समाज

जातिवादी संघर्ष की ‘जड़ों’ पर होना चाहिए प्रहार

‘म्हारा नंबर वन हरियाणा-जहां दूध-दही का खाना’ – जैसा गौरवपूर्ण गुणगान करने वाला हरियाणा राय भी कभी-कभी जातिवाद तथा वर्गवाद जैसे दुर्भाग्यपूर्ण संघर्ष की खबरों के कारण सुख़ियों में आ जाता है। पिछले दिनों राय के हांसी उपमंडल के मिर्चपुर गांव में एक बार फिर दलित समुदाय के लोगों को तथाकथित उच्चजाति के लोगों के हिंसक रोष का सामना करना पड़ा। परिणामस्वरूप वही हुआ जो आमतौर पर दलित समाज के साथ अब तक होता आ रहा है। अर्थात् दलित बस्ती के दर्जनों मकानों में बलशाली लोगों द्वारा आग लगा दी गई। अगि्कांड की इस घटना में एक अट्ठारह वर्षीय अपाहिज दलित कन्या की केवल इसलिए जलकर मृत्यु हो गई क्योंकि वह असहाय कन्या शारीरिक रूप से अपनी जान बचा पाने में सक्षम नहीं थी। उस अभागी कन्या के पिता ने अपनी बच्ची को बचाने की कोशिश की। परिणामस्वरूप बच्ची तो नहीं बच सकी जबकि पिता स्वयं बुरी तरह आग से झुलस गया। बाद में अस्पताल में उसकी भी मृत्यु हो गई। बताया जा रहा है कि इस सारे विवाद की जड़ मात्र एक भौंकते हुए कुत्ते को ईंट मारना थी। कुत्ते को ईंट मारना या इस प्रकार की अन्य छोटी-मोटी घटनाओं का सहारा लेना तो दरअसल एक बहाना मात्र ही कहा जा सकता है। वास्तकिता तो यही है कि ऐसे जातिवाद व वर्गवादपूर्ण संघर्ष की सीख तो हमारे समाज को हमारे ही प्राचीन धार्मिक संस्कारों से प्राप्त होती आ रही है।

मिर्चपुर कांड हरियाणा राय की कोई पहली या इकलौती नई घटना नहीं है। इससे पूर्व भी हरियाणा राय में कई ऐसी बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं जिनमें दलित समाज के लोगों को तथाकथित उच्चजाति के लोगों के हिंसक रोष का सामना करना पड़ा है। नतीजतन जान व माल का भारी नुंकसान हुआ है तथा दलित बस्तियों में आगा भी लगाई जा चुकी है। ऐसी घटनाओं से पीड़ित परिवार अपने घरों को राख के ढेर में बदलते देखकर डरे-सहमे हुए अपने पुश्तैनी मकानों को छोड़कर अन्यत्र जाने को भी कई बार विवश हो चुके हैं। बार-बार होने वाले ऐसे जाति आधारित संघर्ष को क्या एक घटना मात्र समझकर तथा उसके तात्कालिक उपाय या समाधान निकाल लेने पर हम इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि भविष्य में किसी स्थान पर अथवा किसी जाति विशेष के साथ अब कोई संघर्ष भविष्य में नहीं होगा? नहीं, शायद ऐसा हरगिज नहीं है। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद पीड़ित परिवारों की सहायता करना, उनके पुनर्वास का प्रबंध करना तथा उन्हें सुरक्षा प्रदान करना निश्चित रूप से सरकार की जिम्मेदारी है। परंतु इस प्रकार की सहायता को केवल अस्थायी उपाय ही कहा जा सकता है। ऐसे उपाय तो समस्यारूपी ‘पत्तों’ को सांफ करने जैसा मात्र है।

