सरकार व पूर्व न्यायाधीश की मंशा पर सवाल अनुचित?

प्रमोद भार्गव

सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) रंजन गोगोई को राज्यसभा में मनोनीत किए जाने पर न्यायापालिका के परिप्रेक्ष्य में नैतिकता के सवाल उठ खड़े हुए हैं। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने गोगोई को मनोनीत किया है। राष्ट्रपति को उच्च सदन राज्यसभा में 12 सदस्य मनोनीत करने का संवैधानिक अधिकार है। इस सदन में कुल 245 सदस्य होते हैं। संविधान निर्माताओं ने उच्च सदन में मनोनयन का प्रबंध इस पवित्र उद्देश्य से किया था कि ऐसे विषयों के विशेषज्ञों को राज्यसभा में भेजा जा सकता है, जो चुनाव प्रक्रिया के माध्यम से इस सदन में नहीं पहुंच पाते हैं। इस लक्ष्यपूर्ति के लिए कला, संस्कृति, साहित्य, विज्ञान और समाजसेवा के क्षेत्रों से जुड़ी ऐसी प्रतिभाओं को राज्यसभा के मंच पर लाना था, जिनके विचार एवं ज्ञान का उपयोग देशहित में किया जा सके। इस नाते एक समय तक लब्ध-प्रतिष्ठित लेखक एवं विचारकों को सदन में भेजा भी जाता रहा है। रामधारी सिंह दिनकर ऐसे लोगों में रहे हैं लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब शराब माफिया विजय माल्या को भी इस सदन का भागीदार बना दिया गया था। ऐसे लोगों से ही सदन की गरिमा प्रभावित हुई है। न्यायिक क्षेत्र से रंजन गोगोई कोई पहली बार राज्यसभा में मनोनीत किए गए हों, ऐसा नहीं। उनके पहले भी अनेक पूर्व प्रधान न्यायाधीशों को सरकारों द्वारा राज्यसभा व आयोगों में मनोनीत किया जाता रहा है। गोया, उनके मनोनयन पर प्रश्न खड़े करना अनुचित है। गोगोई ने कहा है, ‘संसद में मेरी उपस्थिति राष्ट्र निर्माण के लिए विधायिका एवं न्यायपालिका के बीच बेहतर सामंजस्य बिठाने की पहल करेगी।‘ बहरहाल, वर्तमान में न्यायपालिका और विधायिका के बीच अतिरिक्त हस्तक्षेप व सक्रियता के जो मसले उछलते हैं, उनमें यदि गोगोई तालमेल की किसी प्रकार की अहम् भूमिका का निर्वाह कर पाते हैं तो यह वास्तव में राष्ट्र के लिए लाभदायी होगा। 

यह बहस लंबे समय से चल रही है कि न्यायिक पदों से सेवानिवृत्त हुए लोगों की नियुक्ति या मनोनयन किसी लाभदायी पद पर नहीं की जाए? गोगोई ने स्वयं सीजेआई रहते हुए एक मामले में यह टिप्पणी की थी कि ‘सेवानिवृत्ति के बाद किसी पद पर जजों की नियुक्ति अथवा मनोनयन नहीं होना चाहिए। इससे स्वतंत्र न्यायपालिका पर सवाल खड़े होते हैं।‘ लेकिन फिलहाल कथनी और करनी में भेद की कहावत उन्हीं पर चरितार्थ हो रही है। दरअसल उनके इस मनोनयन को राममंदिर, सबरीवाला मंदिर और राफेल सहित कई ऐतिहासिक फैसलों के परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है। इसलिए इस मनोनयन पर नरेंद्र मोदी सरकार के साथ-साथ गोगोई की आलोचना भी होने लगी है। कांग्रेस सांसद एवं प्रसिद्ध वकील कपिल सिब्बल ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा है कि ‘न्यायमूर्ति गोगोई राज्यसभा जाने की खातिर सरकार के साथ खड़े होने और स्वयं की ईमानदारी के साथ समझौता करने के लिए याद किए जाएंगे।‘ कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने अपने ट्विट पर कहा कि ‘अब न्यायापालिका पर जनता का विश्वास कम होता जा रहा है।‘ कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने तो नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नारे ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा‘ की तर्ज पर यहां तक कह दिया कि ‘तुम मेरे हक में वैचारिक फैसला दो, मैं तुम्हें राज्यसभा सीट दूंगा।‘

