रामफल सिंह : समरसता के नव संशोधक

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– विजय कुमार

अस्पृश्यता, जातिभेद तथा ऊंचनीच हिंदू परंपरा का अंग नहीं हैं। उक्त बीमारियां मुसलमान आक्रांताओं की देन हैं जिन्हें अंग्रेजों ने अपने हित के लिए खूब हवा दी। इस विचार को समाज में स्थापित कर समरसता अभियान को नयी दिशा देने वाले श्री रामफल सिंह का जन्म ग्राम मऊ मयचक (अमरोहा, उ.प्र.) में अगस्त, 1934 में श्री दलसिंह के घर में हुआ था।

अपनी शिक्षा पूर्ण कर वे अध्यापक बन गये। इस दौरान उनका संपर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और श्री अशोक सिंहल से हुआ। संघ से प्रभावित होकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी और प्रचारक बन गये। सहारनपुर, रुड़की, बाराबंकी, फर्रूखाबाद, कानपुर आदि में संघ कार्य करने के बाद उन्हें हिमाचल प्रदेश का संभाग प्रचारक बनाया गया। वहां उन्होंने छह वर्षों तक कार्य किया।

1991 में उन्हें विश्व हिन्दू परिषद के कार्य में भेजा गया। प्रारंभ में वे उ0प्र0 एवं मध्य प्रदेश के संगठन मंत्री रहे। उनकी संगठन क्षमता के कारण श्री रामजन्मभूमि आंदोलन में इन राज्यों के रामभक्तों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। उनके तर्कपूर्ण भाषण युवकों के हृदय उद्वेलित कर देते थे। कुछ वर्ष बाद उन्हें विश्व हिन्दू परिषद का केन्द्रीय मंत्री और सामाजिक समरसता आयाम का प्रमुख बनाकर दिल्ली बुला लिया गया। यह काम कुछ अलग प्रकार का था। निर्धन, निर्बल, वनवासियों, वंचित जातियों, जनजातियों को सेवा कार्य द्वारा समाज की मुख्यधारा में लाना इसका एक पहलू था; पर रामफल जी का ध्यान इसके दूसरे पहलू पर गया और वे इस बारे में शोध व अध्ययन करने लगे।

शोध के दौरान उनके ध्यान में आया कि हिंदू समाज के जिन वर्गों को अस्पृश्य या निम्न माना जाता है वे सब वस्तुतः क्षत्रिय हैं। इन्होंने ही मुगल आक्रमणों को अपने सीने और तलवारों पर झेला था। युद्ध में सफल होकर मुगलों ने व्यापक धर्मांतरण किया। धर्मांतरित लोगों को धन, धरती और दरबार में ऊंचा स्थान दिया गया, पर जिन्होंने किसी भी लालच, भय और दबाव के बावजूद अपना धर्म नहीं छोड़ा, उनके घर, दुकान और खेती की जमीनें छीन ली गयीं। उन्हें मानव मल साफ करने जैसा गंदा काम करने और गांव से बाहर रहने को मजबूर किया गया। सैकड़ों साल तक, पीढ़ी दर पीढ़ी यही काम करते रहने से वे हिंदू समाज की मुख्य धारा से कट गये। उनकी आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक स्थिति खराब हो गयी। लोग उन्हें हीन मानकर उनसे दूर रहने लगे। इसी में से फिर छुआछूत और अस्पृश्यता का जन्म हुआ।

रामफल जी ने इन तथ्यों के आधार पर अनेक पुस्तकें लिखीं। ‘छुआछूत गुलामी की देन है’, आदिवासी या जनजाति नहीं, ‘ये हैं मध्यकालीन स्वतंत्रता सेनानी’, ‘सिद्ध संत गुरू रविदास’, ‘प्रखर राष्ट्रभक्त डॉ. भीमराव अम्बेडकर’, ‘समरसता के सूत्र’, ‘घर के दरवाजे बन्द क्यों’, ‘सोमनाथ से अयोध्या-मथुरा-काशी’ और ‘मध्यकालीन धर्मयोध्दा’ उनकी बहुचर्चित कृतियां हैं। उन्होंने अध्ययनशील लोगों को इस विषय में और अधिक शोध के लिए प्रेरित भी किया।

