एकात्म मानववाद के प्रणेता पं दीनदयाल उपाध्याय

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25 सितंबर, दीनदयाल जयंती

डा. विनोद बब्बर 

एक संगोष्ठी में एक शोधार्थी ने मुझसे पूछा कि ‘क्या दीनदयाल जी भाजपा के गांधी हैं?’ तो मेरा उत्तर था कि दीनदयाल जी भारतीय जनता के दीनदयाल हैं। उनके मन-मस्तिष्क में केवल और केवल भारत के उत्थान की चिंता थी। वे विकास के नाम पर पश्चिमी विचारधारा के अंधानुसरण के विरोधी थे। भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ गुणों को ग्रहण करने तथा हर रूढ़ियों, अंधविश्वासों के त्याग के अनन्य समर्थक दीनदयाल जी ने साम्यवाद, समाजवाद, पूँजीवाद जैसे पश्चिमी मॉडल के स्थान पर एकात्म मानववाद की भारतीय अवधारणा प्रस्तुत की। इसे संयोग कहा जा सकता है कि ग्राम विकास की उनकी विचारधारा अन्त्योदय गांधी जी के सर्वोदय विचार से काफी निकट थी।

गांधी जी ने हिंद स्वराज सहित अन्य स्थानों पर जो कुछ कहा, स्वतंत्रता के पश्चात् देश की सत्ता पर विराजित उनके शिष्यों का आचरण उसके पूर्णतः विपरीत रहा लेकिन लगातार सत्ता में रही कांग्रेस ने गांधी नाम का भरपूर राजनीतिक लाभ लिया। सरकारी मशीनरी की मदद से गांधी नाम और चित्र डाक टिकट से मुद्रा, सरकारी योजनाओं के नामकरण से पाठ्यक्रम तक, हर नगर-महानगर में गांधी नगर, गांधी चौक, गांधी मार्ग सहित विभिन्न रूपों में बहुप्रसारित हुआ जबकि दीनदयाल के दल जनसंघ के लंबे समय तक विपक्ष में रहने के कारण सरकारी मशीनरी, जन दबाव अथवा पाठ्यक्रम के माध्यम से प्रसार का प्रश्न ही नहीं उठता लेकिन ज्यों-ज्यों जनता में जागृति बढ़ी, बिना किसी प्रभाव अथवा दबाव के दीनदयाल जी के दर्शन की जन-जन में स्वीकार्यता बढ़ी है।


इसमें कोई संदेह नहीं कि गांधी जी और दीनदयाल जी दोनों ही असाधारण प्रतिभाएं थीं। दोनों ही विचारक, प्रतिभा सम्पन्न लेखक, सजग पत्रकार, प्रभावी वक्ता, कुशल संगठक, जुझारू आन्दोलनकर्ता थे। दोनों ने जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व किया, न केवल उस पर बल्कि सम्पूर्ण परिवेश पर अपनी छाप छोड़ी। सरलता, सादगी को अपना जीवन ध्येय बनाया। अपनी बात को बेबाकी से प्रस्तुत करने का मनोबल और साहस दोनों में विद्यमान था। गांधी जी अथवा दीनदयाल जी की राजनीतिक विचारधारा से किसी की भी असहमति हो सकती है लेकिन उनके सामाजिक चिंतन को जानने के बाद वह उनका प्रशंसक ही होगा।


पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का जन्म (25 सितंबर 1916) गांधी जी के (2 अक्टूबर, 1869) के 47 वर्ष बाद हुआ। उनका राजनीति में आगमन गांधी जी के देहावसान के बाद हुआ। इसे संयोग कहा जाएगा कि दोनों के विचारों में अनेक स्थानों पर समानता दिखाई देती है। यदि हम गांधी-दर्शन को जानना चाहते हैं तो हमें समय-समय पर गांधी जी द्वारा अपने समाचार पत्रों में लिखे लेखों तथा उनके भाषणों के संकलन गांधी वांड़्मय की मदद लेनी पड़ती है। इसी तरह दीनदयाल जी को समझने में उनके लेख तथा कुछ विशेष अवसरों पर दिए गए व्याख्यान हमारी मदद करते हैं।