कांग्रेस के ये नेता अपने ही दल के इतिहास में नहीं झांक रहे हैं। कांग्रेस ने बहरूल इस्लाम, हिदायतुल्लाह, एम फातिमा रंगनाथ मिश्र, केजी बालकृष्णन और पी. सदाशिव जैसे पूर्व न्यायाधीशों को इसी तर्ज पर राज्यसभा में या तो मनोनयन किया या फिर निर्वाचित कराकर भेजा। इसलिए कांग्रेस को अपनी अतंरआत्मा में भी झांकने की जरूरत है। बहरूल इस्लाम जब सुप्रीम कोर्ट में वकालात करते थे, तब उन्हें 1962 में पहली बार और दूसरी बार 1968 में कांग्रेस ने राज्यसभा में भेजा। दूसरा कार्यकाल पूरा करने से पहले ही उन्हें असम और नागालैंड उच्च न्यायालय का जज बना दिया गया। इसे ही वर्तमान में गुवाहाटी हाईकोर्ट के नाम से जानते हैं। पदोन्नति के बाद 1983 में उन्हें सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्ति मिलते ही कांग्रेस ने फिर राज्यसभा में भेज दिया। उन्होंने ही बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा को एक जालसाजी के मामले में बरी किया था। उनके तीसरे मनोनयन को इसी फैसले से जोड़कर देखा गया था। 25 फरवरी 1968 से 16 दिसंबर 1970 तक सीजेआई रहे हिदायतुल्लाह को सेवानिवृत्ति के बाद कांग्रेसी अनुकंपा के चलते उपराष्ट्रपति बना दिया गया था। मालूम हो, संविधान के अनुसार उपराष्ट्रपति ही राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं।

सीजेआई रंगनाथ मिश्रा को 1998 में सेवानिवृत्ति के बाद राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया था। 31 अक्टूबर 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या के बाद पूरे देश में सिख विरोधी दंगे पूरे भड़के थे। इन दंगों में करीब 3000 सिख मार दिए गए। यह घटना देश की सबसे बड़ी माॅब लीचिंग थी। इस घटना की जांच के लिए 26 अप्रैल 1985 को राजीव गांधी की सरकार ने न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा की अध्यक्षता में एक सदस्यीय जांच आयोग बनाया। इस आयोग ने फरवरी 1987 में अपनी रिपोर्ट सरकार को पेश कर दी थी। चूंकि इन दंगों में दिग्गज कांग्रेसी अपराधियों की भूमिका थी इसलिए रिपोर्ट में इन कांग्रेसियों को एक तरह से दोषमुक्त करने का काम कर दिया था। इसी के प्रतिफल में उन्हें राज्यसभा पद से अलंकृत किया गया था। कांग्रेस ने मुसलमानों को वोटबैंक मानते हुए इनकी आर्थिक व शैक्षिक स्थिति जानने के लिए रंगनाथ मिश्रा आयोग बनाया था। 2007 में जब यूपीए सरकार में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, तब इस आयोग की रिपोर्ट आई। रिपोर्ट में आयोग ने सिफारिश की थी कि अल्पसंख्यकों को केंद्र व राज्य सरकार की नौकरियों एवं शैक्षिक संस्थाओं में 15 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए। इसमें भी 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी केवल मुसलमानों की हो। इसी तरह की सिफारिश सच्चर समिति की रिपोर्ट में की गई थी। लेकिन संविधान में धार्मिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था नहीं है इसलिए मनमोहन सिंह सरकार इन रिपोर्टों पर अमल नहीं कर पाई।

