
मनोज ज्वाला
हमारे राष्ट्र-गान में ‘जन-मन’ के बीच में है ‘गण’ । शब्दों के इस
क्रम के अपने विशेष निहितार्थ हैं । जन अर्थात जनता को अभिव्यक्त करने
वाला व्यक्ति तथा गण अर्थात व्यक्तियों के संगठन-समूह अथवा उनके
प्रतिनिधि और मन अर्थात इच्छा या पसंद । “ जन-गण-मन अधिनायक जय हे ”
अर्थात , जनता के संगठन-सामूह को भाने वाले इच्छित अधिनायक की जय हो । इस
राष्ट्रगान में ‘अधिनायक’ कौन है , यह अलग विषय है । मेरे कहने का मतलब
सिर्फ यह है कि जनता के मन की अभिव्यक्ति उसकी संगठित सामूहिकता, अर्थात
‘गण’ के बिना सम्भव नहीं है ; इसी कारण जन मन के बीच गण का होना
अपरिहार्य है । ठीक इसी तरह से गण की महत्ता भी जन-मन के बिना कतई नहीं
है , जबकि जनता के मन के बिना कोई गण कायम ही नहीं हो सकता । ऐसे में
जन-मन के बिना अथवा जन-मन की उपेक्षा कर के और जन-मन के विरूद्ध किसी
बाहरी शक्ति के द्वारा कोई गण कायम किया जाना अनुचित भी है और अनैतिक भी
; क्योंकि तब वह ‘गण’ ‘जन-मन’ के अनुकूल नहीं होने के कारण जनता के लिए
मंगलकारी कतई नहीं हो सकता । और , अगर शासन के ‘गणतंत्र’ की बात करें ,
तो इसके साथ जन मन का होना तो और भी अपरिहार्य है , क्योंकि इसके बगैर
गणतंत्र अनर्थकारी हो जाता है ; ठीक वैसे ही जैसे हमारे देश का वर्तमान
गणतंत्र ।
२६ जनवरी १९५० को स्थापित भारतीय गणतंत्र भारत के जन
मन से निर्मित नहीं है बल्कि ‘इन्डिया दैट इज भारत’ के संविधान पर आधारित
है । यह संविधान तो वस्तुतः भारत पर ब्रिटिश शासन को अधिकाधिक
सुविधा-अनुकूलता प्रदान करने के बावत ब्रिटिश पार्लियामेण्ट द्वारा
काऊंसिल ऐक्ट-१८६१ के बाद हमारे ऊपर थोपे गए उसके विभिन्न अधिनियमों,
जिनमें प्रमुख हैं- ‘भारत शासन अधिनियम-१९३५’ तथा ‘कैबिनेट मिशन
अधिनियम-१९४६’ और ‘भारत स्वतंत्रता अधिनियम-१९४७ का संकलन ही है अधिकतर ।
इसकी जड दर-असल सन १८५७ के भारतीय स्वतंत्रता-संग्रामकारी ‘जन-विद्रोह’
से घबरायी हुई ब्रिटिश सत्ता की पार्लियामेण्ट द्वारा भारत पर शासन करते
रहने की सुविधा-अनुकूलता कायम करने की गुप्त योजना के तहत जनता के बीच से
पढे-लिखे विशिष्ट लोगों को जन-प्रतिनिधि के तौर पर मनोनीत-निर्वाचित
करने-कराने तथा उन्हें तदनुसार प्रशिक्षित किये जाने के निमित्त सन १८६१
में लाए गए ‘इण्डिया काऊंसिल ऐक्ट’ में है ।
मालूम हो कि सन १८८५ में ए० ओ० ह्यूम नामक एक अंग्रेज
अधिकारी के हाथों कांग्रेस की स्थापना करना-कराना भी ब्रिटिश हुक्मरानों
की उसी गुप्त योजना की अगली कडी थी । ब्रिटिश शासन की उसी कूटनीति की उपज
थी भारत में ब्रिटिश ढर्रे की चुनावी संसदीय राजनीति , जिसकी
संवाहक-सहायक बनी कांग्रेस । कांग्रेस के सहारे जन-प्रतिरोध-विरोध की
युरोपियन पद्धति के रूप में देश भर में स्थापित हो चुकी वही राजनीति बाद
में सत्त-सुख हासिल करने के आधुनिक चुनावी लोकतंत्र में तब्दील हो गई ।
भारत में इस चुनावी लोकतंत्र और कांग्रेस नामक राजनीतिक संगठन का
उद्भव-विकास एक- दूसरे के समानान्तर , लगभग साथ-साथ ही परस्पर पूरक या
यों कहिए कि अन्योन्याश्रय के तौर पर हुआ । इस कारण गणतंत्र की दशा-दिशा
