राहुल बाबा कोरे महान् बनने का नाटक न करो

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-ललित गर्ग-
महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ हल्ला बोल कांग्रेस रैली अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने एवं अपनी लगातार कम होती राजनीति ताकत को पाने का जरिया मात्र है। इस रैली में अपनी ताकत दिखाने की दृष्टि से तो काफी हद तक कांग्रेस सफल रही, लेकिन यह कहना कठिन है कि इस प्रदर्शन से वह अपनी राजनीतिक अहमियत बढ़ा सकेगी। यह रैली एक ओर कारण से भी आयोजित हुई है और वह है राहुल गांधी की पार्टी में आम-स्वीकार्यता का वातावरण बनाना। इस दृष्टि से रैली कितनी सफल हुई, यह वक्त ही बतायेगा। इतना तय है कि कांग्रेस पार्टी अपनी तमाम गलतियों एवं नाकामयाबियों से कोई सीख लेती हुई नहीं दिख रही है।
इस रैली के माध्यम से राहुल गांधी को एक ताकतवर नेता के रूप में प्रस्तुति देने के तमाम प्रयास किये गये। यही कारण है कि इस रैली में सबकी निगाहें इस बात पर लगी थीं कि राहुल गांधी क्या कहते हैं, क्या नया करते है, क्या अनूठा एवं विलक्षण करते हुए स्वयं को सक्षम नेतृत्व के लिये प्रस्तुत करते हैं। वे किन वक्ताओं को बोलने का अवसर देते है? राहुल गांधी ने अपने चिर-परिचित अंदाज में रैली को संबोधित किया, लेकिन उनके भाषण में ऐसी कोई नई बात नहीं थी जिसे वह पहले न कहते रहे हों। सदैव की तरह उन्होंने महंगाई और बेरोजगारी के साथ अन्य अनेक समस्याओं के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जिम्मेदार ठहराया और यह पुराना आरोप नए सिरे से दोहराया कि वह चंद उद्यमियों के लिए काम कर रहे हैं। इतना सब करते हुए यही प्रतीत हुआ कि अपने स्वार्थ हेतु, प्रतिष्ठा हेतु, आंकड़ों की ओट में राहुल-नेतृत्व झूठा श्रेय लेता रहा और भीड़ आरती उतारती रही। कांग्रेस की आज विडम्बना है कि सभी राहुल की बातें मानें और जिसकी प्रशस्ति गायें, लेकिन यह नेतृत्व की सबसे कमजोर कड़ी है, जहां सत्य को सत्य कहने का साहस न हो।
कांग्रेस एवं राहुल वास्तव में महंगाई एवं बेरोजगारी के खिलाफ आवाज बुलन्द करना ही चाहते हैं तो ठोस तथ्य प्रस्तुत करते, इन समस्याओं के निवारण का कोई रोड-मेप प्रस्तुत करते। सचाई यह है कि विगत आठ वर्षों के दौरान प्रधानमंत्री ने महंगाई के कारकों पर कड़ी निगाह रखी क्योंकि महंगाई सबसे ज्यादा गरीबों को प्रभावित करती है। जब प्रधानमंत्री ने काम संभाला तो भारतीय अर्थव्यवस्था उच्च इन्फ्लेशन के दौर से गुजर रही थी। परंतु उनके मार्गदर्शन में यह इन्फ्लेशन सफलतापूर्वक छह प्रतिशत से नीचे आया। विकास का एक नया चरण शुरू करने के लिए जब 2019 में अर्थव्यवस्था सुधरने लगी तब तक दुनिया 2020 में कोविड वैश्विक महामारी की चपेट में आ गई थी। भारत को भी गंभीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। मोबिलिटी में अवरोध उत्पन्न हुए, सप्लाई चेन बाधित हुई, स्वास्थ्य प्रणाली ने भी नई चुनौतियों को देखा। वर्ष 2020 में, प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भरता के विजन पर केंद्रित, एक नए भारत के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। यह सुनिश्चित करने पर ध्यान दिया कि सदी की इस सबसे भीषण महामारी के दौरान कोई भी परिवार भूखा न रहे। और साथ ही, उन्होंने अर्थव्यवस्था के लिए एक नया निवेश चक्र शुरू किया। क्या राहुल गांधी के पास है इन बातों का कोई जबाव।
हल्ला बोल रैली के जरिये कांग्रेस ने शक्ति प्रदर्शन अवश्य किया, लेकिन वह एकजुटता का प्रदर्शन करने में नाकाम रही। इस रैली में भूपेंद्र सिंह हुड्डा को छोड़कर उन नेताओं को कोई प्राथमिकता नहीं दी गई जो पार्टी के संचालन के तौर-तरीकों को लेकर लंबे अर्से से सवाल उठाते आ रहे हैं और इन दिनों अध्यक्ष पद के चुनाव में पारदर्शिता की मांग कर रहे हैं। इस रैली ने यह भी स्पष्ट किया कि कांग्रेस नेता राहुल को ही नेतृत्व सौंपने पर जोर दे रहे हैं। पता नहीं राहुल अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ेंगे या नहीं, लेकिन यदि वह नहीं भी लड़ते तो आसार इसी के हैं कि नेतृत्व गांधी परिवार के पसंदीदा नेता को ही मिलेगा। जब यही सब होना है तो क्यों बिन वजह की एक्सरसाइज की जा रही है। कांग्रेस को नेतृत्व की प्रारंभिक परिभाषा से परिचित होने की जरूरत है। नेतृत्व की पुरानी परिभाषा थी, ”सबको साथ लेकर चलना, निर्णय लेने की क्षमता, समस्या का सही समाधान, कथनी-करनी की समानता, लोगांे का विश्वास, दूरदर्शिता, कल्पनाशीलता और सृजनशीलता।“ इन शब्दों को तो कांग्रेस ने किताबों में डालकर अलमारियों में रख दिया गया है।
