देश में इन दिनों आए दिन नए से नए और बड़े से बड़े घोटालों का पर्दाफ़ाश हो रहा है। भ्रष्टाचार के नित नए किस्से सुनाई दे रहे हैं। और आमतौर पर इन घोटालों व भ्रष्टाचार में राजनीतिज्ञों के या तो सीधेतौर पर नाम आर रहे हैं या फिर उनके द्वारा इन घपलों व घोटालों को संरक्षण दिए जाने की खबरें प्रकाश में आ रही हैं। परंतु यह ढीठ राजनीतिज्ञ हैं कि या तो वे तमाम सुबूत व दस्तावेज़ होने के बावजूद अपना पक्ष रखते हुए खुद को पाक-साफ़ बताने की कोशिश करते हैं। और यदि ऐसा संभव नहीं हो पाता फिर वे दूसरे राजनैतिक दलों के लोगों पर या उनके द्वारा किए गए घपलों-घोटालों या भ्रष्टाचार पर उंगली उठाकर यानी दूसरों के द्वारा किए गए अपराध का वास्ता देकर खुद को बचाने की कोशिश में लग जाते हैं। हालांकि हमारे देश की राजनीति को लोकसेवा, जनता का नि:स्वार्थ कल्याण करने की भावना तथा राजनीति को व्यवसाय या पेशा न समझना माना जाता रहा है। परंतु चूंकि वह दौर देशभक्तों व ईमानदारी की मिसाल कायम करने वाले राजनीतिज्ञों का दौर था। इसलिए उस ज़माने में भ्रष्ट नेताओं को गिरी नज़र से देखा जाता था। परंतु आज के वातावरण में तो ऐसा प्रतीत होता है कि यदि ‘गलती’ से कोई राजनीतिज्ञ ईमानदारी की राह पर चलने का प्रयास करे, स्वयं को भ्रष्टाचार, घपलों व घोटालों से दूर रखना चाहे या भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था का विरोध करे तो भ्रष्ट व्यवस्था से जुड़े लोग तथा राजनीति को व्यवसाय के रूप में अपनाने वाले लोग उसी के विरोधी बन बैठेंगे।
इस समय इस विषय पर सबसे बड़ा उदाहरण कर्नाटक में बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं का है। इन्हें इस समय देश का सबसे बड़ा खनन माफिया समझा जा रहा है। इनमें से एक रेड्डी बंधु इस समय ऐसे ही आरोपों में जेल की हवा भी खा रहे हैं। पिछले दिनों इनके संबंध में एक रिपोर्ट यह पढऩे को मिली कि इनके गुर्गों ने जनार्दन रेड्डी की ज़मानत के लिए स्थानीय जज को सौ करोड़ रुपये तक की रिश्वत देने की पेशकश की थी। परंतु उसके बावजूद जज ने इन्हें ज़मानत नहीं दी। ज़रा अंदाज़ा लगाईए कि इनका जेल से बाहर होना इनके व्यवसाय के लिए कितना लाभप्रद होगा। इस रेड्डी परिवार के तीन भाई हैं जिनमें दो मंत्री रहा करते हैं और एक शासन के किसी बोर्ड के चेयरमैन बना दिए जाते हैं। केवल कर्नाटक ही नहीं बल्कि आंध्रप्रदेश के रॉयलसीमा व तेलांगना क्षेत्रों तक में इनका लोहा खनन का कारोबार फैला हुआ है। हालांकि यह स्वयं भारतीय जनता पार्टी से जुड़े हुए हैं इसके बावजूद इनका पूरा प्रभाव कांग्रेस पार्टी व जगन मोहन तक के लोगों पर है। कहा जा सकता है कि विभिन्न राजनैतिक दलों के लोग रेड्डी बंधुओं की कृपा व दयादृष्टि के मोहताज रहते हैं। इसका कारण सिर्फ एक है कि पैसा सभी को चाहिए, सभी की ज़रूरत पैसा है और खासतौर पर राजनीतिज्ञों को तो इसलिए और भी अधिक पैसा चाहिए क्योंकि उन्हें चुनाव लडऩे हेतु पर्याप्त धनबल की ज़रूरत पड़ती रहती है। ज़ाहिर है कि सैकड़ों विधायकों व दर्जनों सांसदों को चुनाव में आर्थिक सहायता पहुंचाने के लिए इतना धन कहां से आए? जो राजनीतिज्ञ रेड्डी जैसे अवैध खनन करने वाले खनन माफिया से पैसे लेकर अपनी राजनीति परवान चढ़ा रहे हों उनसे ईमानदारी की या रेड्डी जैसे खनन माफियाओं की मुखालिफत की क्या उम्मीद रखी जाए?