का निर्माण व निर्धारण लोकतंत्र की व्याप्ति-प्रवृति तथा कांग्रेस की
कार्य-संस्कृति और ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की रीति-नीति के अनुसार ही
हुआ । जाहिर है , यह संविधान व गणतंत्र जिन आधारभूत ब्रिटिश अधिनियमों के
सतत विकसित क्रियान्वयन तथा कांग्रेस के हाथों सत्ता-हस्तातरण की
प्रक्रियाओं का प्रतिफलन है , उनका सम्बन्ध-सरोकार भारतीय जनता की
आकांक्षाओं के साथ कम ही था । क्योंकि उनका निर्माण ही हुआ था उस
जन-विरोधी शासन की स्वीकार्यता, सुविधा व अनुकूलता कायम करने के निमित्त
। ऐसे में उन तथाकथित जन-प्रतिनिधियों और कांग्रेस के नेताओं की
मंशा-मानसिकता , नीति , नीयत व नियति और चित्ति-प्रवृति क्या व कैसी रही
होगी तथा उनके साथ भारत का जन-मन कितना व किस तरह से रहा होग , इसे आप
महज एक उदाहरण से समझ सकते हैं ।
सीमित मताधिकार के तहत सन १९३६ में हुए चुनाव से पहले सन १९३४
में कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व ने नीचे की सभी ईकाइयों को निर्देश
दिया कि वे कांग्रेस-समितियों का चुनाव सम्पन्न करा कर उनका पुनर्गठन
करें । तब सत्ताकांक्षी धन-सम्पन्न कांग्रेसियों ने अपनी-अपनी जेबों से
सदस्यता और खादी के पैसे चुका कर भारी संख्या में फर्जी सदस्य बना-बना कर
उनकी बदौलत स्वयं बडे-बडे पद हथिया लिए । इस भ्रष्टाचार पर कन्हैयालाल
माणिकलाल मुंशी जैसे नेताओं ने चिन्ताजनक प्रतिक्रिया जताते हुए महात्मा
गांधी को सूचित किया तो गांधीजी ने एक सप्ताह का प्रायश्चित उपवास किया
था । बाद में वे ही लोग सन १९३६ में और सन १९४५ में सीमित मताधिकार से
हुए चुनाव के जरिये निर्वाचित होकर प्रान्तीय व्यवस्थापिका-सभाओं और
केन्द्रीय विधान-परिषद के सदस्य बन गए । जाहिर है वे लोग कहीं से भी ,
किसी भी तरह से आम जन-प्रतिनिधि नहीं थे, क्योंकि उन्हें चुनने वाले लोग
आम वयस्क मतदाता नहीं , बल्कि कुछ खास वर्ग के लोग ही हुआ करते थे ।
उन्हीं प्रान्तीय विधान-सभाओं द्वारा परोक्ष रूप से चुने गए
३०० विधायकों , जिनमें कांग्रेस के २१२ व मुस्लिम लीग के ७२ एवं १६ अन्य
शामिल थे और देशी रियासतों के ७९ प्रतिनिधियों को मिला कर १६ जुलाई १९४६
को ब्रिटिश सरकार के कैबिनेट मिशन प्लान के तहत संविधान सभा गठित-घोषित
कर दिया गया । वह ‘संविधान सभा’ सर्वप्रभुतासम्पन्न कतई नहीं थी ,
क्योंकि उसे उस कैबिनेट मिशन प्लान के दायरे में ही एक प्राधिकृत ब्रिटिश
नौकरशाह बी० एन० राव (आई० सी० एस०) के परामर्शानुसार संविधान तैयार करना
था । १३ दिसंबर १९४६ को उस संविधान-सभा की एक समिति द्वारा संविधान की
प्रस्तावना पेश की गयी, जिसे २२ जनवरी १९४७ को सभा ने स्वीकार किया । सभा
की उस बैठक में कुल २१४ सदस्य ही उपस्थित थे । अर्थात ३५ करोड की आबादी
वाले देश के महज ३८९ सदस्यों वाली संविधान-सभा में कुल ५५% सदस्यों ने ही
संविधान की प्रस्तावना को स्वीकार कर किया , जिसे संविधान की आधारशिला
माना जाता है । इस स्थिति को रेखांकित करते हुए उक्त संविधान-सभा के ही
एक सदस्य दामोदर स्वरूप सेठ ने उक्त सभा की अध्यक्षीय पीठ को संबोधित