सीजेआई बालकृष्णन जब सेवानिवृत्त हुए थे, तब उन्होंने अपने विदाई समारोह में कहा था कि ‘सेवानिवृत्त के बाद न्यायाधीशों को कोई जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए और राजनीति से दूर रहना चाहिए।‘ लेकिन अपने प्रभुत्व का इस्तेमाल कर जब वे 2009 में सेवानिवृत्त हुए तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष बन गए। हालांकि इस नियुक्ति पर उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, ‘मुझसे इस मामले में संपर्क नहीं किया गया।‘ यदि यह नियुक्ति उनकी मंशा के विरुद्ध थी तो उन्हें पद को स्वीकार करने की जरूरत ही क्या थी? जबकि यह पद एक साल से खाली पड़ा था। हालांकि संविधान में ऐसा प्रावधान है कि भारत के पूर्व न्यायाधीश इस आयोग के अध्यक्ष बन सकते हैं। बालकृष्णन देश के पहले दलित सीजेआई थे। उन्होंने 1968 में केरल में रहते हुए वकालत की और सीजेआई जैसे अहम पद पर पहुंचे। महिला सीजेआई एम फातिमा को तमिलनाडु और 2014 में पी. सदाशिव को केरल का राज्यपाल बनाया गया था।

इन सबके बावजूद यह सत्य है कि भारतीय गणतंत्र की उम्र बढ़ने के साथ-साथ लोकतंत्र के सभी पायों में सुधार की जरूरत महसूस की जा रही है, क्योंकि संविधान में अनुच्छेदों की परिभाषाओं में अलिखित ऐसे सिद्धांत अंतर्निहित हैं, जो व्यक्ति के नैतिक बल से नियंत्रित होते है। इसीलिए स्वयं न्यायपालिका के भीतर से भी सुधार के स्वर उभरते रहते हैं। तो कई न्यायाधीश जजों की कमी दर्शाकर अदालत की कार्य-संस्कृति में मौजूद छिद्रों को ढंकने का उपक्रम करते नजर आते हैं। अलबत्ता इलाहाबाद उच्च न्यायालय से सेवानिवृत्त न्यायाधीश रंगनाथ पाण्डे ने स्वयं प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर एक तो न्यायापालिका में मौजूद कमियों और लोचों की जानकारी दी थी, दूसरे वे स्वयं सार्वजनिक मंच पर आकर इन कमियों को दूर करने के लिए महात्मा गांधी के दांडी सत्याग्रह की तर्ज पर ‘न्याय सत्याग्रह‘ की पहल करके न्यायिक सुधार के लिए जन-दबाव बनाने की कोशिश में लगे हैं। यह काम वे देश का नागरिक होने और देश का अन्न खाने के दायित्व-बोध से प्रेरित होकर कर रहे हैं। इस सत्याग्रह की बड़ी शुरूआत ग्वालियर के आईटीएम विश्वविद्यालय से हुई थी।

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में यह भी पहली बार हुआ कि सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने पत्रकार वार्ता आयोजित कर अपना असंतोष सार्वजनिक किया था। आमतौर से ऐसा देखने में नहीं आया है कि न्यायालय के भीतर हुए किसी पक्षपातपूर्ण व्यवहार के परिप्रेक्ष्य में कुछ न्यायाधीशों को लोकतंत्र की रक्षा की गुहार लगाते हुए मीडिया को हथियार बनाने की जरूरत आन पड़ी हो? न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन बी लोकुर और कुरियन जोसेफ ने सीधे-सीधे शीर्ष न्यायालय के तत्कालीन सीजेआई दीपक मिश्रा पर ऊंगली उठाई थी। इस मौके पर जज चेलमेश्वर ने कहा था कि हम चारों इस बात पर सहमत हैं कि इस संस्थान को बचाया नहीं गया तो देश का लोकतंत्र जिंदा नहीं रह पाएगा? जबकि स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायापालिका भारतीय संवैधानिक व्यवस्था की रीढ़ है। लेकिन मंशाओं पर सवाल तो बार-बार उठाए जाते रहे हैं, सुधार के लिए आजादी के बाद से अबतक कोई ठोस पहल दिखाई नहीं दी है।

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