प्रमोद भार्गव
नक्सली अभियान के विरुद्ध ओडिशा में एक नई सफलता मिली है।कंधमाल जिले में चली एक मुठभेड़ में सुरक्षा बलों ने चार माओवादियों को मार गिराया। इनमें 1.20 करोड़ रुपए के इनामी ओडिशा राज्य समिति के प्रभारी 69 वर्षीय गणेश उइके और दो महिलाएं भी शामिल हैं।इससे पता चलता है कि समूचे नक्सल प्रभावित क्षेत्र में महिलाएं भी सशक्त भूमिका निभा रहीं हैं।गणेश के मारे जाने के बाद अब ओडिशा नक्सल मुक्त होने की दिशा में तेजी से बढ़ेगा।इसके पहले बसव राजू और हिड़मा समेत नक्सली केंद्रीय समिति के एक दर्जन से अधिक शीर्ष माओवादी मुठभेड़ में मार गिराए गए हैं।इन नेतृत्व कर्ताओं की मृत्यु के बाद संगठनों का वर्चस्व खात्मे की ओर है।अतएव हम कह सकते हैं कि गृहमंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तक माओवाद के समूल नाश का जो वचन दिया है, वह पूरा होगा।
माओवादी अर्से से देश में एक ऐसी जहरीली विचारधारा रही है, जिसे नगरीय बौद्धिकों का समर्थन मिलता रहा है। ये बौद्धिक नक्सली संगठनों को आदिवासी समाज का हितचिंतक मानते रहे हैं, जबकि जो आदिवासी नक्सलियों के विरोध में रहे, उन्हें इनकी हिंसक क्रूरता का शिकार होना पड़ा है। बावजूद इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि देश के वामपंथी दलों को कभी भी सुरक्षाबलों का नक्सलियों के खिलाफ चलाया जा रहा सफाये का अभियान पसंद नहीं आया। इसिलए जब मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम ने नक्सलवाद के खिलाफ ऑपरेशन ग्रीनहंट चलाया था,तब उसका पुरजोर विरोध कांग्रेस समेत सभी सहयोगियों दलों ने किया,फलतः ऑपरेशन तो किसी नतीजे पर पहुंचे बिना ही दम तोड़ता चला गया,परंतु नक्सली संगठन के स्तर पर मजबूत और सुरक्षा बलों के लिए घातक होते चले गए।
नक्सली हिंसा लंबे समय से देश के अनेक प्रांतों में आंतरिक मुसीबत बनी हुई है। वामपंथी माओवादी उग्रवाद कभी देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा माना जाता रहा है। लेकिन चाहे जहां रक्तपात की नदियां बहाने वाले इस उग्रवाद पर लगभग नियंत्रण किया जा चुका है। नई रणनीति के अंतर्गत अब सरकार ने सीआरपीएफ की तैनाती उन सब अज्ञात क्षेत्रों में कर दी है, जहां नक्सली अभी भी ठिकाना बनाए हुए हैं। इस नाते केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में सबसे अधिक नक्सल हिंसा प्रभावित क्षेत्र में 4000 से अधिक सैन्यबल तैनात कर चुकी है। इतनी बड़ी संख्या में सैन्यबलों की अज्ञात क्षेत्र में पहुंच का मतलब है कि अब इस उग्रवाद से अंतिम लड़ाई होने वाली है। मजबूत और कठोर कार्य योजना को अमल में लाने का ही नतीजा है कि इस साल सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में 2024 में 153 नक्सली मारे जा चुके हैं। शाह का कहना है कि 2004-2014 की तुलना में 2014 से 2024 के दौरान देश में नक्सली हिंसा की घटनाओं में 53 प्रतिशत की कमी आई है। 2004 से 2014 के बीच नक्सली हिंसा की 16,274 वारदातें दर्ज की गई थीं, जबकि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 10 सालों में इन घटनाओं की संख्या घटकर 7,696 रह गई। इसी अनुपात में देश में माओवादी हिंसा के कारण होने वाली मौतों की संख्या 2004 से 2014 में 6,568 थीं, जो पिछले दस साल में घटकर 1990 रह गई हैं और अब सरकार ने जो नया संकल्प लिया है, उससे तय है कि जल्द ही इस समस्या को निर्मूल कर दिया जाएगा। जिस तरह से नरेंद्र मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से आतंक और अलगाववाद खत्म करने की निर्णायक लड़ाई लड़ी थी, वैसी ही स्थिति अब छत्तीसगढ़ में अनुभव होने लगी है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि छत्तीसगढ़ में नक्सली तंत्र कमजोर हुआ है, लेकिन उसकी शक्ति अभी शेष है। अब तक पुलिस व गुप्तचर एजेंसियां इनका सुराग लगाने में नाकाम होती रही थीं, लेकिन नक्सलियों पर शिकंजा कसने के बाद से इनको भी सूचनाएं मिलने लगी हैं। इसी का नतीजा है कि सैन्यबल इन्हें निशाना बनाने में लगातार कामयाब हो रहे हैं। छत्तीसगढ़ के ज्यादातर नक्सली आदिवासी हैं। इनका कार्यक्षेत्र वे आदिवासी बहुल इलाके हैं, जिनमें ये खुद आकर नक्सली बने हैं। इसलिए इनका सुराग सुरक्षाबलों को लगा पाना कठिन होता है। लेकिन ये इसी आदिवासी तंत्र से बने मुखबिरों से सूचनाएं आसानी से हासिल कर लेते