आज रूंध गया मेरा गला
क्यों कि आज
हवाओं की सनसनाहट में उसके पत्ते सुर नहीं छोड़ रहे थे
गिलहरियां न जाने कहां नदारद हो गई थी यकायक ?
शायद ढ़ूढ़ लिया होगा कोई दूसरा आसियाना
पक्षियों की चहचहाहट आज कानों में
स्वर लहरियां बनकर नहीं दौड़ रही थी
खिड़कियों से आज सीधे
सूरज की तेज रश्मियां मेरे बेडरूम में झांक रही थी
चींटियों की बांबी की मिट्टी भी
आज तेज-तर्रार आरी की तेज रगड़ से
यत्र-तत्र बिखर गई थी
उसने सब देखा, सब सुना, सब जाना
मूक साक्षी था वह
आदमीजात की नीयत का
लेकिन
एक शब्द भी आह नहीं निकली उसके मुख से
वह निढ़ाल हो गया
पैसों की झोली भरकर ‘आदमी’ निहाल हो गया
उसने(उस पेड़ ने) अपना आसियाना छोड़ा
आदमी ने उससे अपना आसियाना बनाया
मैं क्षुब्ध(क्षोभ से परिपूर्ण) हूं आज
क्यों कि
आज धरती का असली धन
खो चुका था…!
सुनील कुमार महला