मज़े की बात तो यह है कि इतना बड़ा अवैध खनन का कारोबारी भारतीय जनता पार्टी के प्रथम श्रेणी के कई नेताओं का भी कृपापात्र है। अपने राज्य में मुख्यमंत्री बनाने या हटाने की क्षमता इस खनन माफिया में मौजूद है। ऐसे में क्या कोई सूरत ऐसी दिखाई देती है जिससे राजनीति और व्यवसाय यहां तक कि अवैध व्यवसाय के रिश्तों की हकीकत को नकारा जा सके? इन दिनों महाराष्ट्र का एक अरबों रुपये का सिंचाई घोटाला चर्चा का विषय बना हुआ है। इस संबंध में कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस सभी पार्टियों के नेताओं द्वारा व्यापारियों व ठेकेदारों के पक्ष में लिखी गई चिट्ठियों का पर्दाफाश हो रहा है। बावजूद इसके कि ऐसी सिफारिशी चिट्ठियों से साफ ज़ाहिर हो रहा है कि विभिन्न दलों के यह राजनीतिज्ञ किस प्रकार ठेकेदारों तथा व्यवसायियों का पक्ष ले रहे हैं। परंतु जब उनसे ऐसे पत्रों को लिखे जाने का कारण पूछा जाता है तो वे बड़ी आसानी से अपने इस पक्षपातपूर्ण पत्र को जनहित के लिए लिखा गया पत्र बताकर बड़ी ही बेहयाई के साथ स्वयं को पुन: देशभक्त व सच्चा लोकसेवक साबित करने की कोशिश करने लगते हैं। 2जी व कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले से लेकर अब तक दर्जनों घोटाले ऐसे सामने आए हैं जिनमें राजनीतिज्ञों की ठेकेदारों से, आपूर्तिकर्ताओं से तथा बड़े व्यवसायियों से सीधी सांठगांठ या उनकी व्यक्तिगत रूचि उजागर हुई है। राजनीतिज्ञों की इस प्रकार की बढ़ती व्यवसायिक प्रवृति क्या हमारे देश की लोकतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था को कमज़ोर कर रही है? या फिर यह एक ऐसी हक़ीक़त बन चुकी है जिससे इंकार ही नहीं किया जा सकता।
पिछले दिनों कोल ब्लॉक आबंटन मामले में सुबोधकांत सहाय, श्रीप्रकाश जयसवाल तथा नवीन जिंदल जैसे लोगों के नाम सामने आए। सहाय व जयसवाल पर जहां यह आरोप लग रहे हैं कि उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों के लिए सिफ़ारिश की। वहीं नवीन जिंदल पर फर्ज़ी कंपनियां बनाकर उनके नाम कोल ब्लॉक आबंटित कराए जाने का आरोप लग रहा है। सहाय व जयसवाल जहां केंद्रीय मंत्री हैं वहीं नवीन जिंदल की गिनती देश के एक युवा, उत्साही, ईमानदार, साफ़-सुथरी छवि वाले राजनीतिज्ञ तथा सच्चे राष्ट्रभक्त के रूप में होती है। नवीन जिंदल ही वह शख्स हैं जिन्होंने राष्ट्रीय ध्वज के सार्वजनिक प्रयोग हेतु संघर्ष कर उच्चतम न्यायालय से इसकी अनुमति दिलवाई। हरियाणा के कई शहरों में उनके द्वारा शहर का सबसे ऊंचा तिरंगा झंडा फहराया जा चुका है। अब ज़रा सोचिए कि देश का गौरव समझा