खुद को सही कर गलत साबित करो जस्टिस काटजू को!

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जगमोहन फुटेला

मैंने कभी किसी सरकार से कोई लोन, वेतन या इनाम नहीं लिया हैं. जस्टिस काटजू से मैं कभी मिला, न बात की. फिर भी कोई मेरा चरित्रहनन करे तो करे लेकिन ये तो मैं पूछूंगा मीडिया के अलंबरदारों से कि अपनी आज़ादी हमें किस कीमत पर चाहिए?

हमारे अपने बीच छुपी भेड़ों का क्या? उन अखबारों का क्या जिनमे छपने वाली कुल पंक्तियों से ज़्यादा रिपोर्टर होते हैं शहर में उनके, अपनी सभी गाड़ियों, बच्चों के स्कूटरों और नौकरों के साइकलों तक पे ‘प्रेस’ का स्टीकर लगा के चलने वाले. और जो रोज़ शाम को अपने सम्पादक के लिए दवा दारु की व्यवस्था करते हैं? उन अखबारों का क्या जिनके एक एक शहर में सौ से डेढ़ दो सौ तक ‘संवाददाता’ होते हैं और जिनमें से किसी एक को भी कोई पैसा दिया नहीं बल्कि लिया जाता है उन सप्लीमेंट्स के नाम पर जो कई बार उन्होंने खुद अपने पैसों से छपवाए होते हैं अखबार में? उन चैनलों का क्या जो संसद पर कोई बम नहीं गिरा होने के बावजूद ढाई घंटों तक देश का मनोबल गिराते रहते हैं? जो ममता से यूपीए को समर्थन वापिस दिलाते ही रहते हैं ये जानते या न जानते हुए भी कि वे समर्थन वापिस ले ही नहीं सकतीं, उन्हें केंद्र से मोटी मदद भी मिले या न मिले (कैसे कोई भी राज्य या सत्ताधारी दल जी सकता है केंद्र से कोई मदद या वहां किसी भी एक राष्ट्रीय गठबंधन में रहे बिना) ? और उन चैनलों का क्या जो लगातार सेक्योरिटी के नाम पर रिपोर्टरों, कैमरामैनों से हर छमाही मोटी रकम वसूलते और लगातार बंद भी होते चले जा रहे हैं?

किसकी आज़ादी की बात कर रहे हैं हम? कौन तय करेगा कि मीडिया के नाम पर क्या क्या नहीं हो रहा है इस देश में? कौन है हम में से जो ये दावा करे कि इस देश के मीडिया में कुछ गलत नहीं हो रहा और अगर हो भी रहा है तो उसे वो ठीक करेगा?

करनाल में एक चैनल का ‘संवाददाता’ था. बाज़ार से बाजारी ब्याज दर पर लिए पचास हज़ार रूपये दे कर रिपोर्टर बना था वो एक नेशनल चैनल में. लाला के पैसे पचास तकादों और उतने ही वायदों के बाद भी नहीं लौटा सका वो तो उसे सरे बाज़ार पीटा था लालाओं ने. उस ने आत्महत्या कर ली थी. डेढ़ साल से किसी खबर का कोई पैसा नहीं दिया था चैनल ने उसे. आज भी पैसे लेकर रिपोर्टर बनाने वाले बहुत से चैनलों में रिपोर्टर को हर खबर के साथ पैसे वसूलने पड़ते हैं. शाम को बाकायदा हिसाब किताब होता है कि कितनी खबरें आईं, कितने पैसे आए.

आप कहेंगे ये ये उनके निजी मामला है. पैसे का लेनदेन हो सकता है. लेकिन जो कंटेंट तय होता है उस पैसे से उसका क्या? मैंने देखा है इस तरह के अखबारों और चैनलों का कंटेंट बाज़ार और उस से आया पैसा तय करता है. किस का कंट्रोल है किस दूसरे के चैनल या अखबार पे? सबकी कहीं कोई एक एसोसियेशन या नीति निर्धारक कोई बाडी कहाँ है? बरखा दत्त, अर्नब गोस्वामी या राजदीप की कोई बात करे तो किसी हद तक समझ आती है लेकिन चिरकुटों का क्या? उन्हें कौन तो प्रोफेशनल बनाएगा और कब तक ये देश झेलेगा उन्हें?

