
राज हर कोई करना है जग चह रहा,
राज उनके समझना कहाँ वश रहा;
राज उनके कहाँ वो है रहना चहा,
साज उनके बजा वह कहाँ पा रहा !
ढ़पली अपनी पै कोई राग हर गा रहा,
भाव जैसा है उर सुर वो दे पा रहा;
ताब आके सुनाए कोई जा रहा,
सुनके सृष्टा सुमन मात्र मुसका रहा !
पद के पंकिल अहं कोई फँसा जा रहा,
उनके पद का मर्म कब वो लख पा रहा;
बाल बन खेल लखते मुरारी रहे,
दुष्टता की वे सारी बयारें सहे !
सृष्टि सारी इशारे से जिनके चले,
सहज होके वे जगती पै क्रीड़ा करे;
जीव गति जान कर तारे उनको चले,
कर विनष्टि वे आत्मा में अमृत ढ़ले !
हर निमिष कर्म करके वे प्रतिपालते,
धर्म अपना धरे वे प्रकृति साधते;
‘मधु’ है उनका समझ कोई कब पा रहा,
अपनी जिह्वा से चख स्वाद बतला रहा !
✍? गोपाल बघेल ‘मधु’