साड्डा हक ऐथे रख

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डॉ आशीष वशिष्ठ

अन्ना और रामदेव के आंदोलन व्यवस्था में क्या बदलाव लाएगा ये तो आने वाले वक्त ही बता पाएगा लेकिन मेरी नजर में अन्ना और रामदेव के आंदोलन, अनशन और यात्राओं ने आम आदमी को उसकी ताकत का एहसास करवाने का बड़ा महान और सार्थक काम तो किया ही है। बरसों से भ्रष्टाचार, अव्यवस्था, अन्याय और गली-सढ़ी राजनीतिक सोच का संताप झेल रही जनता को ये लगने लगा है कि अगर वो एकजुट होकर चिल्लाएगी तो बहरे शासकों को भी सुनाई देने लगेगा। अन्ना से पूर्व देश में कई राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन हुये हैं लेकिन अन्ना और रामदेव ने देश से भ्रष्टाचार मिटाने और काले धन को विदेशी बैंकों से वापिस लाने की मुहिम ने देश की जनता को यह सोचने को विवश किया है कि जिनके कंधों पर उन्होंने देश और अपनी जिम्मेदारी सौंप रखी है वही महानुभाव जनता के हक के पैसे को विकास कार्यों और जनता की भलाई में लगाने की बजाय विदेsशी बैंकों में जमा करवाने में ही दिन रात एक किये हुये हैं। पिछले कई दशकों से प्रजातंत्र में प्रजा का कार्य केवल वोट डालने तक ही सीमित हो गया था। लेकिन अन्ना के अनशन ने जनता की आंखें खोलकर रख दी। बरसों से सुप्तावस्था में पड़ी जनता को एकाएक ये अहसास हुआ कि उनके साथ तो लगातार धोखा हो रहा है, और जिन महानुभावों को विश्वास और उम्मीद के साथ उन्होंने सत्ता की चाबी सौंपी है वहीं उनके साथ धोखाधड़ी और बेईमानी कर रहे हैं। भ्रष्ट व्यवस्था, ओछी और स्वार्थी राजनीति, तथाकथित बईमान और धोखेबाज नेताओं से ऊबी जनता ने रामलीला मैदान और देश भर में एकजुट होकर सरकार को बता दिया की अब उन्हें अंधेरे में रख पाना आसान नहीं है। सत्ता के नशे में चूर नेता अगर ध्यान से जनता की आवाज सुन पाये हो तो उसका अर्थ यही था कि साड्डा हक ऐथे रख। जन लोकपाल बिल के आगे जन शब्द आम आदमी का ही तो प्रतिनिधित्व करता है।

 

आजादी के लगभग दो दशकों के बाद से राजनीति में भ्रष्टाचार का जो घुन लगा था, आज वो अपनी चरमसीमा पर पहुँच चुका है। भ्रष्टाचार के दीमक ने लोकतंत्र के चारों खंभों को भीतर से खोखला कर दिया है। सरकार और जिम्मेदार महानुभाव अपने पक्ष और बचाव में चाहे कितने भी लंबे-चौड़े और प्रभावशाली तर्क देने की कोशिश करें लेकिन सच्चाई यह है विधायिका, न्यायापालिका और न्यायपालिका भ्रष्टाचार के संगम में जमकर डुबकी लगा रहे हैं और इस तिगड़ी ने आम आदमी की आवाज बुलंद करने वाले साधन और लोकतंत्र के अघोषित स्तंभ प्रेस को भी अपने रंग में रंग लिया है। देखा जाए तो देश में एक ऐसे वातावरण का निर्माण हो चुका है जिसमें बुनियादी सुविधाओं और संविधान प्रदत अधिकारों को पाने के लिये नागरिकों को एक भिखारी या याचक की भांति उस व्यवस्था और माशीनरी के सामने बेबस और लाचारी की हालत में खड़ा होना पड़ता है जिसे उसने चुनकर भेजा है और जो भारी-भरकम वेतन, सुविधाएं और भत्ते देश और जनसेवा के नाम पर पाते हैं। तथाकथित जनसेवकों, नौकरशाहों और न्याय मंदिरों के भगवान मिलकर देश की भोली भाली जनता को पिछले 64 सालों से सरेआम बेवकूफ बना रहे हैं। सरकारी मनमानी, व्यवस्था की कमियों और दोषों के विरुद्ध जब कोई आवाज उठती है तो व्यवस्था और मशीनरी अपनी कमियों और दोषों पर ध्यान देने या सुधारने की बजाय आवाज उठाने वाले के खिलाफ लांमबंद होकर उस आवाज को बंद करने पर सारी ऊर्जा खर्च कर देती है। आजादी मिले 64 सालों का लंबा समय व्यतीत तो अवश्य हो चुक है लेकिन देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। जिम्मेदार लोग कानों में तेल डाले बैठे हैं जनता के दुख-दर्द और परेशानियों से इनकी सेहत पर कोई असर नहीं होता है।