सब की जिम्मेवारी या ठेकेदारी ले पाना संभव भी नहीं है. होने को पार्टियों के मुखपत्र भी हैं और चैनल भी. होने को वे भी उस मीडिया में शामिल हैं जिनकी आज़ादी या प्रेस काउन्सिल का कोई नियंत्रण न हो, हम चाहते हैं. मैं केवल मिसाल के तौर पे नाम लूँगा ‘आस्था’ का. वो, सब जानते हैं, स्वामी रामदेव का चैनल है. उसका लायसेंस केवल और केवल धार्मिक प्रयोजन के लिए है. लेकिन वहां क्या नहीं होता, सब जानते हैं. चूंकि वो न्यूज़ चैनल है ही नहीं सो न्यूज़ चैनलों के किसी संगठन के नियम न उस पे आज लागू होते हैं न कल को प्रेस काउन्सिल के किसी तरह के हस्तक्षेप के बाद ही कोई होंगे. सो ऐसे मीडिया का क्या जो न्यूज़ चैनल नहीं होने के बावजूद न्यूज़ी कंटेंट परोस रहे हैं?

मीडिया सरकार के नियंत्रण से मुक्त तब भी था और मीडिया को चोरबाजारी से बचा के रखने वाले पत्रकार भी जब राष्ट्रपति का कार्टून बनाने, छापने की पत्रकारिता कोई नहीं करता था. मैंने तो वो दौर भी देखा है कि खुद अपने अखबार या किसी रिपोर्टर पे कोई हमला हो जाने की सूरत में भी वो अखबार खुद अपने अखबार में उसकी खबर छापने की बजाय उठाने के लिए वो मुद्दा बाकी मीडिया पे छोड़ देता था. आज वो दौर, पत्रकारिता का वो मिशन और वैसी प्रतिबद्धता कहाँ है. आज जिसने किसी ला कालेज का गेट तक नहीं देखा वो सुप्रीम कोर्ट तक के फैसलों की समीक्षा करता है, जिसने कामर्स छोड़ो कभी प्लस वन टू में अर्थशास्त्र तक नहीं पढ़ा वो बाज़ार की समीक्षा करता है और जिसे मेजर और कर्नल का फर्क नहीं मालूम वो सैन्य संबंधों पे दर्शनशास्त्र बघेरता है. फिर भी हम कहते हैं जो वो कहता है, कहने दो. जो वो करता है, करने दो. और उसकी बकवास से सामरिक, कूटनीतिक संबंधों पर जो अच्छा बुरा फर्क पड़ता है, पड़ने दो.

इस लेख को पढने वाले जो सोचें वो सोचें. अपनी सोच बड़ी साफ़ है. अगर डाक्टर की डिग्री के बिना कोई डाक्टरी नहीं कर सकता तो फिर ग्रेजुएशन लेवल तक राजनीति शास्त्र नहीं पढ़े को कम से कम अंतर्राष्ट्रीय राजनीति या संबंधों पर बोलने का हक़ नहीं होना चाहिए. कम से कम लॉ ग्रेजुएट न हो तो अदालती फैसलों की रिपोर्टिंग या समीक्षा न करे. कर लीजिये तय कि जैसे मेडिकल काउन्सिल आफ इंडिया की मंज़ूरी बिना कोई डाक्टरी नहीं करेगा तो फिर खुद मीडिया की ऐसी ही किसी संस्था की इजाज़त के बिना कोई रिपोर्टिंग भी नहीं करेगा. तब शायद प्रेस काउन्सिल की किसी दखलंदाज़ी की कोई ज़रूरत भी नहीं रह जाएगी. लेकिन मीडिया की स्वतंत्रता के नाम पर मीडिया की स्वछंदता की जिद नहीं होनी चाहिए. मैं मानता हूँ कि मीडिया खुद अपना नियंत्रण करे. मगर वो करे तो सही. कोई तो मानदंड वो बताये कि इन से बाहर वो नहीं जाएगा!