इसके लिए उन्होंने देश भर में प्रवास कर सभी राज्यों में इन जातियों, जनजातियों के इतिहास को उजागर किया। इससे इन वर्गों का खोया आत्मविश्वास वापस आया। उनमें नयी चेतना जाग्रत हुई तथा कार्यकर्ताओं को बहुत सहयोग मिला। लगातार प्रवास से उनके यकृत (लीवर) में कई तरह के रोग उभर आये। काफी इलाज के बाद भी वे नियंत्रित नहीं हो सके और 9 जून, 2010 को दिल्ली के एक चिकित्सालय में उनका शरीरांत हुआ।

समरसता के काम में उनके मौलिक चिंतन, अध्ययन और शोध से जो नये अध्याय जुड़े वे आज भी सबके लिए दिशा सूचक एवं प्रेरक हैं।

* लेखक समाजसेवी तथा ‘राष्ट्रधर्म’ के सह संपादक रह चुके हैं।

10 COMMENTS

  1. आलेख में दम है. बेबाकी भी. आज जातिवाद को तोड़ने में रामफल जी जैसे लोगो की जरूरत है. इसी में सबका भला है–चाहे कथित सवर्ण हो या कथित दलित.

  2. रामफल जी काम स्तुत्य है. उनके विचारों और कार्यो को जानकार खुशी हुई. दर असल देश में एक तबका नहीं चाहता की हिन्दू समाज में समरसता आये. वह खुद को जनवादी, प्रगतीशील, मानवाधिकारवादी और सेकुलर कहता है लेकिन हिन्दू समाज में विभाजन करके अपनी दूकान चलाता है. वह दलित उत्थान , दलित विमर्श और दलित चेतना जैसे लुभावने नारे देते हुए चर्च और विदेश से पैसा पाता है. वह हर कीमत पर हिंदुत्व और तथाकथित सवर्णों को गाली देने को ही दलित-उत्थान मानता है. वह यह दुष्प्रचार करता है की संघ-भाजपा आदि सवर्णवादी और दलित विरोधी है. इन दलित मसीहाओ को दलितों की राशि पर कोमान्वेल्थ खेल आयोजित करके उसे घोटालो के रास्ते डकारने वाली कोंग्रेस में कोइ बुराई दिखाई नहीं देती. इन्हें अपना हक़ (आरक्षण) मारकर मुस्लिमो और ईसाइयों को परोसने वाली कोंग्रेस, माया-मुलायम-पासवान-कम्यूनिस्टो में भी बुराई नजर नहीं आती!! कारण?? इन्हें भाजपा-संघ या तथाकथित अगड़ी जातियों के खिलाफ बोलने के लिए ही पोषित किया जाता है.

  3. गांधी जी ने कहा था की चुन-चुन कर भारत की बुराईयों का वर्णन करने की मानसिकता वाले भारत के गटर इंस्पेक्टर हैं. हर देश और समाज में अछाईयाँ और बुराईयाँ होती हैं पर हमारे देश में कुछ ऐसे लोग हैं की जिन्हें भारत की प्रशंसा बर्दाश्त ही नहीं होती. वे भारत को बुरा कहने के लिए बड़े कमीटिड हैं. ऐसा क्यों ? इसका जवाब वे स्वयं दें तो अधिक अछा है. क्यों उन्हें अपने देश की अछाईयाँ नज़र ही नहीं आतीं. क्या यह कोई मानसिक , मनोवैज्ञानिक रोग है? अपनी माँ, अपने देश, अपनी संस्कृती की प्रशंसा और गौरव करने की मानसिकता को भी कोई विकार कहे तो इस विकृती का शिकार तो हर किसी को होना चाहिए. विवेकानंद. दयानंद, पटेल, गांधी, भगत सिंह भी तो इसी रोग के रोगी थे.

    • aap ne to kamal kar diya, swami dyanad, swami vivekanad bhagat singh ko hi galat tehra diya, aajkal to sangh bhi bhagat singh ji ke gun ga raha hai pata nahi ye chuk aapse kese ho gai hai, mujhe to lagta hai aap aatmmugdta ke shikaar ho rahen hain, thodha sochkar comment likhen rajesh kapoor ji……… aapke liye dil se shubhkaamnayen

