आम चुनाव के मध्य

-फखरे आलम-
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देश में आम चुनाव का दौर जारी है। महंगाई ने अपना सितम जारी रखे हुए है। जैसे देश भ्रमित और अनिश्चितता के दौन से गुजर रहा हो। निर्वाचन आयोग की सख्ती, नक्सलियों का तांडव रोके नहीं रूक रहा है। मतदान न करने वालों और लोकतंत्र पर भरोसा नहीं करने वालों ने भी घर से निकलकर, लम्बी-लम्बी कतारें बनाकर मतदान का प्रतिशत बढ़ाकर लोकतंत्र का गौरव बढ़ाया है। कई इलाकों में देशवासियों ने धर्मिक सौहार्द का परिचय देते हुये मासूमों के जान को बचाया है। 7 अप्रैल से 16 मई के मध्य भारत में एक अजीब सी तस्वीर उभरकर सामने आई है। कहीं विश्व के सबसे विशाल देश ने बड़े लोकतंत्र को परिपक्व करने और लोकतंत्र को जमीन में और अधिक जड़ जमाने की बात हुई। महंगाई, भ्रष्टाचार ओर वर्तमान व्यवस्था के विरोध में भारत की जनता ने विकल्प भी पाऐ। मगर चुनाव का मध्यस क्रम अभी भी स्थिति स्पष्ट नहीं होने दे रहा है।
हाँ निर्वाचन आयोग की सख्ती और एकतरफा कार्यवाही ने देश की निष्पक्ष ओर निस्वार्थ जनताओं को निराश अवश्य ही किया है। निर्वाचन आयोग की कार्यवायी से पैसे और शराब पर पाबंदी लगी है मगर चुनाव प्रचार और सभाओं को हाइटेक रूप देने और बड़े स्तर पर काले धनों का प्रयोग चुनाव प्रचार में हो रहा है। 2014 का आम चुनाव कुछ विषयों में भिन्न भी रहा।

जैसे चुनाव के क्रम में आरोप, प्रत्यारोप, लांछना, अभद्र शब्दों का प्रयोग ध्मकीयां बड़े स्तर पर प्रयोग किए गए। चुनाव आयोग ने सख्ती तो की मगर उनकी सख्ती पक्षपात पर आधरित रहा। चुनाव के क्रम में बड़े स्तर पर काले धनों का प्रयोग होता रहा। कहीं बैलगाड़ियों से तो कहीं वाहनों से रुपये जब्त किए गए मगर यह चुनाव खर्च का तमाम रिकॉर्ड तोड़ता दिखाई देता है।

2014 का आम चुनाव पुनः जाति धर्म पर आधरित चुनाव बनकर रह गया। धर्मिक नेताओं से, धर्म के ठेकेदारों से सहायता पर आधरित यह चुनाव बाहुबलियों, उद्योगपतियों, जाति, वर्ग और समुदायों के ठेकेदारों की चांदी काटता दिखाई दे रहा है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का महापर्व कहीं नक्सलियों की धमकी तो कहीं आतंकवादियों के हमले और उस पर सबसे अधिक युवा मतदाताओं का जबरदस्त उत्साह कभी मन को दुूख पहुंचाता है तो कभी आशा की एक जोत भी जगाता है। कहीं दंगा रोकने, हिंसा न पैफलने तो कहीं आंतरिक और बाहरी सुरक्षा के नाम पर वोट मांगे जा रहे हैं। कहीं पर बहुसंख्यक मतदाताओं को अल्पसंख्यकों के बढ़ते जनसंख्या ओर सभी राजनीति दलों को अल्पसंख्यकों के हित की बात करने के विरोध् में वोट मांगे जा रहे हैं। कहीं धर्मसंकट में बता कर धर्म के नाम पर मत देने की गुहार लगाई जा रही है। लगभग सभी पार्टियों ने अपने अपने चोले और नकाब बदलने का काम कर रहे हैं। सभी अपनी अपनी तस्वीर को सेकूलर और सभी वर्ग एवं समुदाय को लेकर एक नवीन और मजबूत भारत के निर्माण की बात कर रहे हैं। कौन कितना सच्चा है कौन कितना झूठा है, किसका रडार कितना काम कर रहा है। कौन वैवाहिक है, कौन अवैवाहिक है। कौन अपनी कुशलता से देश को आगामी पांच वर्षों में एक स्थिर और मजबूत सरकार देने में सपफल होगा। किस से किस को डर लगता है। बंटवारे की राजनीति लाभ कौन ले जाएगा। दस वर्षों की शासन का लाभ मिलेगा अथवा नहीं। प्रदेश के विकास के माडल को देशव्यापी लागू किया जाएगा। देश में सभी जाति, वर्ग और धर्म के लोग समान रूप से विकास कर पाऐंगे? देश जातिगत हिंसा ओर दंगा से मुक्त होगा। देश के अन्दर नक्सलवादियों के द्वारा देश के नागरिकों ओर जवानों का कत्ल रूक पायेगा? देश चहुमंुखी और बहुमुखी प्रगति कर पाएगा? निसंदेह देश बदलाव की चौखट पर खड़ा है और परिवर्तन समीप है। जितना देश के युवा आशावान हैं उतना ही देश का सभी वर्ग सीने में अरमान लिये 16 मई के दिनों की प्रतिक्षा में बैठा है।
तलकीन ए ऐतमाद वह फरमा रहे हैं आज!

राहे तलब में जो कभी मोतबर न थे!
ने रंगई सियासत दौरान तो देखिए!
मंजिल उन्हें मिली जो शरीक ए सफर न थे!

जाहिल को अगर जहल का इनाम दिया जाए!
इस हासदाऐ वक्त को क्या नाम दिया जाए!
मैखाना की तौहीन है! रिन्दों की हतक है!
कमजरफ के हाथों में अगर जाम दिया जाए!

मुल्क किया अरश को भी पस्त कर दूं!
खुदी कैसी, खुदा को भी मस्त कर दूं!

खाब को जजबाए बेदार दिए देता हूं!
कौम के हाथों में तलवार दिए देता हूं!

हम जमीन को तेरे नापाक न होने देंगे।
तेरे दामन को कभी चाक न होने देंगे।।

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