चित भी मेरी, पट भी मेरी. अंटा मेरे बाप का तो नहीं होना चाहिए. ऐसे हालत न पैदा करें कि कल किसी जस्टिस काटजू को ये काम सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने से पहले करना पड़े..!

 

 

3 COMMENTS

  1. काटजू साहब मीडिया लक्षण है रोग तो व्यवस्था है!
    -इक़बाल हिंदुस्तानी
    सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस मार्कंडे काटजू बेशक एक ईमानदार और काबिल जज रहे हैं। उनकी फैसला लिखते समय की जानी वाली टिप्पणियां काफी चर्चित हुआ करती थीं। अब वे अपने पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं लिहाज़ा उनको फैसला लिखने और तरह तरह की टिप्पणियां लिखकर पूरे देश का ध्यान अपनी तरफ खींचने की सुविधा उपलब्ध नहीं रह गयी है। हो सकता है कि वे इसीलिये प्रैस काउंसिल ऑफ इंडिया का प्रेसीडेंट बनने के बाद कुछ ऐसी बातें कह रहें हों जिनसे मीडिया में उनकी बातों पर जोरदार चर्चा हो। इसमें किसी हद तक वे कामयाब होते भी नज़र आ रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि काटजू साहब मीडिया के बारे में जो कुछ फर्मा रहे हैं वो काफी हद तक सही भी है। वे यह मांग भी कर चुके हैं कि प्रैस काउंसिल को मीडिया काउंसिल का दर्जा देकर इसके अधीन प्रिंट मीडिया के साथ साथ इलैक्ट्रानिक चैनलों को भी लाया जाये। इसमें भी उनकी वही जज वाली पॉवर दिखाने की एक कसक और ललक झलक रही है। वे यह भी शिकायत कर रहे हैं कि काउंसिल को ऑटोनामस ही नहीं पहले से अधिक पॉवरपफुल बनाया जाये जिससे वह कोर्ट की तरह दोषी पत्रकारों और उनके संस्थान मालिकों को तलब कर दंडित कर सके। यहां फिर वही उनकी पुरानी इंसाफ करने और अपराधियों को जेल भेजकर सज़ा देने की हनक सामने आ रही है। यह अपने आप में शायद पहला रोचक मामला होगा जिसमें जो शख़्स जिन लोगों की काउंसिल का सदर बना है उन लोगों के खिलाफ पूर्वाग्रह रखकर मोर्चा खोल रहा है। अगर उनको यह सब ही करना था तो सरकार से पहले अपने अनुकूल प्रैस काउंसिल बनाने की मांग करते और तब काउंसिल का चार्ज लेते और अगर सरकार इसके लिये तैयार नहीं होती तो कोर्ट जाते या उसके खिलाफ अन्ना की तरह संघर्ष का रास्ता अपनाते । यह क्या बात हुयी कि आप सरकार और मीडिया दोनों के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं और उसी पद पर विराजमान हैं जिसके खिलाफ हैं।
    दरअसल काटजू साहब जानते हैं कि वे जो कुछ कह रहे हैं वह नई बात नहीं है। नई बात तो यह है कि उनको पता था कि वे जिस न्यायपालिका का हिस्सा रहेे हैं वहां भी भ्रष्टाचार मौजूद है लेकिन उच्च पद पर आसीन रहते हुए भी वे केवल टिप्पणी ही करते रहे उसे सुधारने के लिये न तो कोई ठोस काम कर सके और न ही सरकार से ऐसा करा सके। हमारे कहने का मतलब यह नहीं है कि मीडिया में भ्रष्टाचार या गड़बड़ी नहीं है बल्कि वे उससे भी ज्यादा हैं जितना काटजू साहब कह