धर्म का बाजार या बाजार का धर्म

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श्‍यामल सुमन

कई वर्षों का अभ्यास है कि रोज सबेरे सबेरे उठकर कुछ पढ़ा लिखा जाय क्योंकि यह समय मुझे सबसे शांत और महफूज लगता है। लेकिन जब कुछ पढ़ने लिखने के लिए तत्पर होता हूँ तो अक्सर मुझे दो अलग अलग स्थितियों का सामना अनिवार्य रूप से करना पड़ता हैं।

पहला – टी०वी० के कई चैनलों में धार्मिक प्रवचन सुनना जिसमें विभिन्न प्रकार के “धार्मिकता का चोला पहने” लोगों के “अस्वादिष्ट” प्रवचनों को सुनना शामिल है। इसके अतिरिक्त कसरत (योग भी कह सकते), हमेशा एक दूसरे के विपरीत भबिष्य फल बताने वाली “तीन देवियों” द्वारा राशिफल से लेकर शनि का भय दिखाते हुए लगभग “शनि” (मेरी कल्पना) जैसे ही डरावने वेश-भूषा धारण किए महात्मा की “संत-वाणी” भी सुननी पड़ती है, जिनके बारे में अभी तक नहीं समझ पाया हूँ कि वो कुछ समझा रहे हैं या धमकी दे रहे हैं। वो भी ऊँची आवाज में। अगर टी०वी० का “भोल्युम” कम करूँ तो सुमन (श्रीमती) जी कब “शनि-सा” व्यवहार करने लगे अनुमान लगाना कठिन है।

और दूसरा काम – बाजार खुलते खुलते मुझे दुकान पर पहुँच जाना पड़ता है क्योंकि पहले से कोई न कोई काम मेरे लिए “गृह-स्वामिनी” द्वारा निर्धारित किया जाता है ताकि मैं लेखन जैसे “बेकार” काम से अधिक से अधिक दूर रह सकूँ। दुकान में भी पहुँते ही वही देखता हूँ कि सेठ जी “मुनाफा” कमाने से पूर्व भगवान को खुश करने लिए “निजी धार्मिक अनुष्ठान” में कुछ देर तल्लीन रहते हैं। निस्सहाय खड़ा होकर सारे कृत्यों को देखना मेरी मजबूरी है क्योंकि पूजा के बाद जबतक दुकान से कोई नगदी खरीदारी न हो, उधार वाले को प्रायः ऐसे ही खड़ा रहना पड़ता है। कभी कभी तो नगदी खरीददारी वाले ग्राहक का भी इन्तजार करना मेरी विवशता बन जाती है और आज मेरी यही विवशता मेरे इस लेख के लिए एक आधार भी है।

देश में कई प्रकार के उद्योग पहले से स्थापित हैं जो अपनी नियमित उत्पादकता के कारण हमारे देश की आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ बने हुए है और जिसकी वजह से हमारी सुख-सुविधा एवं समृद्धि में लगातारिता बनी हुई है। हाल के कुछ बर्षों कई नए प्रकार के “अनुत्पादक उद्योगों” के नाम उभर कर बहुत तेजी और मजबूती से देशवासी के सामने आये हैं एवं जो लगातार समाज को बुरी तरह से खोखला कर रहा है। उदाहरण के लिए – अपहरण-उद्योग, नक्सल-उद्योग, राजनीति-उद्योग इत्यादि। इसी कड़ी में एक और उद्योग की ठोस और “सनातनी उपस्थिति” से इन्कार करना मुश्किल है और वो है “धर्म का उद्योग”।

अभी तक जितने भी ज्ञात-अज्ञात मुनाफा कमाने के संसाधन और क्रिया कलाप हैं उसमें धर्म सर्वोपरि है। साईं बाबा के साथ साथ कई कई बाबाओं के “बिना श्रम के अर्जित” सम्पत्तियों का मीडिया द्वारा उपलब्ध कराये गए ब्योरे के आधार पर यह कहना किसी के लिए भी कठिन नहीं है। इस उद्योग की बिशेषता यह है कि इसको स्थापित करने में कोई खास शुरुआती खर्च नहीं है – बस फायदा ही फायदा। केवल आपके वस्त्र “धार्मिकता” के आस पास दिखते हों। कभी कभी “लच्छेदार-भाषा” और लोक लुभावन “व्यावसायिक-मुस्कान” के साथ पाप-पुण्य का “भय” दिखाते हुए चुटकुलेबाजी करने का भी हुनर आप में होना चाहिए और इन सब के लिए कोई खास “प्रारम्भिक पूँजी” की आवश्यकता तो पड़ती नहीं है।