यह सर्वज्ञात है कि गांधी जी का बाल्यकाल अपेक्षाकृत बेहतर था। उनके पिता राजकोट के दीवान थे जबकि दीनदयाल जी छोटी आयु में ही माता-पिता की छाया से वंचित हो गये थे। उनके नाना ने उन्हें पाला और संभाला। गांधी जी शानदार अल्फ्रैड स्कूल के छात्र रहे जबकि दीनदयाल जी की शिक्षा सामाजिक सहयोग और छात्रवृत्ति पर आश्रित थी। गांधीजी उच्च शिक्षा के लिए विदेश गये जबकि दीनदयाल जी की उच्च शिक्षा कानपुर और आगरा में हुई। गांधी जी स्वयं इंग्लैड में अपने जीवन चरित्र के विचलन को स्वीकार करते हैं तो दूसरी ओर दीनदयाल जी अखंड ऋषिकल्प थे। अफ्रीका में हुए दुर्व्यवहार ने गांधी जी को आंदोलित किया तो दीनदयाल जी अपने परिेवेश में समाज की दुर्दशा को देख समाज कार्य से जुड़े।


गांधी जी सूट, बूट, टाई वाले बैरिस्टर थे। चम्पारण की एक घटना ने उन्हें सूट, टाई छोड़ने के लिए प्रेरित किया जबकि दीनदयाल जी आरंभ से ही सादगी से जीवनयापन करते थे। दोनों मेहनती थे। अपने हाथों अपना काम करते थे। दीनदयाल जी अनेक बार अपने साथियों के लिए भी भोजन बनाते थे। रेल के साधारण डिब्बे में यात्रा करते थे। गांधी नियमित रूप से कुछ पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखते थे तो दीनदयाल जी भी नियमित लेखन करते थे। दोनों को गंभीरता से समझने में यत्र-तत्र प्रकाशित उनके लेखों से मदद मिलती है।


गांधी जी की तरह दीनदयाल जी भी किसी संवैधानिक पद पर नहीं रहे लेकिन उन्हें जो महत्व मिला, वह उनके विचारों और आचरण के कारण मिला। यदि हम भाषा को लेकर दोनों के विचारों को जानने का प्रयास करें तो यहाँ भी बहुत साम्य मिला है। दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी के बच्चों का शिक्षक उन्हें अंग्रेजी सिखाने पर बल दे रहा था लेकिन गांधी जी का कहना था कि अंग्रेजी या अन्य कोई भी भाषा जीवन में कभी भी सीखी जा सकती है लेकिन मातृभाषा आरंभ से ही सीखना अनिवार्य है। उन्होंने विभिन्न अवसरों पर हिंदी और भारतीय भाषाओं का पक्ष लिया। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के गठन में उनकी भूमिका थी। यह बात अलग है कि अपनी राजनीतिक विवशताओं के कारण वे बाद में हिंदी की बजाए उर्दू-फारसी प्रभाव वाली हिंदुस्तानी के पक्षधर हो गये। यह विशेष उल्लेखनीय है कि 15 अगस्त, 1947 को बीबीसी को दिए साक्षात्कार में अंग्रेजी में पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था, ‘कह दो दुनिया वालों से गांधी अंग्रेजी भूल चुका है।’ लेकिन दुर्भाग्य है कि भारत के भाग्य विधाता बने गांधी के मानस पुत्र अंग्रेजी मोह नहीं छोड़ पाए।


दीनदयाल जी भारतीय भाषाओं के प्रबल पक्षधर थे। उनका आग्रह था कि ‘सबसे पहले गुलामी की भाषा अंग्रेजी को भारत के राजकाज से मुक्त किया जाए।  अंग्रेजी हटेगी तो उसका स्थान हर राज्य में वहाँ की स्थानीय भाषा को मिलेगा और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को सम्मान मिलेगा।’ दीनदयाल जी प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने के पक्षधर थे। उन्होंने हिंदी और भारतीय भाषाओं के संवर्धन और उन्हें लोक व्यवहार से राजभाषा तक का दर्जा देने की वकालत की। यह सुखद है कि दीनदयाल जी की विचारधारा से जुड़े दल की सरकार ने नई शिक्षा नीति में उनके इस विचार को कार्य रूप देने का निर्णय किया है।