 

देश में बुनियादी सुविधाओं को जुटाने और विकास के लिये हर वर्ष करोड़ों रूपये खर्च होते हैं बावजूद इसके देश के बड़े भूभाग में अभी तक बुनियादी ढांचा विकसित नहीं हो पाया है। विकास के नाम पर जमकर सरकारी खजाने को लूटा जा रहा है। मोटे तौर पर ऐसा प्रतीत होता है कि गलती से जो सड़क एकबार बन गयी थी हर बार विकास के नाम पर उसी सड़की की मरम्मत और रंग रोगन करके कागजी खानापूर्ति और विकास के लंबे-चौड़े दावे ठोंके जाते हैं। अगर ईमानदारी से विकास योजनाओं पर खर्च धनराशि और उसके अनुपात में हुये घोटालों, घपलों और भ्रष्टाचार का लेखा-जोखा देखा जाए तो विकास के नाम पर इतनी धनराशि खर्च हो चुकी है कि हम दुनिया के सबसे ताकतवर देश को भी मात दे सकते थे। लेकिन जब देश का प्रधानमंत्री इस बात को स्वीकार कर चुका हो कि केंद्र से विकास के नाम पर चला एक रूपया नीचे पहुंचने तक दस पैसे मे तब्दील हो जाता है, फिर कहने को कुछ बचता नहीं है। वर्तमान में मनरेगा और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में जो धांधली और लूट मची हुयी है वो विकास के दावों और सच्चाई की पोल पट्टी खोल देते हैं। भ्रष्टाचार के कारण सारी दुनिया के सामने हमारी गर्दन झुकी रहती है, लेकिन जिम्मेदार और कसूरवार एक दूसरे पर जिम्मेदारी और आरोप-प्रत्यारोप लगाकर बड़ी बेशर्मी से अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। पिछले चार दशकों में हुये अगर घपलों, घोटालों और सरकारी खजाने में लूट का हिसाब जोड़ा जाए तो हम एक नये भारत का निर्माण कर सकते थे।

 

सरकारी कागजों और दस्तावेजों में नागरिकों को अधिकार और सुविधाओं की लंबी फेहरिस्त है जिन्हें देख, सुन और पढ़कर ऐसा आभास होगा कि वास्तव में हमारा देश एक कल्याणकारी राज्य है। मैट्रो और तमाम दूसरे बड़े शहरों में पीने के पानी और सार्वजनिक शौचालयों की व्यवस्था न के बराबर है ऐसे में विकास और कल्याण के तमाम दूसरे दावों की सच्चाई समझी जा सकती है। यहां ये बताना लाजिमी है कि आजादी के इन छह दशकों में देश ने लगभग हर क्षेत्र में सुधार किया है लेकिन जितनी धनराशि सरकारी कागजों में खर्च हो चुकी है वो विकास के असली तस्वरी से बहुत दूर है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायापालिका ने अपने हितों और स्वार्थों को ध्यान में रखकर एक-एक कानून गढ़ा और बनाया। अपनी सुविधाओं और आराम की खातिर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल, थियेटर, फॉर्मूला वन रेस का ट्रैक, स्विमिंग पुल, गोल्फ मैदान, पंचतारा होटल, फाइव स्टार अस्पताल, अंतर्राष्ट्रीय स्तर के शिक्षा केन्द्र, रिसोर्ट, डिस्को थैक, कैसीनो और ऐशो-आराम की हर वो छोटी-मोटी सुविधा विकास के नाम पर विकसित और स्थापित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा दो जून की रोटी को तरस जाए, जच्चा-बच्चा इलाज के अभाव या फिर डाक्टर की लाहपरवाही से मर जाएं या फिर देश के नौनिहाल मिड डे मिल के नाम पर कीड़े खाएं और प्रदूषित जल पीने को विवश हों, धरती पुत्र कर्ज के बोझ ओर भुखमरी से आत्महत्याएं करने को मजबूर हो लेकिन हमारे रहनुमाओं ने अपने लिये केएफसी, मैकडॉन्लड, डोमिनो, पिज्जा हट और विदेशी मिनरल वाटर प्लांट लगवाने में कोई कमी नहीं रखी है।