कहना कठिन है कि राहुल की बातों से आम जनता कितना प्रभावित होगी, लेकिन इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि महंगाई और बेरोजगारी सरीखी समस्याएं सिर उठाए हुए हैं। पता नहीं सरकार इन समस्याओं पर कब तक नियंत्रण पाएगी, लेकिन आम जनता यह जान-समझ रही है कि ये वे समस्याएं हैं जिनसे देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया जूझ रही है। बेहतर होता कि प्रमुख विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस इन समस्याओं के समाधान पर भी चर्चा करती, लेकिन वह यह काम न तो संसद में कर रही है और न ही संसद के बाहर। हम स्वर्ग को जमीन पर नहीं उतार सकते, पर बुराइयों से तो लड़ अवश्य सकते हैं, यह लोकभावना कांग्रेस में जागे। महानता की लोरियाँ गाने से किसी भी राजनीतिक दल एवं उसके नेता का भाग्य नहीं बदलता, बल्कि तन्द्रा आती है। इसे तो जगाना होगा, भैरवी गाकर। महानता को सिर्फ छूने का प्रयास जिसने किया वह स्वयं बौना हो गया और जिसने संकल्पित होकर स्वयं को ऊंचा उठाया, महानता उसके लिए स्वयं झुकी है। राहुल बाबा कोरे महान् बनने का नाटक न करो, महान बनने जैसे काम भी करो।
हमें गुलाम बनाने वाले सदैव विदेशी नहीं होते। अपने ही समाज का एक वर्ग दूसरे को गुलाम बनाता है- शोषण करता है। इसी मानसिकता से मुक्ति दिलाने के लिये ही नरेन्द्र मोदी ने सुशासन और विकास केंद्रित गुजरात मॉडल में ‘निवेश’ को विकास के वाहन के रूप में सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया था। गुजरात का उनका अनुभव और वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं में विकास के चरणों की उनकी गहरी समझ ने देश में मैन्युफैक्चरिंग, खनन, आवास और इंफ्रास्ट्रक्चर में नए निवेश कार्यक्रमों को आकार दिया। अर्थव्यवस्था के ये तीन क्षेत्र रोजगार के सबसे बड़े सृजक हैं। अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र की ग्रोथ भी इन क्षेत्रों के विकास पर ही निर्भर है। ‘मेक इन इंडिया’ जैसी पहल के सफल परिणाम अब विश्वभर में माने जा रहे हैं। भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मोबाइल निर्माता बन गया है। इतना ही नहीं, दस साल पहले जो इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग नगण्य था, वह आज बढ़कर लगभग 80 बिलियन अमरीकी डॉलर का हो गया। भारत का निर्यात लैंडमार्क 600 बिलियन अमरीकी डॉलर को पार कर चुका है।
कांग्रेस को चाहिए कि वह हल्ला बोल रैली जैसे आयोजनों के साथ जनता की वास्तविक समस्याओं को जोड़े, केवल राजनीति करने के लिये हल्ला बोल का सहारा न लें। जनता सब समझती है। देश हर दिन नयी-नयी उपलब्धियों एवं खुशियों से रु-ब-रु हो रहा है। जमीन से आसमान तक हर जरूरतों को देश में ही निर्मित किया जाने लगा है। यह देश के लिए बड़ी खुशखबरी है कि भारतीय नौसेना को पहला स्वदेशी विमानवाहक पोत भी मिल गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में केरल तट पर विशाल पोत आईएनएस विक्रांत भारत की आन-बान-शान में शुमार हो गया। इसी के साथ आजादी के अमृत महोत्सव मनाते हुए हमने अनेक गुलामी की निशानियों को भी समाप्त कर दिया है। यह अतिरिक्त खुशी की बात है कि नौसेना का ध्वज न केवल बदल गया है, बल्कि अब उस पर शिवाजी की छाप दिखने लगी है। हालांकि, यह अफसोस की बात है कि गुलामी के दौर के अंत के इतने वर्ष बाद भी नौसेना के झंडे में अंग्रेजों का एक प्रतीक चिह्न सेंट जॉर्ज क्रॉस शामिल था। आखिर पूर्व सरकारें गुलामी के इस प्रतीक को क्यों ढोती रहीं? क्या ऐसे ही अनेक शर्मनाक प्रतीक अब भी देश पर लदे हुए हैं? नए भारत में गुलाम भारत की कोई चीज बची न रहे, यह सुनिश्चित करना चाहिए। बेशक, आईएनएस विक्रांत का पदार्पण एक आगाज होना चाहिए। भारत में सामरिक निर्माण विकास में तेजी लाने की जरूरत है। भारत जिस तरह से चुनौतियों से घिरता जा रहा है, उसमें स्वदेशी तैयारी और जरूरी हो गई है। भारतीयों को रक्षा मामले में सच्चा गौरव तब हासिल होगा, जब हम अपने अधिकतम अस्त्र-शस्त्र, सैन्य साजो-सामान, वाहन स्वयं बनाने लगेंगे। ऐसी बातों पर भी कांग्रेस का ध्यान जाना चाहिए।

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