दोनों ही महापुरुष सत्ता के विकेंद्रीकरण के पक्ष में थे। गांधी जी स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी ग्राम पंचायत को महत्वपूर्ण अधिकार देने पर बल देते थे लेकिन उनके अनुयायियों ने पंचायती राज योजना को स्वतंत्रता के फौरन बाद नहीं, बल्कि लंबे इंतजार के बाद संवैधानिक दर्जा दिया। गांधी जी का मत था, ‘लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिए आवश्यक है कि राजनीति को भ्रष्ट होने से बचाया जाये।’ दीनदयाल जी सत्ता के विकेंद्रीकरण के पक्षधर थे। वे ग्राम पंचायत, विकास खंड, जनपद, प्रदेश और केन्द्र-पाँच स्तरों पर अधिकारों और दायित्वों के विभाजन के पक्षधर थे। राजनीतिक डायरी में दीनदयाल जी कहते हैं, ‘आज राजनीति साधन नहीं, साध्य बन गई है। सत्ता का उपयोग करने के लिए सामाजिक और राष्ट्रीय लक्ष्यों की पूर्ति के लिए नहीं, बल्कि सत्ता सुख के लिए कर रहे हैं।’


दोनों ही महापुरुष ग्राम स्तर पर कुटीर उद्योगों के पक्षधर थे। गांधी जी ने चरखे और खादी की बात की तो दीनदयाल जी ने गाँव अथवा गाँव के आसपास उद्योग लगाने पर बल दिया। दीनदयाल जी कहा करते थे, ‘यदि शहरों में बड़े उद्योग लगाए जाते हैं तो गाँव से शहरों की ओर पलायन होगा। परिवारों में टूटन होगी। शहरों में झुग्गी-झोपड़ी, तंग बस्तियां और स्लम बढ़ेंगे जिससे जनजीवन नरकीय होगा। भयंकर रोगों का प्रसार बहुत तेजी से होगा। इसलिए गाँवों में अथवा गाँवों के आसपास ही उद्योग लगाये जाने चाहिए।’


दोनों ही महापुरुष राजनीति में नैतिकता और शुचिता के पक्षधर होने के साथ-साथ अपने हाथों काम करने वाले स्वयंसेवक थे। गांधी जी अपने आश्रम में दूसरों को सिखाने के लिए सदैव स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करते थे तो दीनदयाल जी आजीवन स्वयंसेवक रहे। यहाँ तक कि साधारण कार्यकर्ता तक को भी आवश्यकता पड़ने पर अपने हाथ से भोजन बना कर देना, अपने वस्त्र धोना आदि काम स्वयं करते थे।


 दीनदयाल जी ने कभी भी अपनी राजनीति को राष्ट्रनीति पर हावी होने नहीं दिया। नेहरू जी और कांग्रेस के विरोधी होते हुए भी जब भी देश पर संकट आया हर तरह के मतभेद भुलाकर, आंदोलन समाप्त करके सरकार को अपना हर संभव सहयोग प्रदान किया। स्वयं चुनाव हारना स्वीकार किया लेकिन समाज को जाति में बाँट कर राजनीतिक लाभ लेने के सुझाव को सख्ती से ठुकरा दिया। जब किसी ने कहा कि चुनावी भाषण चुनाव चुटकीले और व्यक्तिगत दोषारोपण वाले होने चाहिए लेकिन आप प्रवचननुमा भाषण देते हो तो उन्होंने स्वयं को चुनाव से अलग कर लेने की पेशकश की, अर्थात् किसी भी रूप में वे शुचिता से दूरी बनाने के पक्ष में नहीं थे।


