कविता राजनीति

राजीव दुबे की कविता : प्रश्नों के बढ़ते दायरे

प्रश्नों के दायरे बढ़ रहे हैं,

और आवाजें फुसफुसाहटों से कोहराम में बदल रही हैं।

‘कलावती’ का नाम लेकर संसद में तालियाँ तो बज़ गईं,

और ‘कलावती’ को कुछ रुपये भी मिल गये होंगे – सहायता के नाम पर।

अब उसी ‘कलावती’ और उस जैसों के हजारों करोड़ लुट गए दिल्ली की निगरानी में – खेल-खेल में,

और आप चुप हैं राहुल जी।

इसे आपकी नियत का खोट कहें हम, या अयोग्यता का नाम दें,

पर हमें यह न कहिएगा कि यह केवल अफसरों की करामात थी, या कि आप अंजान हैं।

दूरसंचार के घोटालों में भी,

हम बेचारे नागरिक देखते रहे दूर – दूर से ….।

और लुटते रहे हमारे हक के पैसे आपकी सरकार के मंत्रियों की निगरानी में,

अब बैठ जाएगी कोई जाँच और हम करेंगे एक अंतहीन इंतजार।

अब न कहिएगा हमसे कि,

यह तो मनमोहन जी जानें।

सोनिया जी की कितनी ज्यादा चलती है,

यह हम सब – ‘कलावती’ और ‘नत्थू लाल’ – अच्छी तरह से पहचानें।

प्रश्नों के दायरे बढ़ रहे हैं,

और आवाजें कोहराम से नारों में बदल रही हैं।

कारगिल के नाम पर बनी इमारत की नींव के नीचे,

दफन कर दी आपकी सरकार ने सारी नैतिकता सरकार चलाने की, और आप चुप हैं !

महँगाई की मार झेल-झेल कर सुन्न पड़ गई जनता की जीभ,

और आप हैं, कि चले आते हैं तसला लेकर मिट्टी उठाने – बनाने को हमारा मजाक।

अच्छा लगता हमें अगर सस्ती होती दाल,

और मिल जाता दो वक्त थोड़ा प्याज मेहनत का – अपना तसला तो हम खुद भी उठा लेते।

प्रश्नों के दायरे बढ़ रहे हैं,

और आवाजें नारों से आंदोलनों में बदल रही हैं …।