जाने वाला राष्ट्रीय ध्वज और उसके लिए संघर्ष करने वाला एक प्रमुख सांसद यदि इसी व्यवसायिक अनियमितता में शामिल हो तो इसे किस नज़रिए से देखा जाना चाहिए? वैसे भी यह तो महज़ वह नाम है जो किसी कारणवश, प्रतिशोध के चलते या मीडिया की सक्रियता की वजह से सामने आ जाते हैं और इनके कारनामे, इनकी अनियमितताएं तथा इनके द्वारा दोनों हाथों से देश को लूट खाने के प्रयास उजागर हो जाते हैं। अन्यथा हक़ीक़त तो यह है कि इस समय समर्पित,ईमानदार तथा पैसों की लालच का शिकार न होने वाला राजनीतिज्ञ शायद चिराग लेकर भी ढूंढने से नहीं मिले। इसके बावजूद देश की आशावादी जनता अब भी ईमादार,साफ़-सुथरी व भ्रष्टाचार मुक्त राजनैतिक व्यवस्था चलाए जाने की आस लगाए रहती है।
मंत्रियों, सांसदों व विधायकों की तो खैर बात ही क्या करनी। यदि आप जि़ला, शहर व कस्बाई स्तर पर भी नज़र डालें तो आपको यह देखने को मिलेगा कि तमाम छुटभैय्ये नेता, तमाम दसनंबरी या अपराधी प्रवृति के स्थानीय नेताओं से जुड़े लोग, नेताओं की चमचागिरी व खुशामदपरस्ती में लगे रहने वाले लोग ज़मीन से उठकर आसमान पर पहुंच चुके हैं। कोई कहीं अपना शॉपिंग कांपलेक्स बनवाए हुए है तो कोई मॉल का मालिक बन चुका है। किसी ने पैट्रोल पंप ले लिया है तो कोई पर्याप्त भू संपदा का स्वामी बनता जा रहा है। सरकारी कार्यालयों में विभिन्न सामग्रियों की आपूर्ति का ठेका देना या लोगों के छोटे-मोटे काम कराने के नाम पर पैसे ऐंठना तो छुटभैय्यै नेताओं के लिए आम बात है। गोया हम कह सकते हैं कि गली-मोहल्ले के राजनैतिक कार्यकर्ता से लेकर केंद्रीय मंत्री,सांसद यहां तक कि दूसरों को शिष्टाचार, अनुशासन, ईमानदारी व राष्ट्रभक्ति का ज्ञान बांटने वाली भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी तक कहीं न कहीं या तो स्वयं व्यवसाय से सीधेतौर पर जुड़े दिखाई दे रहे हैं या फिर किसी व्यवसायी या कारोबारी की पैरवी करते नज़र आ रहे हैं। ज़ाहिर है बड़े व्यवसायियों या ठेकेदारों की इस प्रकार की अर्थ संबंधी पैरवी का मतलब लोकसेवा या समाजसेवा तो कतई नहीं निकाला जा सकता बल्कि इसका सीधा सा अर्थ है आर्थिक लाभ उठाना तथा अपने लोगों को आर्थिक लाभ पहुंचाना। यहां नवीन जिंदल व नितिन गडकरी जैसे सैकड़ों ऐसे राजनीतिज्ञों की बात करना भी इसलिए ज़रूरी है क्योंकि यह लोग व्यक्तिगत रूप से विभिन्न व्यवसायों से जुड़े हुए हैं।
