कविता

राकेश उपाध्‍याय की दो कविताएं

1.ईश्वरत्व के नाते मैंने नाता तुमसे जोड़ा…

कल मैंने देखा था तुम्हारी आंखों में प्यार का लहराता समंदर

उफ् कि मैं इन लहरों को छू नहीं सकता, पास जा नहीं सकता।।

कभी-कभी लगता हैं कि इंसान कितना बेबस और लाचार है

सोचता है मन कि आखिर क्यों बढ़ना है आगे, लेकिन कुछ तो है,

जो बार-बार जिगर उस डगर पर ला छोड़ता है उसे जहां कि

मन किसी से कुछ कहने के लिए बार-बार बेताब हो उठता है।

क्यों होता है ऐसा? क्या किसी ने जाना है कि कोई क्योंकर

रोज किसी के सपनों में आता है और मंद-मंद मुस्कानें भरता,

दो पल के लिए रूककर फिर दूर कहीं उड़ता चला जाता है?

सोचो तो बहुत पास है, देखो तो दूर दूर परछाई तक नहीं है।

दिल में तड़पन और एक मीठी सी छुअन किसी अजनबी के प्रति

आखिर क्यों उठ जाती है, जबकि हम जानते हैं कि रास्ते दोनों के,

हमेशा से अलग हैं और आगे भी अलग रहेंगे लेकिन फिर भी

एक ख्याल कौंधता सा है कि हम अलग हैं ही कहां, एक ही तो हैं।

किसी जनम की कोई लौ जलती है, वह लौ फिर से पास आ जाए

तो भला कोई कैसे पहचाने, कैसे जाने कि रिश्ते दोनों के कुछ गहरे हैं,

ये रिश्ते कम से कम वो तो नहीं है जिन्हें दुनियां-जहां ठीक ना समझे

ये तो आम समझ के ऊपर के रिश्ते हैं, कुछ रूमानी हैं तो कुछ रूहानी हैं।

इसीलिए इन आंखों में सदा ही प्यार का समंदर उमड़ता है जिनको मैंने

कल देखा था, उन आंखों में एकटक झांका था तो हूक सी उठी थी दिल में,

क्यों मुझ पर ही सवाल लगा दिया तुमने, क्यों ठुकरा दिया था तुमने जबकि

मैंने तो तुमको अपना ही माना था, कल भी, आज भी, सदा ही, सदा के लिए।

रिश्ते इंसानी ही नहीं है, इंसानी रिश्ते बनते-बिगड़ते हैं लेकिन जो रिश्ते

फरिश्तों ने बनाए, जिनके गीत ह्दय के किसी कोने ने गुनगुनाए और जहां,

शरीर के सुख से ऊपर की कुछ चीज है, जहां ईश्वरत्व की कुछ सीख है

उस रिश्ते से मैंने तुमसे रिश्ता जोड़ा, रूहानी प्यार की खातिर नाता जो़ड़ा।

अपने मन के संगीत को सुनोगे दिल की गहराई से तुम तो शायद

इस गहराई को समझ सकोगे, नहीं तो केवल और केवल संदेहों-

आशंकाओं के गहराते बादलों में ही घूमते रहोगे, नहीं समझ सकोगे

कि क्या सचमुच यह प्यार सच्चा है, मन-ह्दय इसका क्या सीधा-साधा है।

आज भी देखा कि प्यार का समंदर तुम्हारी आंखों में लहरा रहा

काश कि मैं इन लहरों को कहीं तो छू सकता, कहीं तो पा सकता।

2. तुम सुन्दर, सुंदरतम हो…

हाँ सुन्दर हो, तुम सुन्दर

सुन्दरतम रूप तुम्हारा

पर प्यार बिना सुन्दरता क्या

प्यार से निखरे जग सारा…

देखो सुन्दर धरती को

पहन हरीतिमा इठलाती

जीवन में सुन्दरता भरती

हर ऋतु में खूब सुहाती…

लेकिन कुछ मौसम ऐसे आते

लगता है ये कब जल्दी जाएँ

ठंडी, गर्मी घोर पड़े जब

धरती की जब दशा लजाती ….

धरती को भी को पावन करने

प्यार मलय-घन बन आता है

बसंत, शरद औ वर्षा ऋतु सा

वसुधा पर जीवन सरसाता है….

और प्यार की बातें करना

किसको बोलो नहीं है भाता

जीवन की सबकी डोर एक है

प्यार बनाता सबमें नाता…

उस नाते की खातिर सोचो

क्या लेकर यहाँ से जाओगे

यदि जीवन में बांटा प्यार सदा

तो यह प्यार सभी से पाओगे….

प्यार को जानो प्यार को समझो

यह रूप कहीं पर तो रुक जायेगा

ढलने की इसकी रीति पुरानी

ढलते ढलते निश्चित ढल जायेगा….

सुन्दरता यदि दिल में है

तो तुम सुन्दर, सुंदरतम हो

और कहूँ अब क्या मैं तुमसे

तुम धरती हो, तुम अम्बर हो.