रहे हैं लेकिन यह आधा सच है क्योंकि भ्रष्टाचार एक कॉमन प्रॉब्लम है। यह हमारे सिस्टम से लेकर हमारी नस नस में खून के साथ दौड़ रहा है। केवल मीडिया को उसके लिये फटकारना रोग का इलाज न करके केवल एक लक्षण का उपचार करना होगा, जो संभव नहीं है। हकीकत तो यह है कि जब से पंूजीवाद को हमारी सरकार ने अपनाया है तब से मीडिया में यह सर चढ़कर और अधिक बोल रहा है। काटजू साहब का यह कहना भी ठीक नहीं है कि मीडिया वाले राजनीति, साहित्य, अर्थजगत और विदेश नीति पर जो कुछ लिखते हैं उसका उनको कुछ ज्ञान नहीं होता। इन विषयों की केवल डिग्री ले लेनेेेे से ही ज्ञान प्राप्त नहीं होता और फिर एक सच्चाई और है जिसको काटजू साहब नज़रअंदाज़ कर रहे हैं कि एकमात्र मीडिया ही तो है जो हर विषय के विशेषज्ञ को अपने विचार प्रकट करने का बराबर मौका देता है। क्या यह दावे से कहा जा सकता है कि किसी पत्रकार को अपनी पत्रकारिता के अलावा किसी और विषय का ज्ञान हो ही नहीं सकता। इसी को पूर्वाग्रह कहा जाता है। हम यह नहीं चाहते कि मीडिया का भ्रष्टाचार और गैर ज़िम्मेदारी क्षमायोग्य है लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि केवल मीडिया को जवाबदेह बनाना कहां का इंसाफ और औचित्य है? पूरी व्यवस्था को उत्तरदायी बनाने की ज़रूरत है जिसमें मीडिया अपने आप शामिल होगा। क्या आज भी मीडिया की गलत और जानबूझकर छवि ख़राब करने की हरकत पर उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही नहीं की जाती है। रहा सवाल इस बात का कि लोग अकसर मीडिया के हाथों ब्लैकमेल हो जाते हैं और हालत इतनी ख़राब होेेे चुकी है कि मीडिया के स्वामी अपने निचले स्तर के पत्रकारों को भी बजाये भुगतान करने के उल्टे पैसा लेकर नियुक्त कर रहे हैं तो कसूर उस व्यवस्था का है जिसमें यह सब संभव हो रहा है। ज़रूरत पूरी व्यवस्था को बदलने और जवाबदेह बनाने की है। काटजू साहब को शायद याद हो कि उनकी न्यायपालिका ने जजों की नियुक्ति का अधिकार ज़बरदस्ती सरकार से ले लिया था जिसपर सरकार में बैठे हुए नाकारा और भ्रष्ट नेता न्यायपालिका से टकराव के डर से चुप्पी साधने पर मजबूर हो गये। जजों की सम्पत्ति घोषित कराने के लिये नागरिकों को लंबा संघर्ष करना पड़ा। सूचना के अधिकार को रोकने के लिये पूर्व चीफ जस्टिस बालकृष्णन जी ने पूरा जोर लगाया। आज उनके खिलाफ तरह तरह के आरोप लग रहे हैं लेकिन वे मानव अधिकार आयोग के प्रेसीडेंट के पद पर जमे हुए हैं। आज भी आरटीआई में कोई सवाल पूछने के लिये पूरे देश मंे किसी भी विभाग और मंत्रालय में मात्र दस रूपये लगते हैं लेकिन न्यायपालिका में यह शुल्क 500 रुपये रखने का गरीब देश मंे क्या औचित्य है? जजों के भ्रष्टाचार को रोकने के लिये न्यायपालिका की तरफ से काटजू साहब ने कोई सार्थक पहल, मांग या अभियान चलाया हो याद नहीं आता। अन्ना की इस मांग पर भी न्यायपालिका का कोई खास रेस्पांेस नहीं आया कि जनलोकपाल में न्यायपालिका को भी शामिल किया जाये। खुद काटजू साहब का भी ऐसा कोई बयान हमारी नज़रों से नहीं गुज़रा।