 

असल में देश के नीति निर्माताओं और रहनुमाओं ने सोची-समझी राजनीति और षडयंत्र के तहत देश की जनता को जाति, भाषा, कौम, और तमाम दूसरे बेकार के फंदों में फंसाकर अपना मतलब साधा और देश की जीती-जागती जनता को निष्प्राण बैलेट में बदल डाला। जानबूझकर देश की जनता को विकास और शिक्षा की लौ से दूर रखा गया। साक्षरता, परिवार नियोजन और तमाम दूसरी कल्याणकारी योजनाओं को मजाक बनाकर रख दिया गया। तभी तो आज भी देश में अशिक्षा, अनपढ़ता और बेरोजगारी का बोलबाला है। तकनीकी शिक्षा और कौशल का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। कुटीर, लघु और पारंपरिक उद्योग धंधों, कारीगरी और देसी तकनीक को सोची समझी साजिश के तहत खत्म किया जा रहा है। असलियत यह है कि ऊंचे ओहदों पर विराजित महानुभाव विषुद्व रूप से मल्टीनेशनल कंपनियों और विकसित देशों के एजेंट, दलाल और रिकवरी आफिसर की भूमिका निभा रहे हैं। देश की भोली-भाली जनता को टीवी, फिल्मों, मोबाइल की चकाचौंध में उलझाकर बेवकूफ बनाया जा रहा है। किसानों को ऊंचा मुआवजा देकर खेती-किसानी से बेदखल किया जा रहा है। वस्तु विनिमय प्रणाली से देश की अर्थव्यवस्था मुद्रा विनमय प्रणाली में लगभग स्थांतरित हो चुकी है। विदेशी बैंक और तमाम दूसरी संस्थाएं विकास के नाम पर अरबों डालर सरकार को देकर देश के बच्चे-बच्चे को अपना गिरवी बना चुके हैं बावजूद इसके नेता और मंत्री कटोरा लिये विदेश यात्राएं करने में शान समझते हैं।

 

लेकिन धीरे-धीरे ही सही देश की दबी-कुचली और सोयी जनता को हकीकत समझ आने लगी है कि उनके साथ कितना बड़ा धोखा हो रहा है। रामदेव के शिविर में अहिंसक प्रदर्शनकारियों पर लाठी-डंडे बरसाकर सरकार अपने को शेर समझने लगी थी। जनता के ठंडेपन से सरकार को लगने लगा था कि रामदेव, अन्ना और तमाम दूसरे लोग अपनी दुकानदारी चमकाने के लिये सरकार के विरुद्ध बोल रहे हैं असल में जनता उनके साथ नहीं है। लेकिन जब अन्ना के अनशन को सरकार ने कुचलने का प्रयास किया तो देश की जनता और खासकर युवा अपना आक्रोश, भावनाएं और गुस्से को रोक नहीं पाये। सरकार की हठधर्मिता और बेशर्मी का जनता ने बखूबी जवाब दिया और अंत में सरकार को भारी जन दबाव के सामने हथियार डालने पड़े। हमारे आपके पैसों से ही इस देश की अर्थव्यवस्था और तमाम व्यवस्थाएं गति पाती हैं। ऐसे में देश निर्माण और विकास में लगी एक एर्क इंट और पत्थर में हमारा आपका हक है। लोकतंत्र में वहीं सरकार सफल होती है जो जन भावनाओं की कद्र करे क्योंकि वोट की ताकत लोक के पास ही होती है। और जब देश की जनता सस्वर अपने अधिकार और हक की बात करने लगे तो जिम्मेदार लोगों को समझ लेना चाहिए कि देश की जनता जाग चुकी है और देर-सबेर वो साड्डा हक ऐथे रख मांगने लगेगी।

 

 

 

 

 

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