    • आदरणीय डॉ. कपूर साहब,
      यहाँ पर और अन्य अनेक स्थानों पर आपकी टिप्पणियों को पढकर ऐसा लगने लगा है कि आपको भारत के इतिहास, वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था, दमितों का शोषण और छुआछूत जैसी सच्चाईयों में तनिक भी विश्वास नहीं है। आपके विचारों से लगता है कि ये सब बातें हवाई बातें हैं, जिनका हिन्दू समाज में न तो कभी अस्तित्व था और न ही वर्तमान में है और यदि कहीं था भी तो वह मुसलमानों या अंग्रेजों का कियाधरा है। इसमें हिन्दुओं का कोई दोष नहीं। यही नहीं आपके समक्ष ऐतिहासिक तथ्य प्रस्तुत करने वाले को आप मानसिक रूप से बीमार और देशद्रोही घोषित करने में भी संकोच नहीं करते हैं। शुरु-शुरु में आपके आलेखन में ज्ञान का प्रकाश नजर आ रहा था, लेकिन अब तो लगने लगा है कि आप भी उन लोगों में से एक प्रतीत होते हैं, जिनका लक्ष्य कथित हिन्दुत्व और हिन्दुत्व के रक्षकों की बातों को नहीं मानने वालों को किसी भी प्रकार से झूठा, पागल, देशद्रोही, छद्‌म धर्मपिरपेक्षतावादी आदि न जाने क्या-क्या सिद्ध करना है। जो इस देश में हर हाल में हर व्यक्ति को मुस्लिम विरोधी तथा ब्राह्मणवादी व्यवस्था का पोषक और भाजपा, आरएसएस जैसे संगठनों का अनुयाई बनाना चाहते हैं। मैं कोई भविष्यवक्तता तो नहीं हँू, लेकिन मुझे लगता नहीं कि निकट भविष्य में आप इसमें सफल हो पायेंगे! बेशक आपकी इस रुग्ण विचारधारा के पोषक समाचार-पत्र, न्यूज पोर्टल और चैनल इस लेख के लेखक की भांति कितना भी झूठ बेचने का काम करें।

      अन्त में एक बात और कि इस प्रकार से सरासर जूठ बेचने वालों को, इनके झूठ को बिना प्रमाण प्रकाशित करनेवालों को और आप जैसे समर्थकों को इस देश की पीढियाँ कभी माफ नहीं करेंगी। आप लोग इस देश के माहौल को रहने लायक नहीं रहने देना चाहते हैं। ऐसे में यही कह सकता हँू कि यदि आप ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं तो ईश्वर आप सबको सद्‌बुद्धि दे।

  4. Vishwa Hindu Parishad may please consider establishing a Chair – position of professorship in an appropriate university in the name of Shri Ramphal Singh Ji for research on untouchables and caste in Hindu society to carry forward research of Ramphalji.

  5. महोदय, इसके अतिरिक्त इन को भी देखिये,,,,,,,,,,,,,,,
    16 खंडों में प्रकाशित धर्मकोश के संपादक और 1951 में पुनर्निर्मित सोमनाथ मंदिर के प्रथम प्रधान पुरोहित जोशी जी अपनी चर्चित कृति वैदिक संस्कृति के विकास में लिखते हैं-

    वर्णपरिवर्तन की क्रिया के शिथिल पड़ने तथा अंत में रुक जाने की वजह से जातिभेद की नींव डाली गई। परिवर्तन की क्रिया के अवरोध का एक महत्वपूर्ण आर्थिक कारण भी है। यह है ग्राम संस्था के पोषक ग्रामोद्योगों की वंश परंपरा से चली आनेवाली स्थिरता। सिंधु संस्कृति के विध्वंश के उपरांत भारतवर्ष में नगर संस्कृति को प्रधानता किसी भी समय न मिली। ग्राम अथवा देहात से संबद्ध अर्थशास्त्र का निरंतर बने रहना जातिभेद की उत्पत्ति में सहायक बना। (अध्याय 3, पेज 128)
    जाति और उत्पादन संबंधों के बीच रिश्तों को नकारने वालों को ये बात ध्यान से पढ़नी चाहिए। जोशी जी अपनी इसी किताब में आगे आधुनिक भारत का सास्कृतिक आंदोलन में लिखते हैं-

    अंग्रेजी राज्य या शासन की नीति तथा सुधारों का दृष्टिकोण परस्पर पूरक ही थे। अंग्रेजी शासन के कानून के मुताबिक इस देश की समूची प्रजा का स्तर समान ही माना गया है। (अध्याय 6, पेज 272), मेरी टिप्पणी – गौरतलब है कि मैकाले के नेतृत्व में लॉ कमीशन ने पहली बार ये माना कि अपराध के दंड में जाति की कोई भूमिका नहीं है और हर व्यक्ति कानून की दृष्टि में समान है। उससे पहले तक हर जाति को समान अपराध के लिए अलग अलग दंड देने का विधान था। लॉ कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर ही देश में आईपीसी और सीआरपीसी के आधार पर अपराधों की मींमांसा और दंड संहिता का विधान हुआ।
    जोशी जी आगे लिखते हैं-

