का विचार किया जाता हैं। किसी भी व्यवसाय को धर्नाजन के लिए ही किया जाता हैं। अतः इस भाव का विचार भी आवश्यक हैं। वाक्शक्ति का प्रतिनिधित्व भी यही भाव करता हैं। अतः अध्यापन, वकालात, दलाली आदि व्यवसाय इससे सम्बन्धित हैं।

3 तृतीय भाव – कमीशन, दलाली, लेखन, बड़ा व्यापार।

4 चतुर्थ भाव – व्यापार, शिक्षा, जल या भूमि से सम्बन्धित व्यवसाय।

5 पंचम भाव – राजकीय सहायता से आजीविका, मंत्रालिक कार्य, व्यापार।

6 छठा भाव – लकड़ी, पत्थर, औजार, जेल, अस्पताल आदि से सम्बन्धित कार्य। इस भाव से सेवा का पता लगता हैं।

7 सप्तम भाव – व्यापार, अदालत, विषाद, साझा आदि से सम्बन्धित।

8 आठवां भाव – बीमा, मुकदमेबाजी, गुप्त धन्धे।

9 नवम भाव – कानूनी, धार्मिक या दातव्य कार्यो द्वारा आजीविका।

10 दशम भाव – व्यवसाय का विचार करने में इस भाव का अत्यधिक महत्व हैं।

11 एकादश भाव – शुल्क या व्यापार से सम्बन्धित हैं। इस भाव को आय स्थान भी कहते हैं। व्यवसाय से होने वाली आय का पता इस भाव से लगता है।

12 द्वादश भाव – अस्पताल, जेल या विदेश यात्रा द्वारा आजीविका।

आजीविका का विचार करते समय उपरोक्त भावों से सम्बन्धित व्यवसायों को ध्यान में रखना चाहिए। व्यवसाय, नौकरी, राज्य सेवा, सम्मान, पद, भाग्योदय, धन-लाभ, आजीविका का स्तर एवं साधन तथा कर्मक्षेत्र आदि से सम्बन्धित सब प्रकार की जानकारी इन भावों के अध्ययन द्वारा प्राप्त हो सकती हैं।

ज्योतिष में व्यापार, उच्च स्थान, सम्मान, कर्म, जय, यश तथा जीविका का विचार कुण्डली के दसवें भाव से देखा जाता हैं। इसके बारे में कुछ महत्वपूर्ण बिन्दूओं को संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा हैं।

भाव में उसके स्वामी, शुभ ग्रह अथवा 1 , 5 , 9 भावों के स्वामियों की युति या दृष्टि हो और वह अशुभ ग्रहों की युति या दृष्टि से मुक्त हो तो उसके शुभ फल होते हैं। ग्रह नीच अथवा शत्रु राशि में नहीं होना चाहिए। अशुभ दृष्टि से मुक्त अशुभ ग्रह भी अपने भाव को देखता हो तो उस भाव के प्रभावों की वृद्धि करता हैं।

जब त्रिकोण और द्वितीय भाव शुभ ग्रहों से युक्त हो तो भाव के बल में वृद्धि होती हैं।

 

भाव का स्वामी 6 , 8 या 12 वें भाव में स्थित नहीं होना चाहिए। वह अस्त अथवा शत्रु स्थान में भी नहीं होना चाहिए।

किसी भी भाव से 6 , 8 या 12 वें भाव में स्थित ग्रह भाव के फल को नष्ट करते हैं। भाव में 6, 8 , 12 वें के स्वामी की स्थिति भी नहीं होनी चाहिए।

यदि किसी भाव में लग्नेश की स्थिति हो तो उसके शुभ फलों की वृद्धि होती हैं।

किसी भाव के दोनों ओर शुभ ग्रहों की स्थिति हो या उस भाव से त्रिकोण (1 ,5, 9) में शुभ ग्रह हो तो भाव के बल एवं शुभ फलों की वृद्धि होती हैं।

दशमेश का कुछ भावेशों से सम्बन्ध का फल इस प्रकार होगा –

दशमेश नवमेश सम्बन्ध – श्रेष्ठ फल

दशमेश लग्नेश सम्बन्ध – श्रेष्ठ फल

दशमेश पंचमेश सम्बन्ध – मध्यम फल

दशमेश केन्द्रेश सम्बन्ध – मध्यम फल

दशमेश द्विर्द्वादशेश सम्बन्ध – मध्यम फल

दशमेश दुःस्थानेश सम्बन्ध – अधम फल

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