बाला जी का मंदिर हो या चिश्ती का दरगाह, आप जहाँ भी जाइये तो उस स्थल से बहुत पहले ही आपके आस पास किसी न किसी तरह “धार्मिक एजेन्टों” का अस्वाभाविक अवतार हो जाता है जो आपके पीछे हाथ धो कर पड़ जाते हैं और अपने को उस “सर्वशक्तिमान” का सच्चा दूत बताते हुए उनसे “डाइरेक्ट साक्षात्कार” या “पैरवी” कराने का वादा तब तक करते रहते हैं जब तक आप उसके “वश” में न हो जाएं या डाँट न पिलावें। फिर शुरु होता है पैसा ऐंठने का एक से एक “चतुराई भरा कुचक्र” जिससे निकलना एक साधारण आदमी के लिए मुशकिल ही होता है। सबेरे सबेरे भगवान की आराधना करने के बाद ये एजेन्ट भगवान के ही नाम पर खुलेआम “मुनाफा” कमाने के लिए कई प्रकार के जायज(?) नाजायज जुगत में तल्लीन हो जाते हैं जिसके शिकार अक्सर वे सीधे-सादे साधारण इन्सान होते हैं जो बड़ी कठिनाई से पैसे का जुगाड़ करके अपने आराध्य का दर्शन करने आते हैं।

और बाजार में क्या होता है? बिल्कुल यही दृश्य, यही कारोबार। सारे के सारे दुकानदार अपना दुकान खोलते ही अपने अपने आराध्य की आराधना करते हैं और फिर शुरू हो जाता है अधिक से अधिक मुनाफा कमाने का जुगाड़। एक लक्ष्य मुनाफा बटोरना है चाहे जो करना पड़े। इनके भी मुख्य शिकार वही “आम आदमी” हैं जो अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए बड़ी मुश्किल से बाजार का रूख कर पाते हैं वो भी सिर्फ जीने भर की जरूरतों के लिए।

कोई धर्म-सथल हो या बाजार, सब जगह की “नीति और रीति” एक है। यदि चलतऊ भाषा में कहा जाय तो अधिक से अधिक अपने ग्राहकों को “छीलना” अर्थात मुनाफा कमाना। इसके लिए वे आमतौर पर वाकचातुर्यता की चासनी में लपेट कर झूठ और कई प्रकार के तिकड़म का सहारा लेते हैं। मजे की बात है कि दोनों (धर्म-स्थल और बाजार)जगहों में ये सारे फरेब भगवान की “आराधना” के बाद ही शुरू होता है मानो भगवान से “इजाजत” लेकर। और “बेचारे” भगवान का क्या दोष? वे तो पत्थर के हैं। क्या कर सकते हैं? सब चुपचाप देखते रहते हैं सारे अन्याय को। आखिर उन्हीं के “परमिशन” से तो शुरू किया जाता है यह कातिल खेल।

वैश्वीकरण के बाद अपने देश में बाजारवाद पर बहुत चर्चाएं हुईं। इसकी अच्छाई और बुराई पर भी। लेकिन मेरे जैसा मूरख यह अभी तक नहीं समझ पाया कि बाजार अपना धर्म निभा रहा है या धर्म ही एक बाजार बन गया है और हठात् ये पंक्तियाँ निकल आतीं हैं कि-

बाजार और प्रभु का दरबार एक जैसा

सब खेल मुनाफे का आराधना ये कैसी?

3 COMMENTS

  1. बहुत बहुत धन्यवाद डा० कपूर एवं बिपिन जी – लेखन कर्म मेरा शौक नहीं बल्कि एक तपस्या है मेरे लिए. मैं किसी भी पूर्वाग्रह का शिकार नहीं हूँ और हमेशा सीखने के लिए एक क्या कई सीढियां उतर सकता हूँ – तारीफों से ज्यादा मुझे हमेशा से सार्थक आलोचनाओं / सुझावों का इंतज़ार रहता है – मैं ये अच्छी तरह से जनता हूँ कि मेरे जैसे लिखनेवाले करोड़ों में हैं – साथ साथ यह भी भलीभांति जनता और समझता हूँ कि हर कोई मेरी बातों से क्यों सहमत होगा? सबके अपने अपने विचार होंगे – जो सहमति और असहमति दोनों रूप में आ सकते हैं – मैं स्वयं धर्म से अगाध प्रेम करनेवालों में से एक हूँ लेकिन उसमें व्याप्त बुराइयों से नहीं – धर्म के नाम पर होनेवाले शोषण और अनाचारों से नहीं.