    अंग्रेजी कानून ने निरुपाय होकर उस धारा को अपनाया जो हिंदू धर्म की श्रुतियों, स्मृतियों तथा पुराणों में ग्रंथित कानून के विरुद्ध थी। उसने सती की प्रथा का प्रतिबंध (1829) किया।
    सन् 1832 और 1850 के कायदे के अनुसार धर्म परिवर्तन करने के बाद भी व्यक्ति को अपने संबंधियों की संपत्ति में उत्तराधिकारी बनाया गया। सन् 1840 में गुलामों के व्यापार को रोकने वाला कानून मंजूर हुआ। 1856 में पुनर्विवाह के कायदे को मंजूर करके हिंदू धर्म के नारी जीवन संबंधी मूलभूत तत्व को भारी ठेस पहुंचाई गई। 1865 में वह क्रांतिकारी कानून जिसे इंडियन सक्सेशन एक्ट कहा जाता है-पास किया गया, जो भारत के किसी भी जाति या धर्म के व्यक्ति को अन्यजातीय या अन्यधर्मी व्यक्ति से ववाह करने की अनुमति देता है। इस कानून ने जातिभेद और धर्मभेद की जड़ को ही उखाड़ दिया। ( अध्याय 6, पेज 273)
    इसी किताब में इस बात की विस्तार से चर्चा की गई है कि पीनल कोड ने किस तरह भारतीय समाज को जमातों की जड़ता से मुक्त किया। अंग्रेजी शिक्षा औऱ अंग्रेजी कानून एक दूसरे के पूरक बने।

    वर्णाश्रम व्यवस्था आधारित भारतीय सभ्यता को एक झटका अंग्रेजी राज में लगा। उसे दूसरा बड़ा और संभवत: निर्णायक झटका अब बदलते उत्पादन संबंधों की वजह से लग रहा है। आपका लेख इस बदलते समय पर कोई रोशनी डाल सकता है क्या? और विधवा विवाह का निषेध, अंतर्जातीय विवाह पर पाबंदी और रक्त शुद्धता की अवधारणा, अस्पृश्यता, कर्म और जाति का संबंध यानी हर जाति के लिए खास कर्म का प्रावधान, बेटी का पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार का निषेध, कर्मकांड की प्रधानता, वैश्यों, शूद्रों और अंत्यजों के साथ औरतों की अवमानना – क्या इन सारे तत्वों को निकाल देने के बाद भी प्राचीन हिंदू सभ्यता में कुछ बचता है? और फिर सवाल है कि क्यों आप इन तत्वों को बचाना चाहते हैं? और गलत लेख लिखकर आप क्या इतिहास झुट्ला पाएंगे,
    आपने अंग्रेजो और मुस्लिम शासकों को जो दोष आरोपित लिया है वो नई बात नहीं है इसमें सती प्रथा का ही उदहारण देखिये,सती के खिलाफ अंग्रेजों से पहले एक मुस्लिम शासक ने सख्ती बरती थी। हिंदू शासकों ने अपनी रियासतों में कई और साल तक इस जघन्य प्रथा को जिंदा रखा। हिंदू मानस में उस बादशाह को सामूहिक घृणा का पात्र बना दिया गया है। जी हां, औरंगजेब ने 1663 में ये अपने अधिकारियों को आदेश दिया था की उसकी राज्यसीमा के अंदर कहीं भी किसी औरत को जिंदा जलने न दिया जाए। मैकाले और औरंगजेब में दो समानताएं हैं। दोनों ने स्थापित हिंदू मान्यताओं को ठेस पहुंचाई और भारतीय इतिहास में दोनों ही विलेन हैं तो आपका ये लेख भी उसी की परिणिति है जो काफी समय पहले से औरंगजेब और मक़ाले के विरुद्ध आप लोग अपनाते रहें हैं……………………………….. शुभकामनाओ के साथ दीपा शर्मा