करते हुए सवाल उठाया था- “ क्या यह संविधान-सभा हमारे देश के सम्पूर्ण
जन-समुदाय की प्रतिनिधि होने का दावा कर सकती है । मैं दावे के साथ कहता
हूं कि यह सभा मात्र १५ % लोगों का प्रतिनिधित्व करती है , जिन्होंने
प्रान्तीय विधान-सभाओं का चयन किया । ऐसी स्थिति में जब देश के ८५ %
लोगों का प्रतिनिधित्व न हो , उनकी कोई आवाज न हो ; तब इस सभा को देश का
संविधान बनाने का अधिकार है , यह मान लेना मेरी राय में गलत होगा ।”
परन्तु अपने देश के जन-मन का दुर्भाग्य देखिए कि
उन्हीं तथाकथित जन-प्रतिनिधियों ने ब्रिटिश पार्लियामेण्ट से पारित
उपरोक्त अधिनियमों की खिचडी में एक ब्रिटिश नौकरशाह द्वरा इंग्लैण्ड
अमेरिका रुस, फ्रांस, जर्मनी , स्विटजरलैण्ड , कनाडा आदि दर्जनाधिक देशों
के संविधानों से लाए हुए नमक-मिर्च-मशाला की छौंक लगा कर उसे ही ‘इण्डिया
दैट इज भारत का संविधान’ घोषित कर ‘हम भारत के लोगों’ से पूछे बिना ‘हम
भारत के लोग इसे आत्मार्पित करते हैं’ ऐसी घोषणा लिख कर अपने-अपने
हस्ताक्षर कर दिए । उस सभा में भारतीय जनता की सहमति और हम भारत के लोगों
की अभिव्यक्ति लेश मात्र भी नहीं थी । हम भारत के लोगों का यह संविधान
कहीं से भी भारतीय है ही नहीं । जाहिर है , ऐसे अभारतीय संविधान से
निर्मित हमारा गणतंत्र भी वैशाली , मगध , लिच्छवी साम्राज्य के गौरवशाली
शासन वाला भारतीय गणतंत्र नहीं है । भारत पर ब्रिटिश योजना के तहत
अभारतीय संविधान थोपना एक षड्यंत्रपूर्ण अनर्थ है , जिसका परिणाम हमारे
सामने है कि इससे निर्मित गणतंत्र आज तक हमारे स्वतंत्रता
सेनानियों-शहीदों के सपनों और भारतीय जन-मन के अरमानों को पूरा करने में
एकबारगी असफल ही सिद्ध हो रहा है । ०२ सितम्बर १९५३ को राज्यसभा में
भीमराव अम्बेदकर ने कहा था- “ मैं संविधान का निर्माता नहीं हूं , मैं तो
उस समय भाडे का टट्टू था, मुझे जो कुछ करने को कहा ग्या , वह मैंने अपनी
इच्छा किया ।” स्पष्ट है कि ‘जन-मन’ के बिना ही कायम हुआ यह गणतंत्र
‘भारतीय गणतंत्र’ कतई नहीं है ; बल्कि यह ‘अंग्रेजी गणतंत्र’ है जो हमारे
लिए एक त्रासद विडम्बना से अधिक और कुछ नहीं है ।
ऐतिहासिक अवधारणाओं अनुसार जन-मन के बिना ‘गण’ तंत्र एक त्रासद विडम्बना तो है ही लेकिन वर्षों तथाकथित राजनीतिक नेताओं, अधिकारी-तंत्र, बुद्धिजीवियों और समाज के अन्य अग्रणियों द्वारा उनके व्यक्तिगत स्वार्थ व नासमझी के कारण देश पर जन-मन के बिना ऐसे “गण” तंत्र के दीर्घकालिक दुष्परिणामों की अवहेलना करते रहना उससे भी अधिक त्रासद विडंबना है| देश की न्यायपालिका में दशकों कार्य करते न्यायाधीशों तथा अन्य कर्मचारियों ने क्या कभी प्रश्न किया है कि स्वतंत्रता के पश्चात इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल द्वारा १८६१ और १९४७ के बीच पारित अधिनियमों के अंतर्गत हम किस संविधान का अनुसरण करते रहे हैं?
श्री मनोज ज्वाला जी से अनुरोध है कि वे देश व देशवासियों पर इस त्रासद विडंबना के दीर्घकालिक दुष्परिणामों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करें|