    हो सकता है मेरे विश्लेषण में भी कमी हो – आप पाठकों के विचारों का हमेशा स्वागत है – लेकिन क्या रचना के कथ्य का आज के सामाजिक जीवन में उपजी विद्रूपताओं से सरोकार है या नहीं? क्या ये व्यंग्यात्मक आलेख आज के यथार्थ से आँखें मिला रही है कि नहीं? सच तो यह है कि धर्म के मूल तत्व कालक्रम में महत्वहीन हो गए हैं आज के परिवेश में और धीरे धीरे धर्म बाजारोन्मुख हो गया है – धर्म के नाम पर साधारण लोग ठगे जा रहे हैं सरेआम और हम सब परम्पराओं के नाम पर सहने को विवश हैं – समाज की यही विवशता कलम उठाने को मजबूर करती है और यकायक ये ग़ज़ल निकल पड़ती है कि –

    सम्वेदना ये कैसी?
    सब जानते प्रभु तो है प्रार्थना ये कैसी?
    किस्मत की बात सच तो नित साधना ये कैसी?

    जितनी भी प्रार्थनाएं इक माँग-पत्र सचमुच
    यदि फर्ज को निभाते फिर वन्दना ये कैसी?

    हम हैं तभी तो तुम हो रौनक तुम्हारे दर पे
    चढ़ते हैं क्यों चढ़ावे नित कामना ये कैसी?

    होती जहाँ पे पूजा हैं मैकदे भी रौशन
    दोनों में इक सही तो अवमानना ये कैसी?

    मरते हैं भूखे कितने कोई खा के मर रहा है
    सब कुछ तुम्हारे वश में सम्वेदना ये कैसी?

    बाजार और प्रभु का दरबार एक जैसा
    सब खेल मुनाफे का आराधना ये कैसी?

    जहाँ प्रेम हो परस्पर क्यों डर के करें पूजा
    संवाद सुमन उनसे सम्भावना ये कैसी?

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    https://www.manoramsuman.blogspot.com
    https://meraayeena.blogspot.com/
    https://maithilbhooshan.blogspot.com/

  2. श्यामल जी आपमें लेखन प्रतिभा तो है पर विश्लेषण में आप चूक करते नज़र आ रहे है. आपका अधिकार यदि लेखन का है तो दूसरों को भी तो अपनी पसंद के अनुसार जीने का अधिकार है की नहीं ? धार्मिक परम्पराओं के महत्व को और प्रभावों को न समझने के पूर्वाग्रह को त्याग कर गहराई में जाने का प्रयास करेंगे तो बहुत कुछ पा जायेंगे. अपने सही होने के अहम् की सीढ़ी से थोड़ा नीचे उतर कर समझने का प्रयास करेंगे तो बहुत कुछ नया सीखने का अवसर मिलेगा. अंत में एक ही बात कहूंगा की जब आप प्रवक्ता पर आते हैं तो यह तो मान कर चलें की केवल प्रशंसा नहीं, आलोचना के प्रहार भी मिलेंगे. अन्यथा आप जो भी जानते मानते हों, आपको किसने रोका है. पर नैट पर आने के बाद तो सब कुछ झेलने की तैयारी चाहिए. अतः आशा ही की टिप्पणियों को सकारात्मक रूप में लेंगे. आपकी लेखन प्रतिभा को देखने के बाद मन हुआ की कुछ विमर्श किया जाए. आगे क्रम जारी रखना तो आपकी प्रतिक्रया पर निर्भर करेगा. शुभ कामनाएं.

  3. सुमन जी आपको किसने कहा की आप सुबह सुबह उन बेस्वाद प्रवचनों को यदि वे वेस्वाद है तो ग्रहण करे आप आराम से चादर ओढ़ कर
    दुसरे कमरे में सो जाये आपकी श्रीमती जी इसके लिए मना थोड़े ही करेंगी और अगर योग क्रिया आपको कसरत नजर आती है तो आप को किसी ने कहा क़ि आप इसे करे . आपको तो मजा इसमें आता है क़ि कुछ
    बकवास टाइप के लेख लिखे जाय यदि इसे लेख कहा जाये तो और उसे प्रवक्ता डोट कॉम पर ड़ाल दिया जाय ,क्यों है न इसका मतलब यह नहीं है क़ि इन सब दकियानूसी बातों का में समर्थन करता हूँ पर यह एक गैर जरूरी
    आवस्यकता है जैसे अन्य गैर जरूरी बाते
    बिपिन कुमार सिन्हा

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