गांधी जी और दीनदयाल जी, दोनों का मत था कि धर्मविहीन राजनीति भटक जाती है। दोनों रामराज्य के पक्षधर थे। रामराज्य से उनका अभिप्राय आदर्श शासन व्यवस्था से था। उन्होंने गौ-सेवा पर बल दिया। धर्मांतरण का विरोध किया। यदि गांधी जी आज होते तो बहुत संभव है कि उनके अपने उन्हें भी सांप्रदायिक घोषित कर देते।
दीनदयाल जी आजीवन गौ-हत्या पर प्रतिबंध तथा धर्मराज अर्थात् ‘सबके लिए न्याय और तुष्टिकरण  किसी का भी नहीं’ के लिए प्रयत्नशील रहे। गांधी ने अछूतोद्धार के लिए कार्य किया तो दीनदयाल जी जिस विचारधारा से जुड़े थे, वहाँ सामाजिक समरसता सर्वोपरि  है। संघ में कभी भी किसी की जाति नहीं पूछी गई. सह भोज में बिना किसी भेदभाव के सभी एक-दूसरे के घर से आया हुआ भोजन प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं। स्वयं गांधी जी संघ के एक कार्यक्रम में उपस्थित रह उनकी इस भावना के प्रशंसक बने। राजनीतिक भ्रष्टाचार के घोर विरोधी दीनदयाल जी कहा करते थे कि ‘जनता के ख़ून-पसीने से अर्जित राजस्व से अपनी राजनीति चमकाने वाले कभी भी देश के शुभचिंतक नहीं हो सकते।’


गांधी जी विभाजन के विरोधी थे। उनके वचन ‘विभाजन उनकी लाश पर होगा’ के कारण वर्तमान पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में रहने वाले हिन्दू वहीं रहे लेकिन बाद की परिस्थितियों के कारण उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी। इस कारण उस क्षेत्र से अपना सब कुछ गवाँ कर विस्थापन को मजबूर हुए लाखों लोगों के मन में रोष था जबकि दीनदयाल जी की विचारधारा आरंभ से ही अखंड भारत की समर्थक है। विभाजन के समय हुए दंगों में दीनदयाल जी की विचारधारा के लोगों की सजगता के कारण लाखों लोग अपनी प्राणरक्षा में सफल रहे।

दूसरी ओर विभाजन के बाद गांधी जी द्वारा पाकिस्तान के हितों की रक्षा के लिए अनशन करने की बात से स्वयं उनके दल के दिग्गज तक असहमत थे लेकिन उनके विशाल व्यक्तित्व से प्रभावित वे खुलकर सामने नहीं आ सके। इससे पूर्व भी तुर्की की घटना जिनसे भारत का दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था, के कारण भारत में ख़िलाफ़त आंदोलन आरंभ करना, मोपला कांड पर उनकी प्रतिक्रिया, पाकिस्तान के पक्ष में मतदान करने वालों को विभाजन के बाद वहाँ जाने से रोकना, मजबूर विस्थापित को भयंकर सर्दी और बारिश में खाली पड़ी मस्जिद से निकाल बाहर करवाना, विभाजन के बाद पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान को जोड़ने के लिए भारत के बीचों-बीच से रास्ता देने की बात करने जैसे कुछ प्रसंग हैं जिनके कारण बहुसंख्यक समाज में जबरदस्त रोष था।

 
दीनदयाल जी और उनकी विचारधारा अखंड भारत के पक्षधर है। वे धार्मिक आधार पर विभाजन हो जाने के बाद पूरी सुरक्षा के साथ आबादी की अदला-बदली के पक्ष में थे। घुसपैठ करने वालों के साथ सख्ती से पेश आने की बात करने वाले दीनदयाल जी ने सीमा क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को सैनिक प्रशिक्षण का सुझाव दिया ताकि हमारी सीमाएं सुरक्षित रहें और राष्ट्र सजग, सबल बने।


