धर्म-अध्यात्म

धर्म या व्यापार?

आर. सिंह

ऐसे तो धर्म की आड़ में व्यापार हमेशा होता आया है,अतः यह कोई नयी बात नहीं,पर यहाँ तो धर्म की आड़ में जुर्म हुआ है, अतःइसका शीर्षक होना चाहिये था धर्म और जुर्म.आज मेरे सामने दो समाचार हैं. दोनों धर्म की आड़ में जुर्म से संबंधित हैं.

पहला समाचार यों है,

१९८७ में जब ब्रिज बिहारी ८४ वर्ष का था तो उस पर हत्या करने का दौरा पड़ा और उसने अपने सम्बन्धियों के साथ मिल कर बहुत से लोगों की हत्याएं कर दी. कारण केवल यही था की उसको एडी चोटी का जोर लगाने पर भी उस इलाके के जगन्नाथ मन्दिर का महंत नहीं बनाया गया. उस पद को प्राप्त करने के लिए उसनेअपने ढंग से शायद तपस्या भी की थी. मांसाहारी से पूर्ण शाकाहारी बन गया था ८४ वर्ष की उम्र तक पहुचने में उस सपने को साकार करने के लिए उसने न जाने कितने और पापड़ बेले थे. फिर भी उसको महंत के पद पर प्रतिष्ठित होने का अवसर नहीं मिला. वह इसको वर्दास्त नहीं कर सका और तब चला था हत्याओं का दौर.आज वह १०८ वर्ष की उम्र में हवालात से बाहर आया है.यह तो हुई एक साधारण व्यक्ति की कहानी जोअपने ढंग से उच्च पद पर आसीन होना चाहता था और निराशा ने उसे जुर्म की दुनिया में पहुँचा दिया.

अब हम एक नजर दूसरे समाचार पर डालें.

दूसरा समाचार है हमारे ख्याति प्राप्त और चमत्कारी स्वर्गीय सत्य साईँ बाबा के बारे में ,जिनको उनके भक्त ईश्वर का दर्जा देतें हैं.ऐसे तो हमारी परम्परा कहती है कि किसी मृतक की आलोचना उचित नहीं है,पर जब मृत प्राणी ख्याति नामा हो तो उसका सही मूल्यांकन उसके मरणोंप्रांत ही हो सकता है.यह तर्क मेरे विचार से जितना अर्जुन सिंह जैसे नेता के लिए मान्य है उतना ही तथाकथित भगवान् के लिए.

समाचार है कि सत्य साईँ बाबा के निजी कमरे से ९८ किलोग्राम सोना,३०७ किलोग्राम चांदी और ११.५६ रूपये नगद निकले. समाचार के अनुसार इसका कहीं कोई व्योरा उपलब्ध नहीं है.अभी हो सकता है कि ऎसी अन्य छुपाई हुई सम्पतियाँ भी सामने आये. यह सब क्या है?यह भी तो काला धन ही है.अगर कोई कहे कि यह धन तो उनके चमत्कार द्वारा उत्पन्न हुआ है तो उस हालत में भी इस धन को सामने लाना स्वर्गीय सत्य साईँ बाबा का कर्तव्य था. मैं तो खैर ऐसे चमत्कारों पर विश्वास करता ही नहीं

मेरे ख्याल से तो स्वीश या विदेशों के अन्य बैंकों में जमा काले धन और इसमें या इसी तरह देश के किसी भी हिस्से में छिपाए हुए धन में कोई अंतर नहीं है.

ये दोनों कारनामें चूंकि धर्म की आड़ में किये गये हैं अत: इसका महत्व और बढ़ जाता है.

दोष किसको दें?

क्या यह हमारे पूर्ण चरित्र पर एक प्रश्न चिह्न नही बन जाता?