हैं। दुर्गम जंगली क्षेत्रों के मार्गों में छिपने के स्थलों और जल स्रोतों से भी ये खूब परिचित हैं। इसलिए ये और इनकी शक्ति लंबे समय से यहीं के खाद-पानी से पोषित होती रही है। हालांकि अब इनके हमलों में कमी आई है। दरअसल इन वनवासियों में अर्बन माओवादी नक्सलियों ने यह भ्रम फैला दिया था कि सरकार उनके जंगल, जमीन और जल-स्रोत उद्योगपतियों को सौंपकर उन्हें बेदखल करने में लगी है, इसलिए यह सिलसिला जब तक थमता नहीं है, विरोध की मुहिम जारी रहनी चाहिए। सरकारें इस समस्या के निदान के लिए बातचीत के लिए भी आगे आईं, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। इन्हें बंदूक के जरिए भी काबू में लेने की कोशिशें हुई हैं। लेकिन नतीजे पूरी तरह अनुकूल नहीं रहे। एक उपाय यह भी हुआ कि जो नक्सली आदिवासी समर्पण कर मुख्यधारा में आ गए थे, उन्हें बंदूकें देकर नक्सलियों के विरुद्ध खड़ा करने की रणनीति भी अपनाई गई। इस उपाय में खून-खराबा तो बहुत हुआ, लेकिन समस्या बनी रही। गोया, आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने से लेकर विकास योजनाएं भी इस क्षेत्र को नक्सल मुक्त करने में अब तक सफल नहीं हो पाई हैं।
दरअसल, देश में अब तक तथाकथित शहरी बुद्धिजीवियों का एक तबका ऐसा भी रहा, जो माओवादी हिंसा को सही ठहराकर संवैधानिक लोकतंत्र को मुखर चुनौती देकर नक्सलियों का हिमायती बना हुआ था। यह न केवल उनको वैचारिक खुराक देकर उन्हें उकसाने का काम करता था, बल्कि उनके लिए धन और हथियार जुटाने के माध्यम भी खोलता था। बावजूद इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जब ये राष्ट्रघाती बुद्धिजीवी पुख्ता सबूतों के आधार पर गिरफ्तार किए गए तो बौद्धिकों और वकीलों के एक गुट ने देश के सर्वोच्च न्यायालय को भी प्रभाव में लेने की कोशिश की थी और गिरफ्तारियों को गलत ठहराया था। माओवादी किसी भी प्रकार की लोकतांत्रिक प्रक्रिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पसंद नहीं करते हैं। इसलिए जो भी उनके खिलाफ जाता है, उसकी बोलती बंद कर दी जाती हैं। लेकिन अब इस चरमपंथ पर पूर्ण अंकुश लगने जा रहा है।
व्यवस्था बदलने के बहाने 1967 में पश्चिम बंगाल के उत्तरी छोर पर नक्सलवाड़ी ग्राम से यह खूनी आंदोलन शुरू हुआ था। तब इसे नए विचार और राजनीति का वाहक कुछ साम्यवादी नेता, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री और मानवाधिकारवादियों ने माना था।लेकिन अंततः माओवादी नक्सलवाद में बदला यह तथाकथित आंदोलन खून से इबारत लिखने का ही पर्याय बना हुआ है। जबकि इसके मूल लक्ष्यों में नौजवानों की बेकारी, बिहार में जाति तथा भूमि के सवाल पर कमजोर व निर्बलों का उत्थान, आंध्र प्रदेश और अविभाजित मध्य-प्रदेश के आदिवासियों का कल्याण तथा राजस्थान के श्रीनाथ मंदिर में आदिवासियों के प्रवेश शामिल थे। किंतु विषमता और शोषण से जुड़ी भूमण्डलीय आर्थिक उदारवादी नीतियों को जबरन अमल में लाने की प्रक्रिया ने देश में एक बड़े लाल गलियारे का निर्माण कर दिया था, जो पशुपति (नेपाल) से तिरुपति (आंध्रप्रदेश) तक जाता है। इस पूरे क्षेत्र में माओवादी वाम चरमपंथ पसर गया था। इसने नेपाल, झारखण्ड, बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्रप्रदेश के एक ऐसे बड़े हिस्से को अपनी गिरफ्त में ले लिया था जो बेशकीमती जंगलों और खनिजों से भरे हैं। छत्तीसगढ़ के बैलाडीला में लौह अयस्क के उत्खनन से हुई यह शुरुआत ओड़ीसा की नियमगिरी पहाड़ियों में मौजूद बॉक्साइट के खनन तक पहुंच गई थी। यहां आदिवासियों की जमीनें वेदांता समूह ने अवैध हथकंडे अपनाकर जिस तरीके से छीनी थीं, उसे गैरकानूनी खुद देश की सर्वोच्च न्यायालय ने ठहराया था।
हालांकि खबरें तो यहां तक हैं कि पाकिस्तान और चीन माओवाद को बढ़ावा देने की दृष्टि से हथियार पंहुचाने की पूरी एक श्रृंखला बनाए हुए हैं। चीन ने नेपाल को माओवाद का गढ़ ऐसे ही सुनियोजित षड्यन्त्र रचकर वहां के हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को ध्वस्त किया। नेपाल के पशुपति से तिरुपति तक इसी किस्म के माओवाद को आगे बढ़ाने की मानसिकता को तथाकथित शहरी बौद्धिकों ने प्रोत्साहित किया। किंतु केंद्र नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से राष्ट्र-राज्य की परिकल्पना को चुनौती बने इस चरमपंथ के दिन गिनती के रह गए हैं।
प्रमोद भार्गव