ज़रा सोचिए कि सत्ता से जुड़ा व्यक्ति या अपने हाथों में सत्ताशक्ति रखने वाला कोई व्यवसायी अपनी कंपनी,फर्म, व्यवसाय या कारोबार या उद्योग को आखिर कैसे लाभ नहीं पहुंचाएगा? अपने व्यवसाय के हितों के बारे में सोचना तो इन वयवसायिक राजनीतिज्ञों का ही नहीं बल्कि सभी आम व्यवसायियों का धर्म है और सभी ऐसा करते भी हैं। गैर राजनैतिक व्यवसायी यदि अवैध धन कमाने की लालच में मिलावटखोरी, जमाखोरी,कम तोलना, नकली माल बाज़ार में बेचना,सस्ती चीज़ को कई गुणा कीमत पर बेचने जैसे कई हथकंडे इस्तेमाल कर लेता है तो सत्ताशक्ति अपने हाथ में रखने वाला व्यवसायी कुछ ऐसे तरीके इस्तेमाल करता है जो हमें इन दिनों देखने व सुनने को मिल रहे हैं। लिहाज़ा बावजूद इसके कि नैतिकता के मापदंड पर भले ही यह खरे नहीं उतरते परंतु हकीकत तो यही है कि राजनीति और व्यवसाय के रिश्ते बहुत गहरे हो चुके हैं और इनसे निजात पाना शायद संभव नहीं।
तनवीर जाफरी जी आपने बहुत निराश होकर लिखा है कि हकीकत तो यही है कि राजनीति और व्यवसाय के रिश्ते बहुत गहरे हो चुके हैं और इनसे निजात पाना शायद संभव नहीं।पर हकीकत केवल यह नहीं है.हकीकत तो यह है कि भयंकर अपराध जैसे हत्या ,बलात्कार और अन्य जघन्य अपराध करने आले अपराधियों, राजनीति और व्यवसाय के रिश्ते बहुत गहरे हो चुके हैं.क्या अंतर है रेड्डी बंधुओं में या साधारण श्रेणी वाले अपराधियों में?क्या नहीं करते हैं ये माफिया?तनवीर जाफरी जी ,स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी है कि इन तीनो का नेक्सस इस राष्ट्र को ,जिसे भारत ,हिन्दुस्तान या इंडिया कहते हैं,पूरी तरह जकड चूका है.धीरे धीरे यह बात भी सामने आ रही है कि सब राजनैतिक दलों में एक अलिखित समझौता है कि नेताओं के सम्बन्धियों या ऐसे शक्तिशाली लोगों के विरुद्ध कोई भी दल आवाज नहीं उठाएगा .न्याय पालिका या मीडिया भी इससे अछूता नहीं है,क्योंकि एन केन प्रकारेण पैसा कमाना सर्वोपरी हो गया है.
आपने यह भी लिखा है कि हक़ीक़त तो यह है कि इस समय समर्पित,ईमानदार तथा पैसों की लालच का शिकार न होने वाला राजनीतिज्ञ शायद चिराग लेकर भी ढूंढने से नहीं मिले। इसके बावजूद देश की आशावादी जनता अब भी ईमादार,साफ़-सुथरी व भ्रष्टाचार मुक्त राजनैतिक व्यवस्था चलाए जाने की आस लगाए रहती है।अब आप ही बताईये कि आम जनता के पास आशा की किरण नहीं हो तो वह ज़िंदा कैसे रहे?कहीं से एक जुगनू की चमक भी उसका संबल बन जाती है.सत्तर के दशक में ऐसा हुआ था,पर उससे त्वरित लाभ तो हुआ,पर अंत में वही ढाक के तीन पात. अब एक नयी आशा की किरण लेकर अन्ना के अनुयायी आयें है.हो सकता है कि इसका हस्र भी वही हो,पर आज कम से कम जनता के सामने एक विकल्प तो फिर से आया है.
स्व हित के आगे देश हित तिरोहित हो गया है, देश हित खाली आम जनता के लिए है. बेबाक लेख के लिए साधुवाद.