    सही बात तो यह है कि आज मीडिया इतनी कमियांे और बुराइयों के बावजूद जितने घोटाले और भ्रष्टाचार के मामले खोल रहा है उससे जनता का विश्वास उसपर संविधान के तीन कथित स्तंभों विधयिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका से कहीं अधिक जमा हुआ है। इसके अधिकांश सदस्य निचले स्तर पर अपने शोषण और अन्याय के बावजूद दिनरात चौबीस घंटे अपनी ज़िम्मेदारी निभाकर आम गरीब और बेसहार आदमी का सहारा बने हुए हैं। मीडिया का सदुपयोग अधिक हो रहा है। यह बहुत पुरानी बात नहीं है कि कई चर्चित केसों में जब मीडिया ने आवाज़ बुलंद की तब ही वे केस दोबारा खुले और कोर्ट ने सरकार के ठीक से पैरवी करने पर उन मामलों में न्याय किया। इसका श्रेय तो कम से कम मीडिया को ही दिया जाना चाहिये। आज अन्ना का आंदोलन अगर सरकार को जनलोकपाल बिल पास करने को मजबूर करता नज़र आ रहा है तो इसके पीछे भी मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका है। कई मंत्री और सत्ताधारी दल के नेता तो इस बात को स्वाीकार भी कर चुके हैं कि वे अन्ना के आंदोलन से नहीं बल्कि मीडिया के इसकी कवरेज से तंग आ चुके हैं। सरकार पहले से चाहती है कि किसी न किसी बहाने से मीडिया पर सेंसर लगाया जाये लेकिन वह खुद भ्रष्ट और नाकाम होने से जनता का भरोसा खो चुकी है। आज यह भरोसा सबसे अधिक मीडिया को हासिल है। काटजू साहब जाने अंजाने सरकार और उस वर्ग की इच्छा पूरी करते नज़र आ रहे हैं जिसकी कोशिश हमेशा यह रही है कि किसी न किसी तरह संेसर के बहाने मीडिया को काबू किया जाये जिससे वह उनकी करतूतों को जनता के सामने उजागर न कर सके। इसके लिये सरकार तो विज्ञापन से लेकर सत्ता का खासा दुरूपयोग भी समय समय पर करती रही है लेकिन उसकी यह हिम्मत नहीं हुयी कि वह कानून बनाकर उसके पर कतर सके लेकिन काटजू साहब जिस तरह से माहौल बना रहे हैं उससे ज़रूर सरकार को मीडिया को सबक सिखाने या मंुह बदं रखने को मजबूर करने का हथियार मिल सकता है। काटजू साहब बेशक मीडिया को पाक साफ बनाने के लिये चाहे प्रैस काउंसिल को शक्तिशाली बनाने की बात करें और चाहे सरकार से कानून बनाकर उसपर नियंत्रण रखने की व्यवस्था करा दें लेकिन उससे पहले पूरी व्यवस्था और सरकार को जिम्मेदार बनाने के लिये अन्ना हज़ारे की तरह कोई ठोस मुहिम चलायें तो उनकी नीयत पर शक भी नहीं होगा और मीडिया भी खुशी खुशी न सही अनचाहे इसके लिये जनता की तरफ से मजबूर किया जा सकेगा क्योंकि पत्रकार भी इसी समाज का हिस्सा हैं और जब सब बदलेंगे तो वे भी अवश्य बदलेंगे यह विश्वास रखना होगा।
    0 अमन बेच देंगे, चमन बेच देंगे,
    वतन के मसीहा गगन बेच देंगे ।
    क़लम के सिपाही अगर सो गये तो,
    वतन के मसीहा वतन बेचदेंगे।।