  6. महोदय, आप को भी मुस्लिम फोबिया है जो आपको इतिहास झुटलाने पर मजबूर कर रहा है, हमें बताया जा रहा है कि हमारे यहां जाति व्यवस्था मुस्लिम शासकों के आक्रमण के बाद आई। जब वे तलवार की धार पर स्थानीय लोगों को धर्मांतरण करवाने लगे। जो हिंदू उस वक्त अपने धर्म पर गर्व करते थे, वे जंगलों में भाग गए जिससे उनकी सामाजिक हैसियत कम हो गई। इस तरह जाति व्यवस्था का आर्विभाव हुआ। बाकी हिंदू जो धर्मांतरण का विरोध कर रहे थे, उन्हें मुस्लिम शासकों और सत्ताधारी वर्ग का शौचालय साफ करने को बाध्‍य किया गया। इसकी वजह से जाति व्यवस्था आई और अस्पृश्यता भी! इस किस्म के विचार दरअसल, राजनीतिक रूप से अनिवार्य कल्पनाओं का हिस्सा हैं जिसके लिए इतिहास का अध्‍ययन या तत्कालीन समाज की गहरी समझ की जरूरत नहीं पड़ती।
    जाति की अवधारणा सबसे पहले प्रथम ईसा पूर्व में आई थी जबकि भारत में मुस्लिम शासकों का प्रभाव तो 11वीं ईसवीं के आसपास शुरू हुआ।
    स्थानीय स्तर पर संगठित जनजातियों को जातियों में बदलने के पीछे कई चीजें काम कर रही थीं। यह प्रक्रिया औचक नहीं थी और समय के साथ-साथ रूढ़ होती गई। इन कारणों में प्रमुख थे: आर्यों का आगमन और ब्राह्मणवादी विचारधारा। यहां जो आर्य आए, वे तीन हिस्सों में विभाजित थे- सिपाही, पुजारी और किसान व व्यापारी। दास भारत में बनाए गए। समय के साथ-साथ यह ढीली-ढाली व्यवस्था जन्म आधारित होती गई और आदिवासी एक विशिष्ट सजातीय समूहों में बंटते गए, जिनका काम सुनिश्चित था। इसने जातियों के बीच एक सामाजिक अनुक्रम कायम कर दिया। दूसरी शताब्दी तक ये जातीय विभाजन स्पष्ट तौर पर दिखने लगे। वैदिक युग वर्णों का युग है। ऋग्वेद का पुरुष सूक्त बताता है कि ब्रह्मा ने विराट पुरुष के शरीर से चार वर्णों की रचना की। बौद्ध धर्म आने के बाद वर्णों के इन ब्राह्मणवादी मूल्यों को चुनौती मिली और इन्हें नहीं माना गया। इसके चलते महिलाओं और शूद्रों की स्थिति में कुछ सुधार आया। इसके बाद मनुस्मृति का युग आता है जहां वर्ण जातियों में रूपांतरित हो जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं और शूद्रों को निचले पायदान पर धकेल दिया जाता है।
    जो मुस्लिम शासक यहां आए और शासन किया उन्होंने स्थानीय सामाजिक व्यवस्था से छेड़छाड़ नहीं की, बल्कि वास्तविकता यह है कि उनके तमाम सहयोगी व सलाहकार खुद हिंदू थे जो सेना व प्रशासन में ऊंची हैसियत रखते थे। इस काल में दो अन्य परिघटनाएं हुईं। पहली, भारतीय जाति-व्यवस्था ने मुस्लिम समुदाय पर भी अपना असर डाला जिसके चलते मुस्लिमों के बीच भी जातियां बन गईं – अशराफ, अजलाफ और अर्जल, जो कि हिंदू समाज के जाति अनुक्रम के समानांतर थीं। दूसरे, निचली जाति के कुछ हिंदुओं ने ब्राह्मणों के अत्याचार से बचने के लिए सूफी संतों के प्रभाव में इस्लाम को अपना लिया। भक्ति धारा भी जाति के खिलाफ बात करती थी और भक्तिकाल के कई संत निचली जातियों से आए थे।
