रामलीला काण्ड और हम

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गंगानन्‍द झा

बाबा रामदेव के रामलीला काण्ड पर श्री लालकृष्ण अडवाणी से सन 1975 ई. के एमर्जेंसी की याद से सिहर उठे हैं, उनके पार्टी अध्यक्ष को तो जालियाँवाला हत्याकांड की विभीषिका की याद हो आई। अतिशयोक्ति अलंकार को अभिव्यक्ति के एक रूप की मान्यता मिली हुई है, पर विश्वसनीयता की हद का सम्मान करते हुए। यह खयाल तो रखा जाना ही चाहिए कि अगर वर्तमान पीढ़ी ने उनकी बात पर विश्वास कर लिया तो उन विभीषिकाओं का असम्मान होगा।

पर मुझे तो एक अधिक मिलती जुलती बात याद आ रही है। सन 1966 ई में भारत साधु समाज का आन्दोलन छिड़ा था। मुद्दा था, गोवध प्रतिबन्धित हो। आन्दोलन का चरम बिन्दु तब आया जब साधों की जमात ने दिल्ली की सड़कों पर ताण्डव किया। जैसा गणतान्त्रिक व्यवस्था में होता है, सरकार की असफलता, धार्मिक प्रतीकों की अवमानना जमता को पर्याप्त सुरक्षा नहीं दे पाने के ले भर्त्सना हुई। गृहमंत्री के इस्तीफे की माँगें उठी। और परिणति हुई, श्री गुलजारीलाल नन्दा जो गृहमंत्री होने के साथ उसी साधु समाज के अध्यक्ष भी थे, के त्यागपत्र से।

इस पूरे प्रकरण से संकेत मिलते हैं कि पड़ोसी देश पाकिस्तान में धर्म के नाम पर कारोबार करनेवाले मुल्ला मौलवी लोगों की तरह यहाँ भी बाबाओं का सामाजिक हस्तक्षेप प्रभावी होने को मचल रहा है। ऐसी आशंका निर्मूल नहीं होगी कि कालक्रम में पाकिस्तान की तर्ज पर यहाँ भी भारतीय तालीबानी संस्करण उभड़े। सरकार भी इन्हें प्रश्रय देने में अपना योगदान कर रही है। तभी तो कालाबाजारी मिलावट और टैक्स चोरी कर मन्दिरों , धर्मशालाओं में दान देकर निदान करनेवाले सम्मानित और प्रभावकारी भूमिकाओं में विराज रहे हैं।

बचपन में बाँसुरीवाले की कहानी पढ़ी ङोगी. एक गाँव में चूहों का उत्पात मचा हआ था। लोग परेशान थे। तभी वहाँ एक बाँसुरी वाला आया। उसने कहा कि मैं सारे चूहों से गाँव को मुक्त कर दूँगा। लोग राजी हो गए। बांसुरीवादक ने तान छेड़ी। ,सारे चूहे अपने अपने बिलों से निकल आए। बाँसुरीवादक सागर की ओर बढ़ता गया, उसके पीछे पीछे चूहे भी चलते गए और सागर में डूब कर मर गए.। गाँववालों को प्रसन्नता और स्वस्ति मिली। पर बाँसुरीवादक को वे खुश नहीं कर पाए। बाँसुरीवादक ने एक दूसरी धुन छेड़ी। अब गाँव के सारे बच्चे अपने अपने घरों से निकल आए और बाँसुरीवादक के पीछे पीछे सागर की ओर बढ़ने लगे। गाँववाले देख रहे थे कि कहीं उनके बच्चे चूहों की तरह सागर में समा न जाएँ।

1 COMMENT

  1. आज के दौर में भी यह बिलकुल सटीक बैठता है |
    हम सब घनघोर वैचारिक दरिद्रता में जी रहे हैं अगर नई परिवर्तनकारी विचार से आम लोग सहमत होते दिख रहे थे तो इसे दबा भर देने से केंद्रीय मुद्दे गौण न हो पाएंगे, कुछ साल इंतजार करना होगा जब एक नई समरस सामाजिक व्यवस्था जिसका सूत्रपात हो रहा है मूर्त रूप में दिखाई पड़ेगी और हम सब उसके अंग हो पाने का गौरव प्राप्त कर पाएंगे | जय हिंद, जय जगत |

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