विविधा

रामफल सिंह : समरसता के नव संशोधक

– विजय कुमार

अस्पृश्यता, जातिभेद तथा ऊंचनीच हिंदू परंपरा का अंग नहीं हैं। उक्त बीमारियां मुसलमान आक्रांताओं की देन हैं जिन्हें अंग्रेजों ने अपने हित के लिए खूब हवा दी। इस विचार को समाज में स्थापित कर समरसता अभियान को नयी दिशा देने वाले श्री रामफल सिंह का जन्म ग्राम मऊ मयचक (अमरोहा, उ.प्र.) में अगस्त, 1934 में श्री दलसिंह के घर में हुआ था।

अपनी शिक्षा पूर्ण कर वे अध्यापक बन गये। इस दौरान उनका संपर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और श्री अशोक सिंहल से हुआ। संघ से प्रभावित होकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी और प्रचारक बन गये। सहारनपुर, रुड़की, बाराबंकी, फर्रूखाबाद, कानपुर आदि में संघ कार्य करने के बाद उन्हें हिमाचल प्रदेश का संभाग प्रचारक बनाया गया। वहां उन्होंने छह वर्षों तक कार्य किया।

1991 में उन्हें विश्व हिन्दू परिषद के कार्य में भेजा गया। प्रारंभ में वे उ0प्र0 एवं मध्य प्रदेश के संगठन मंत्री रहे। उनकी संगठन क्षमता के कारण श्री रामजन्मभूमि आंदोलन में इन राज्यों के रामभक्तों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। उनके तर्कपूर्ण भाषण युवकों के हृदय उद्वेलित कर देते थे। कुछ वर्ष बाद उन्हें विश्व हिन्दू परिषद का केन्द्रीय मंत्री और सामाजिक समरसता आयाम का प्रमुख बनाकर दिल्ली बुला लिया गया। यह काम कुछ अलग प्रकार का था। निर्धन, निर्बल, वनवासियों, वंचित जातियों, जनजातियों को सेवा कार्य द्वारा समाज की मुख्यधारा में लाना इसका एक पहलू था; पर रामफल जी का ध्यान इसके दूसरे पहलू पर गया और वे इस बारे में शोध व अध्ययन करने लगे।

शोध के दौरान उनके ध्यान में आया कि हिंदू समाज के जिन वर्गों को अस्पृश्य या निम्न माना जाता है वे सब वस्तुतः क्षत्रिय हैं। इन्होंने ही मुगल आक्रमणों को अपने सीने और तलवारों पर झेला था। युद्ध में सफल होकर मुगलों ने व्यापक धर्मांतरण किया। धर्मांतरित लोगों को धन, धरती और दरबार में ऊंचा स्थान दिया गया, पर जिन्होंने किसी भी लालच, भय और दबाव के बावजूद अपना धर्म नहीं छोड़ा, उनके घर, दुकान और खेती की जमीनें छीन ली गयीं। उन्हें मानव मल साफ करने जैसा गंदा काम करने और गांव से बाहर रहने को मजबूर किया गया। सैकड़ों साल तक, पीढ़ी दर पीढ़ी यही काम करते रहने से वे हिंदू समाज की मुख्य धारा से कट गये। उनकी आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक स्थिति खराब हो गयी। लोग उन्हें हीन मानकर उनसे दूर रहने लगे। इसी में से फिर छुआछूत और अस्पृश्यता का जन्म हुआ।

रामफल जी ने इन तथ्यों के आधार पर अनेक पुस्तकें लिखीं। ‘छुआछूत गुलामी की देन है’, आदिवासी या जनजाति नहीं, ‘ये हैं मध्यकालीन स्वतंत्रता सेनानी’, ‘सिद्ध संत गुरू रविदास’, ‘प्रखर राष्ट्रभक्त डॉ. भीमराव अम्बेडकर’, ‘समरसता के सूत्र’, ‘घर के दरवाजे बन्द क्यों’, ‘सोमनाथ से अयोध्या-मथुरा-काशी’ और ‘मध्यकालीन धर्मयोध्दा’ उनकी बहुचर्चित कृतियां हैं। उन्होंने अध्ययनशील लोगों को इस विषय में और अधिक शोध के लिए प्रेरित भी किया।

इसके लिए उन्होंने देश भर में प्रवास कर सभी राज्यों में इन जातियों, जनजातियों के इतिहास को उजागर किया। इससे इन वर्गों का खोया आत्मविश्वास वापस आया। उनमें नयी चेतना जाग्रत हुई तथा कार्यकर्ताओं को बहुत सहयोग मिला। लगातार प्रवास से उनके यकृत (लीवर) में कई तरह के रोग उभर आये। काफी इलाज के बाद भी वे नियंत्रित नहीं हो सके और 9 जून, 2010 को दिल्ली के एक चिकित्सालय में उनका शरीरांत हुआ।

समरसता के काम में उनके मौलिक चिंतन, अध्ययन और शोध से जो नये अध्याय जुड़े वे आज भी सबके लिए दिशा सूचक एवं प्रेरक हैं।

* लेखक समाजसेवी तथा ‘राष्ट्रधर्म’ के सह संपादक रह चुके हैं।