दरअसल हमारे भारतीय समाज को बड़ी गंभीरता से इस समस्या पर गंभीर चिंतन करना चाहिए कि आंखिर सहिष्णुता के क्षेत्र में दुनिया में अपनी अलग पहचान रखने वाला भारत वर्ष किन प्राचीन किस्से-कहानियों तथा धर्मग्रंथों के चलते जाति तथा वर्गवाद आधारित विषमताओं का सामना अब तक करता चला आ रहा है। हमें इस बात पर भी बहुत गंभीरता से गौर करना होगा कि ऐसे जातिवादी संघर्षों ने आख़िर अब तक हमें, हमारे समाज को तथा विशेषकर देश की प्रगति तथा विकास को क्या कुछ दिया है और यह भी कि इन विषमताओं तथा विडंबनाओं ने अब तक हमसे लिया क्या है? भले ही देश के लगभग सभी राजनैतिक दल स्वयं को दलितों का मसीहा क्यों न बताते आ रहे हों परंतु ऐसे सभी राजनैतिक दलों के इन दावों की तभी पोल खुलने लगती है जब देश के किसी भी भाग से कभी दलित बस्तियों में आग लगाने का समाचार प्राप्त होता है तो कभी देश के किसी राय से ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण ख़बर मिलती है कि किसी दूल्हे को सिंर्फ इसलिए घोड़ी पर नहीं बैठने दिया गया क्योंकि वह ‘दुर्भाग्यशाली’ युवक दलित समाज का सदस्य है। देश की आजादी के 63 वर्ष बीत चुके हैं। परंतु जाति आधारित संघर्ष का यह सिलसिला ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। हां इन 63 वर्षों के दौरान इतना ारूर हुआ है कि दलितों को संरक्षण के नाम पर तथा इन्हें पूर्ण सुरक्षा दिए जाने व इनके ‘खोए आत्मसम्मान’ को वापस दिलाए जाने के नाम पर इसी समाज के कई नेता अवश्य राजनैतिक तौर पर स्थापित हो गए हैं।

उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश की सत्तारुढ़ बहुजन समाज पार्टी भी दलितों के आत्मसम्मान को वापस दिलाने के नाम पर अस्तित्व में आई। परंतु इसके बाद क्या अब उत्तर प्रदेश में दलितों पर होने वाले अत्याचारों में कोई कमी आई है? क्या राय से दलित उत्पीड़न का अब कोई समाचार प्राप्त नहीं होता? क्या उत्तर प्रदेश के तथाकथित उच्च जाति के लोगों ने दलित समाज के लोगों के साथ बराबर से बैठना-उठना,लेना-देना तथा खाना-पीना शुरु कर दिया है? कतई नहीं। निश्चित रूप से देश में दलितों के साथ निरंतर हो रहे अत्याचार व उत्पीड़न ने मायावती जैसे और भी कुछ नेता ऐसे अवश्य स्थापित कर दिए हैं जो दलित समाज को यह बताते हैं कि दलित समाज के सदस्य होने के नाते उनकी समस्याओं को केवल वही समझ सकते हैं तथा उनका समाधान भी केवल उन्हीं के पास है। और ऐसे नेता कांफी हद तक अपने समाज को अपने साथ जोड़ पाने में भी सफल हो जाते हैं। मायावती का बढ़ता हुआ राजनैतिक क़द इस बात का स्पष्ट प्रमाण भी है। परंतु क्या मायावती या इन जैसे अन्य कुछ और दलित नेताओं के क़द्दावर होने के बाद दलितों को उनकी समस्याओं से छुटकारा मिल सका है?

हां, यदि दलितों को संगठित करने के नाम पर कुछ बदला है तो वह इनके नेताओं का अपना रहन-सहन, इनकी अपनी आर्थिक हैसियत, इनके अपने बैंक बैंलेंस तथा इनकी अपनी संपत्तियां। गोया हम कह सकते हैं कि दलित समाज को यदि देश के अन्य तमाम राष्ट्रीय व क्षेत्रीय राजनैतिक दलों ने पूर्ण सुरक्षा मुहैया कराने में सफलता प्राप्त नहीं की तो मात्र दलितों के नाम पर स्थापित होने वाले राजनैतिक दल भी ऐसा कर पाने में पूरी तरह असफल रहे हैं। हां ऐसे राजनैतिक दलों के स्थापित होने से समाज में जाति आधारित राजनीति की सोच और अधिक प्रबल अवश्य हुई है, जिसके परिणामस्वरूप हम कह सकते हैं कि जाति तथा वर्ग आधारित विद्वेष तथा नंफरत कम होने के बजाए और अधिक बढ़ी है। नतीजतन देश के कई रायों से दलित उत्पीड़न के समाचार आज भी निरंतर प्राप्त होते रहते हैं।