दोनों ही महापुरुषों के लिए अपना देश महत्वपूर्ण था लेकिन विश्व युद्ध में साम्राज्यवादी अंग्रेज सरकार के युद्ध के बाद स्वतंत्रता देने के वादे पर विश्वास करके विश्व युद्ध में उनकी मदद का गांधी जी द्वारा किया गया आह्वान बहुसंख्यक लोगों की समझ से बाहर था लेकिन उस समय गांधी जी का जो सम्मान और स्थान था, उसे देखते हुए खुलकर विरोध के स्वर बहुत कम थे। दूसरी ओर दीनदयाल जी की नेहरू जी की नीतियों से असहमति थी। वे सरकार की कमियों और उनकी गलत नीतियों की ओर ध्यान आकर्षित करते थे लेकिन जब चीन अथवा पाकिस्तान से युद्ध हुआ तो उन्होंने सरकार को हर संभव सहयोग दिया। महाभारत के प्रसंग ‘वयम् पंचाधिक शतम्’ अर्थात् हम पाँच और आप सौ हो सकते हैं लेकिन जब राष्ट्र के समक्ष कोई चुनौती हो तो हम एक सौ पाँच हैं, का अनुसरण किया। वे नेहरू जी के बाद प्रधानमंत्री बने श्री लाल बहादुर शास्त्री जी के प्रशंसक थे लेकिन जब कच्छ समझौते की बात चली अथवा जब वे ताशकंद समझौते के लिए जा रहे थे तो दीनदयाल जी ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को लिए बिना लाहौर छोड़ने का पुरजोर  विरोध किया था। 


दीनदयाल जी राजनीतिक दलों द्वारा पूँजीपतियों से चंदा लेने के विरोधी थे। वे मतदान की प्रक्रिया को मतदाताओं को प्रशिक्षित करने का अवसर मानते थे। दलबदल के विरोधी थे। योग्य, अनुशासित, प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं को ही दल का प्रत्याशी बनाने के पक्षधर थे। राजनीतिक जीवन में नैतिक मूल्यों का दृढ़ता से पालन करते थे। राजनीतिक भ्रष्टाचार और दुराचरण के विरोधी थे। कानून के शासन की श्रेष्ठता पर बल देते हुए दीनदयाल जी समाज की नैतिकता को सबसे बड़ा कानून मानते थे। उनके जीवन और विचार शाश्वत और नैतिक मूल्यों के पर्याय हैं।


 दीनदयाल जी पाश्चात्य जीवन की वैज्ञानिक उपलब्धियों और उनके ज्ञान संवर्धन के विरोधी नहीं थे लेकिन उसके प्रभाव से उत्पन्न होने वाली विकृतियों के प्रति बहुत सजग थे। वे कहा करते थे, ‘पाश्चात्य जीवन दर्शन सार्वलौकिक नहीं है। पाश्चात्य समाज की भौतिक उन्नति के आकर्षण में उनकी विकृतियों को नजरअंदाज कर उनका अंधानुसरण किया गया तो उससे समाज में दिशाहीनता उत्पन्न हो जाएगी।’


दीनदयाल जी लिखते हैं ‘गांधी जी के बाद देश के शासक भारत की भाषाओं और भावनाओं को न समझ सके। वे भारतीय समाज और यहाँ की समस्याओं को अंग्रेजीयत के चश्मे से देखने लगे। भारतीयता केवल ऊपर ऊपर दिखती है। जबकि देश की राजनीति, अर्थनीति, समाज व्यवस्था, साहित्य और संस्कृति सहित समाज जीवन के हर क्षेत्र पर अंग्रेजीयत की गहरी छाप है। राजनीतिक दल समाजवादी हो या गैरसमाजवादी, सभी पश्चिम के राजनीतिक विचारधाराओं से प्रभावित हैं। वे भारत को किसी न किसी की अनुकृति बनाना चाहते हैं। लेकिन जनसंघ अपने पूर्वज ऋषियों, महापुरुषों के विचारों, अनुभवों से प्रेरणा लेते हुए जनहित और राष्ट्र की सुरक्षा एवं स्वाभिमान के मार्ग पर चलने को कृतसंकल्प है।’


