समाज साहित्‍य

रामराज्य – एक आदर्श राजविहीन राज्य

ramrJYAसुरेन्द्र नाथ गुप्त

राम राज्य की कल्पना सर्वप्रथम महाराज मनु ने की थी जब मनु-शतरूपा ने तप करके भगवान से वर मांगा था कि तुम्हारे समान पुत्र हो। मनु-शतरूपा निसंतान नहीं थे, उनके दो पुत्र उत्तानपाद व प्रियव्रत और एक पुत्री देवहूती थी, फिर भी भगवान से पुत्र मांगा और वह भी बिल्कुल उन्ही के जैसा। इसका एक विशेष कारण था।
मनु जी ने मनुस्मृति का निर्माण किया, जिसमे समाज व्यवस्था के नियम बनाये। जो नियमों का उलंघन करे उसके लिये दण्ड की व्यवस्था भी की थी। अतः समाज सभी प्रकार से व्यवस्थित चल रहा था और अपराध लगभग नगण्य थे। परंतु मनु जी संतुष्ट नहीं थे क्योंकि यदि दण्ड के भय से अपराध नियंत्रित हुए तो यह आदर्श स्थिति नहीं थी। आदर्श तो वह है जब मनुष्य स्वेच्छा से अनुशाषित होकर अपराध न करे, सब अपने-अपने धर्म का पालन करें और सभी भय मुक्त हों। अयोध्या १४ वर्ष तक बिना राज-दण्ड के रही- न शासक था न कोई शासित। राज सिंघासन पर राम की पादुका थी और हरेक व्यक्ति स्वयं अपने-अपने धर्म पर चलता था और त्यागमय जीवन जीता था। यही राज-विहीन और दण्ड-रहित राज्य मनु महाराज चाहते थे। परंतु उन्होने अनुभव किया कि इस आदर्श स्थिति के लिये प्रत्येक व्यक्ति का हृदय परिवर्तन आवश्यक है और भगवान के आये बिना यह संभव नहीं। अतः मनु महाराज ने सोच-विचार के बाद पूर्ण निश्चय के साथ भगवान को पृथ्वी पर लाने का प्रयास किया था। उनका यह प्रयास शुद्ध राष्ट्र और समाज कल्याण की उदात्त भावना से प्रेरित था। महत्वपूर्ण यह भी है कि जब विश्व के अन्य समाज कबीला संस्कृति से आगे नहीं बढ़ पाये थे उस समय भारतीय मनीषियों ने राष्ट्रीय संस्कृति और राजविहीन राज्य की आदर्श समाज व्यवस्था की कल्पना साकार की थी।

रामराज्य में “दंड व भेद” की नीतियों का पूर्ण अभाव था – दंड इसलिये नहीं क्योंकि अपराध नहीं थे और भेद (पर्दा) इसलिये नहीं क्योंकि परस्पर प्रेम था, प्रेम मे पर्दा नहीं होता। रामराज्य में अल्प म्रत्यु नहीं थी बल्कि कुछ को तो इच्छा म्रत्यु की शक्ति प्राप्त थी। संत अपनी इच्छा से शरीर त्यागते थे जैसे ‘बाली’, जटायु, दशरथ आदि। भगवत स्मरण् के कारण म्रत्यु दुख नहीं देती थी। रामराज्य मे न विषमता थी और न कोई किसी से बैर करता था। सब लोग आपस में प्रेम करते थे और अपने-अपने धर्म का पालन करते थे। न कोई अज्ञानी था, न लक्षणहीन, न दरिद्र और न दीन। तुलसीदास जी लिखते हैं:

राम राज बैठे त्रिलोका, हर्षित भये गये सब शोका।
बयरु न कर कहू सन कोई, राम प्रताप विषमता खोई।
सब नर करहीं परस्पर प्रीति, चलहिं, स्वधर्म निरत श्रुति नीति।
अल्प मृत्यु नहीं कवनेहु पीरा, सब सुन्दर सब बिरूज शरीरा।
नहीं दरिद्र कोऊ दुखी न दीना, नहीं कोऊ अबुध न लच्छन हीना।

दण्ड जतिन कर भेद जहं, नर्तक नृत्य समाज।
जीतहुं मनहि सुनिये अस, रामचंद्र के राज ll

अतः राम राज्य सब चाहते हैं परंतु वह आ नहीं पाता क्योंकि उसके लिये तीन शर्तें हैं।

1. पहली शर्त – दशरथी समाज व्यवस्था- राम के आगमन के समय राष्ट्र में दो व्यवस्थाएं चल रही थी और दोनो ही प्रभावी हो रही थी। एक दशरथी व्यवस्था जो सर्वमान्य व धर्म सम्मत थी और दूसरी दशाननिक व्यवस्था जो स्थापित नियमों के विरुद्ध बलपूर्वक चलाई जा रही थी। दशरथी व्यवस्था संयम, समर्पण, त्याग और परमार्थ पर आधारित थी परंतु दशाननिक व्यवस्था जो स्वार्थ, शोषण, अपहरण और भोगवादी थी उसका प्रभुत्व बहुत बढ़ गया था। रामराज्य केवल दशरथी (वैदिक) व्यवस्था में ही आ सकता है।
2. दूसरी शर्त – राजसत्ता से निर्लिप्तता – राम को सत्ता का मोह नहीं था। सत्ता राम को आग्रहपूर्वक दी गई न कि राम ने सत्ता ली। राम के बनवास के दौरान जब उनकी चरण पादुका को राज सिंघासन पर स्थापित किया गया तब भी अयोध्या में रामराज्य जैसी व्यवस्था इसीलिये निर्माण हो सकी थी क्योंकि भरत को भी सत्ता का मोह नहीं था और उनसे भी राजकाज चलाने के लिये राम ने आग्रह किया था।
3. तीसरी शर्त – सत्ता का उद्देश्य परमार्थ – रामराज्य का उद्घाटन सीता (भक्ति) ने किया, पहले सीता जी सिंघासन पर बैठीं और बाद में राम। सीता, भक्ति की प्रतीक है। जब भक्ति जिसमें परमार्थ है (स्वार्थ नहीं), त्याग है (संग्रह नहीं) राज्य का आधार होगी तभी रामराज्य होगा।
एक आदर्श समाज व्यवस्था के लिये इन तीनों ही शर्तों का पूर्ण होना अनिवार्य है। यदि एक भी शर्त अधूरी रही तो रामराज्य संभव नहीं होगा। अनेक बार राज्य का मुखिया सत्ता के मोह से दूर (शर्त ३) और परमार्थ व सेवा भाव से युक्त (शर्त २) हो सकता है जैसा उरुगुए में राष्ट्रपति मुजिका और भारत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी परंतु यदि समाज के लोग स्वार्थी व भोगवादी प्रवृत्ति के हैं तो शर्त-१ अपूर्ण होने से रामराज्य की स्थिति निर्माण नहीं होगी। हाँ, वह धर्मात्मा मुखिया उस समाज को आदर्श व्यवस्था की ओर यथासंभव अग्रसर अवश्य करेगा।