  2. जगमोहन का यह लेख बड़ा बेबाकी का है पत्रकारों के सम्बन्ध में ओशो के विचार क्या थे यह आप लोग जानते है उनका कहना था कि पंडित पुरोहित और राजनेता भ्रष्टाचार की नीचे की ओर जाती हुई क्रमबद्ध सीडिया है और पत्रकार तो उससे भी नीचे की सीडी है .हमारे झारखण्ड से एक अख़बार निकलता है प्रभात खबर उसके पत्रकार को धुलू महतो के आदमियों ने पीट दिया तो लगे उस शख्श की पुस्तैनी बखिया उधेड़ने हलाकि धुलू महतो कतरास इलाके का दबंग विधयक है और उस की दबंगई आज से नहीं वर्षों से है तब प्रभात खबर कहाँ था निश्चित रूप से उसका पत्रकार भी माल खाता होगा जब सेट्टिंग बिगड़ गई तो गड़े मुर्दे उखाड़ने लगे सभी जानते है कतरास कोयलांचल में पड़ता है और यहाँ काला सोना बिखरा पड़ा है सभी वर्ग के लोग लाभान्वित होते है प्रभात खबर एक हिंदी अख़बार के रूप में जाना जाता पर इसके प्रमुख संपादक हरिवंश जी के लेखों में अंग्रेजी शब्दों की देवनागरी लिपि में प्रयोग कहीं न कही से अपने पत्रकारिता का दुरूपयोग है एक अच्छी भाषा को बिगाड़ने में उनका योगदान जाना जायेगा उनके या किसी भी अख़बार के पन्नो पर विज्ञापनों में से समाचार खोजना पड़ता है जो किसी कोने में एक तरफ मिलता है आज कल एक प्रथा इन अख़बारों ने चलाई है पुरुष्कार बाँट कर लोगों को अख़बार खरीदने का लालच देना फिर वे जो चाहे उस अख़बार में छापते रहे एक बड़ा अख़बार समूह दैनिक भास्कर ने इसी तरह लोगो को चूना लगाया पत्रकारिता के नाम पर पीत [त्रकारिता परोस रहा है .ये सब कुछ उदहारण है जो जगमोहन जी की बातों का समर्थन करते है यह तो हुई प्रिंट मीडिया की बात अब टी वी चैनलों की बात की जाय इनके समाचारों की सामग्री क्या होती है इस पर भी ध्यान दिया जाय यदि इनकी सामग्री को पुस्तिका आकार में छाप दिया जाय तो बाजार में बिकने वाली चालू पत्रिका जैसी शकल होगी इनकी सामग्री का मुलाहिजा जरा लीजिये ….आज रावण अपनी कब्र से उठेगा या फिर पाताल की सैर और इसी तरह की बकवास जैसी सामग्रियों से उए चैनल भरे रहते है
    मैंने दिनमान पढ़ा है और साठ के दशक की पत्रकारिता देखी है तब जो नाम आते थे और अब जो नाम आते है और काम देख कर अफ़सोस होता है यह कितनी निम्न स्तर पर पहुँच गई है खैर यह विश्वास रखना चाहिए की कभी न कभी फिर अन्देर्सन या कुलदीप नय्यर या जनार्दन ठाकुर जैसे लोग पत्रकारिता में प्रकट होंगे अभी तो कुछ दीप स्तम्भ रह गए है एम् जे अकबर जैसा वे कुछ तस्सली देते है
    बिपिन कुमार सिन्हा

  3. फुटेला जी आप भी कहा कलयुग में सतयुग की बाते लेकर बैठ गये। आज दो चार लोगो को छोड दिया जाये तो हर कोई पत्रकारियता के नाम पर घी चुपडी रोटी खा रहा है, नाकारा, निकम्मा होने के बावजूद आपने बच्चो को कान्वेंट में पढा रहा है। बेहतरीन एसी गाडी और एसी आफिस में बैठा है। आज का पत्रकार, पत्रकार न होकर गुण्डा बन चुका है। पुलिस थानो सरकारी अफसरो भ्रष्ट नेताओ के बीच रहकर वास्तव में पूरी तरह भ्रष्ट हो चुका है। दरअसल सच्ची पत्रकारियता का मकसद है आम आदमी की ज़िदगी और समाज में बदलाव लाना। पर आज पत्रकारियता और पत्रकार जिस राह पर निकल चला है वास्तव में वो सब हमारे लिये शर्म की ही नही बल्कि डूब मरने की बरत है।

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