कुछ विचारक नेताजी सुभाषचंद बोस के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के निर्णय को हृदय से स्वीकार न करने, अधिकांश राज्यों द्वारा सरदार पटेल को देश का प्रधानमंत्री बनाने के निर्णय को ठुकराने, बहुमत की राय को दरकिनार कर अपनी बात मनवाने के लिए अनशन करने जैसे प्रसंगों की चर्चा करते हुए गांधीजी के लोकतंत्र प्रेम पर प्रश्नचिन्ह  लगाते हैं। कुछ विचारक उनके व्यवहार को तानाशाही पूर्ण अथवा मनमाना भी घोषित करते थे जबकि दीनदयाल जी का स्पष्ट मत था, ‘हम लोकतंत्र के पक्षधर हैं लेकिन जब राष्ट्रहित और लोकतंत्र में एक को चुनने का प्रश्न आया तो हम कष्ट सहकर भी राष्ट्रहित को ही चुनेंगे।’


यह भी दुर्योग  है कि दोनों महापुरुषों की अकाल मृत्यु हुई। गांधी जी की हत्या दिल्ली के बिड़ला भवन में तो 11 फ़रवरी 1968 को दीनदयाल जी का शव मुगलसराय जंक्शन के प्लेटफार्म नंबर एक के पश्चिमी छोर पर एक खंभे के पास मिला था। दोनों का पंच भौतिक शरीर नहीं रहा लेकिन उनके विचार अमर हैं। समाज और राष्ट्र में उन्हें प्राप्त श्रद्धा और सम्मान दुर्लभ है। यह बात अलग है समय-समय पर शोधार्थी अपने ढंग से उनके विचारों का मूल्यांकन करते रहे हैं। दीनदयाल जी की सहजता, सरलता, शुचिता सभी के लिए प्रेरक है। भारत को विश्व शिखर पर स्थापित करने का स्वप्न देखने वालों के लिए दीनदयाल जी जैसे अजातशत्रु, संत राजनीतिज्ञ, मौलिक चिंतक द्वारा दिखाया मार्ग श्रेष्ठ विकल्प है।

जो लोग दीनदयाल जी को ‘भाजपा के गांधी’ घोषित करते हैं, उनकी भावनाओं का सम्मान करते हुए स्मरण कराना चाहूंगा कि दीनदयाल जी ने अपने दल को किसी परिवार या वंश का बंधक नहीं बनने दिया। यह दीनदयाल जी जैसे संगठक की साधना के पुण्य का प्रतिफल है कि सर्वत्र राजनीतिक गिरावट के वर्तमान दौर में भी उस दल का कोई साधारण कार्यकर्ता भी सर्वोच्च  पद पर आसीन हो सकता है। देश और लोकतंत्र के हित में आज की कांग्रेस को भी वंशवाद से मुक्त लेकिन दीनदयाल सरीखा नेतृत्व चाहिए जो उसके सुयोग्य कार्यकर्ताओं के सम्मान का मार्ग प्रशस्त करे। वोट बैंक की राजनीति और तुष्टीकरण नहीं, जनहित राष्ट्रहित को प्राथमिकता देते हुए ऐतिहासिक कांग्रेस को फिर से लोकप्रिय बनाने के लिए कार्य करें। 1978 में चौधरी चरण सिंह जी की जिद के कारण कुछ दिन जेल रहने के बाद जब इंदिरा जी लंदन गई. वहाँ उनसे एक पत्रकार ने उनके जेल अनुभव के बारे में पूछा तो इंदिरा जी ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि वह देश से बाहर देश के सम्मान को कम करने वाली कोई बात नहीं कहेगी परंतु आज का अनुभवहीन असक्षम नेतृत्व विदेश जाकर सरकार की आलोचना को देश के अपमान का रंग देने की हद तक पहुंच जाता है । शायद महात्मा गांधी को इस स्थिति का अहसास हो गया था इसीलिए उन्होंने स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस को भंग करने का सुझाव दिया था।

डा. विनोद बब्बर

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