दरअसल हमें अपनी अंर्तात्मा से यह महसूस करना ही होगा कि चाहे वे दलित समाज के सदस्य हों या अन्य किसी समुदाय या संप्रदाय के लोग। प्रत्येक भारतवासी हमारे ही देश,हमारी व्यवस्था, हमारे समाज का एक उसी प्रकार का अभिन्न अंग है जैसे कि हमारे शरीर के अलग-अलग भाग। जिस प्रकार से भले ही शरीर के विभिन्न भागों को हमने स्वयं अलग-अलग स्तर पर क्यों न मान्यता व स्वीकार्यता प्रदान कर रखी हो। परंतु यह एक शाश्वत सत्य है कि शरीर के किसी भी छोटे से अंग का अपना अलग महत्व है तथा इनमें से किसी भी एक के पीड़ित या प्रभावित होने से हमारा पूरा शरीर पीड़ा महसूस करता है। तथा उस अंग विशेष की पीड़ा हमें यह एहसास भी दिलाती है कि स्वस्थ शरीर के लिए शरीर के सभी अंगों का स्वस्थ होना अत्यंत आवश्यक है। ठीक उसी प्रकार स्वस्थ समाज के लिए देश के सभी समुदायों, संप्रदायों, जातियों व वर्गों में आपसी तालमेल, परस्पर सहयोग, सहायता तथा परस्पर संरक्षण की भावना का होना भी बेहद जरूरी है। हमें अपने शास्त्रों के उन श्लोकों पर अब पुनर्विचार करना चाहिए तथा उनकी पुन: व्याख्या करनी चाहिए जो सदियों से हमें अन्यायपूर्ण पाठ पढ़ाते आ रहे हैं कि – ढोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥

हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारे ही शास्त्रों की ऐसी तथा इस प्रकार की तमाम अन्य विद्वेषपूर्ण शिक्षाओं ने ही हमारे समाज में जाति आधारित मतभेदों को सींचा है तथा बढ़ावा दिया है। यदि हम भगवान राम के वास्तव में भक्त हैं तथा उनके आदर्शों व उनकी प्रेरणा का अनुसरण करना चाहते हैं तो सांप्रदायिकता तथा जातिवाद से उबरकर हमें दलितों को वैसा ही सम्मान देना होगा जैसाकि स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने भगवान बाल्मीकि के आश्रम में जाकर उनके साथ उठ बैठ कर, उनका भोजन स्वीकार कर दिया था। हमें भगवान राम तथा शबरी के किस्से को भी मात्र कहानी समझकर पढ़कर छोड़ नहीं देना चाहिए बल्कि उससे सबंक लेते हुए जाति आधारित सद्भाव की आज भी वैसी ही मिसाल पेश करनी चाहिए।

मिर्चपुर कांड से प्रभावित दलित पीड़ितों को हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने पर्याप्त सहायता देने की सराहनीय घोषणा की है। इसके अंतर्गत मृतकों के परिजनों को 10-10 लाख रुपये का मुआवजा तथा रोजगार दिए जाने का वादा किया है। इसके अतिरिक्त घायलों को 25-25 हजार रुपये के अतिरिक्त नि:शुल्क इलाज कराए जाने की भी घोषणा की है। हुड्डा ने मिर्चपुर में जलाए गए तथा क्षतिग्रस्त हुए मकानों व उनमें रखे घरेलू सामानों की सौ फीसदी भरपाई किए जाने का भी एलान किया है। इसके अतिरिक्त पीड़ित परिवारों को दो-दो क्विंटल गेहूं देने तथा गांव के दलितों को पूर्ण सुरक्षा मुहैया कराने का भी भरोसा दिलाया है। हुड्डा ने शांति व्यवस्था कायम होने तक गांव में 24 घंटे पुलिस बटालियन तैनात रखने तथा दोषी व्यक्तियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई किए जाने की बात भी कही है। परंतु इन शासकीय सहायता तथा उपायों से संभव है कि पीड़ित परिवारों के आंसू आंशिक रूप से कुछ समय के लिए अवश्य पोंछे जाएं। परंतु ऐसी समस्याओं का स्थायी समाधान तभी संभव है जब हम इनकी जड़ों को पहचानें तथा उनपर सीधा प्रहार करें। और जो शक्तियां उन वास्तविक जड़ों को पहचान कर भी पहचानने से इंकार करें हमें समझ लेना चाहिए कि समस्याओं की असली जड़ वही तांकतें हैं और तब ज़रूरत होगी देश के सभी राजनैतिक दलों तथा समाज के लोगों को उन शक्तियों से लड़ने की जो ऐसे जातिवादी संघर्षों को बढ़ावा देती हैं तथा समय- समय पर इन्हें प्रश्रय देती रहती हैं।

-निर्मल रानी