    आजादी के आंदोलन का दौर जाति और लिंग की समानता की मांग की शुरूआत का दौर था। भारतीय राष्ट्रवाद के आंदोलन में ये मूल्य निहित थे जबकि हिंदू या मुस्लिम राष्ट्रवाद की राजनीति को इन सामाजिक प्रक्रियाओं से कोई सरोकार नहीं था। निचली जाति के मुस्लिम और हिंदू दोनों ही धार्मिक राष्ट्रवाद से सरोकार नहीं रखते थे और वे भारतीय राष्ट्रवाद की धारा के साथ थे। एक ओर शूद्रों के लिए समानता की मांग करने वालों ने मनुस्मृति जलाई, तो दूसरी ओर धार्मिक राष्ट्रवादियों ने उसकी खोई विरासत वापस लाने की बात कही। कुछ ने, जैसे दीनदयाल उपाधयाय, कहा कि विभिन्न वर्ण शरीर के भिन्न अंगों जैसे हैं, जो समाज में संतुलन के लिए जरूरी हैं।
    यहां एक बात गौर करने की है कि सिर्फ हिंदू धर्म के उपरोक्त दलितों के लिये 15% आरक्षण का प्रावधान अनुसूचित जाति के नाम पर रखा गया था, अन्य धर्मावलंबियों के किसी भी वर्ग को इसमें नहीं रखा गया था, कारण सिर्फ यही था कि इन धर्मों में अस्पृश्यता या ऊंच नीच वाली बात नहीं थी. अस्पृश्यता का कोढ़ हिंदू समाज में ही था.
    अनुसूचित जातियों में ऐसे लोग शामिल किये गये जो हजारॉ सालों से अछूत और निकृष्ट समझे जाते थे, जिन्हें गांव के सार्वजनिक कूओं से पानी तक भरने नहीं दिया जाता था, स्कूलों व मंदिरों में प्रवेश वर्जित था, जिनकी परछाईं भी छू जाने से लोग दुबारा नहाते थे लेकिन जिनकी कन्याओं और नवविवाहित बहुओं को रात में उठवा मंगाकर जबर्दस्ती भोगने में कोई ऐतराज नहीं होता था, जिनसे मारपीटकर बेगार कराया जाता था एवं तथाकथित उच्च जातिवालों के सामने बैठ जाना बहुत बड़ा गुनाह माना जाता था. शिक्षा एवं पूंजी के अभाव में वे इस नारकीय चक्रव्यूह से बाहर कभी नहीं आ सकते थे. हजारों सालों तक इन लोगों ने पूर्व जन्म के कर्मों का फल समझकर चुपचाप सारे जुल्म सह लिये, प्रलोभनों के बावजूद धर्म परिवर्तन नहीं किया, लेकिन स्वातंत्र्य आंदोलन के दौरान अनेक समाज सुधारकों एवं राजनेताओं के प्रयासों से ये जागरूक हो गये थे,
    भाजपा और संघ की राजनीति हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य के इर्द-गिर्द केंद्रित है। धार्मिक राष्ट्रवाद की हर अवधारणा में अधिकारों और कर्त्तव्यों के बीच एक स्पष्ट फासला होता है जहां अधिकार प्रभुत्वशाली अभिजात्य वर्ग के लिए होते हैं जबकि कर्त्तव्यों का बोझ गरीबों पर होता है। और वो जब ये अभिजात्य वर्ग के साथ नहीं कर सकते हैं तो सब कुछ मुस्लिम और अंग्रेजों के सर मढ़कर अपना बोझ ख़तम करना चाहते हैं लेकिन कोई भी व्यक्ति जिसको इतिहास की थोड़ी भी समझ होगी वो आपके दुष्प्रचार में नहीं फसेगा…………. शुभकामनाओं के साथ , दीपा शर्मा

  7. Maine aaj se pahle shri Ramfalji ka naam nahi sunaa thaa. Par Unke vichaaron ko padh kar achaa lagaa.Yah to shodh kaa vishay hai ki Bharat mein jati prathaa kab aayee,par Raamfalji ke vichaar aur shodh ko agar aadhaar maan liya jaaye aur uss dishaa mein kaarya kiye jayen to bahut kuchh theek ho saktaa hai.Aise mere yuvakaal mein bahut ghatnayen yaisi ghatee thee ki mujhe nahi lagtaa tha ki itni sankirna jaee prathaa bahut dino tak chal payegi,par aaj to mujhe lagne lagaa hai ki yah to janm janmaantar tak aise hi chalti rahegi.Aise mein Ramfalji ke vichaaro ko padh kar bahut sukun milaa. Kaash hamaaraa hindu samaaj iss par amal kartaa.

    • मेरे पूज्य दादा जी के लिए लिखे गए लेख के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ??

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