आरक्षण की नाव पर सवार मायावती

प्रमोद भार्गव

लगता है उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती आरक्षण की नाव पर सवार होकर चुनाव वैतरणी पार करना चाहती हैं। क्योंकि विधानसभा नजदीक आते देख पहले उन्होंने सरकारी नौकरियों में मुसिलम आरक्षण की मांग उठार्इ और अब प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर सवर्ण जातियों में आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को आरक्षण की मांग रखकर एक बार आरक्षण के मुददे को चिंगारी दिखा दी है। हालांकि यह चिंगारी सुलगकर ज्वाला बनने वाली नहीं है क्योंकि सभी जानते हैं कि चुनाव के ठीक पहले उठार्इ गर्इ यह मांग एक शिगूफा भर है। इससे न तो मुसिलमों के हित सधने जा रहे और न गरीब सवर्णों के ? इस मुददे की हवा केन्द्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने यह बयान देकर निकाल दी है कि संप्रग सरकार सरकारी नौकरियों एंव शिक्षा में मुसिलमों को आरक्षण देने पर गंभीरता से विचार कर रही है। इस दिशा में सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट के आधार पर वह पहले ही ठोस कदम उठा चुकी है। आरक्षण के टोटके छोड़ने की बजाय किसी भी राजनीतिक दल को यहां सोचने की यह जरूरत है कि आरक्षण का एक समय सामाजिक न्याय से वास्ता जरूर रहा है, लेकिन सभी वर्गो में शिक्षा हासिल करने के बाद जिस तरह से देश में शिक्षित बेरोजगारों की फौज खड़ी हो गर्इ है, उसका कारगर उपाय आरक्षण जैसे चुक चुके औजार से अब संभव नहीं है। इस सिलसिले में हम गुर्जर और जाट आंदोलनों का भी हश्र देख चुके हैं। लिहाजा राजनीतिक दल अब सामाजिक न्याय के सवालों के हल आरक्षण के हथियार से खोजने की बजाए रोजगार के नए अवसरों का सृजन कर निकाले तो बेहतर होगा।

यदि वोट की रजनीति से परे अब तक दिए गये आरक्षण लाभ का र्इमानदारी से मूल्यांकन किया जाए तो साबित हो जाएगा कि जातियों को यह लाभ जिन जातियों को मिला है, उन जातियों का समग्र तो क्या आंशिक कायाकल्प भी नहीं पाया है। केन्द्र सरकार हल्ला न हो इसलिए जिस कछुआ चाल से मुस्लमानों को आरक्षण देने की तैयारी में जुटी है यदि उस पर अमल होता है तो यह झुनझुना गरीब अल्पसंख्यकों के लिए छलावा ही साबित होगा। केन्द्रीय अल्पसंख्यक मामलों के प्रगतिशील मंत्री सलमान खुर्शीद को जरूरत है कि मुसलमानों को धार्मिक जड़ता और भाषार्इ शिक्षा से उबारने के लिए पहले एक राष्ट्रव्यापी मुहिम चलाएं। क्योकि कुछ मुसलिमों ने ‘शिक्षा का अधिकार विधेयक से आशंकित होकर शंका जतार्इ है कि यह कानून मुसलमानों की भाषार्इ शिक्षा प्रणाली पर कुठाराघात है। हालांकि खुर्शीद ने ऐसी आशंकाओं को पूरी तरह खारिज करते हुए साफ कर दिया हैै कि ‘मदरसा शिक्षा या अनुच्छेद 29 और 30 की अनदेखी, यह कानून नहीं करता, लिहाजा मुसलमानों को सोचने की जरूरत है कि टेक्नोलाजी के युग में मदरसा शिक्षा से बड़े हित हासिल होने वाले नहीं है। मायावती को भी आरक्षण का झुनझुना छोड़ने से बाज आकर रोजगार के नए अवसर उत्सर्जित करना चाहिए।

वंचित समुदाय वह चाहे अल्पसंख्यक हों अथवा गरीब सवर्ण उनको बेहतरी के उचित अवसर देना लाजिमी है, क्योंकि किसी भी बदहाली की सूरत अब अल्पसंख्यक अथवा जातिवादी चश्मे से नहीं सुधारी जा सकती ? खाध की उपलब्धता से लेेकर शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी जितने भी ठोस मानवीय सरोकार हैं उनको हासिल करना मौजूदा दौर में केवल पूंजी और शिक्षा से ही संभव है। ऐसे में आरक्षण के सरोकारों के जो वास्तविक हकदार हैं, वे अपरिहार्य योग्यता के दायरे में न आ पाने के कारण उपेक्षित ही रहेंगे। अलबत्ता आरक्षण का सारा लाभ वे बटोर ले जाएंगे जो आर्थिक रूप से पहले से ही सक्षम हैं और जिनके बच्चे पबिलक स्कूलों से पढ़े हैं। इसलिए इस संदर्भ में मुसलमानों और भाषायी अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की वकालात करने वाली रंगनाथ मिश्र आयोग की रिर्पाट के भी बुनियादी मायने नहीं हैं। और न ही इसे लागू करने से वास्तविक हकदारों के हक सधने वाले हैं। यह रिर्पाट लाखों करोड़ों लोगों की भावनाओं के साथ एक तरह का खिलवाड है क्योंकि मिश्र आयोग का गठन ‘जांच आयोग कानून के तहत नहीं किया गया था।

यह सही है कि हमारे देश में आज भी धर्म और जाति आधारित भेदभाव बदस्तूर हैं। जबकि संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार धर्म, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर राष्ट्र किसी भी नागरिक के साथ पक्षपात नहीं कर सकता। इस दृषिट से संविधान में विरोधाभास भी है। संविधान के तीसरे अनुच्छेद, अनुसूचित जाति आदेश 1950 जिसे प्रेसिडेनिशयल आर्डर के नाम से भी जाना जाता है, के अनुसार केवल हिंदू धर्म का पालन करने वालों के अतिरिक्त किसी अन्य व्यकित को अनुसूचित जाति की श्रेणी में नहीं माना जाएगा। इस परिप्रेक्ष्य में अन्य धर्म समुदायों के दलित और हिंदू दलितों के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा है, जो समता और सामाजिक न्याय में भेद करती है। इसी तारतम्य में पिछले पचास सालों से दलित र्इसार्इ और दलित मुसलमान संघर्षरत रहते हुए हिंदू अनुसूचित जातियों को दिए जाने वाले अधिकारों की मांग करते चले आ रहे हैं। रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट इसी भेद को दूर करने की पैरवी करती है।

वर्तमान समय में मुसलमान, सिख, पारसी, र्इसार्इ और बौद्ध ही अल्पसंख्यक दायरे में आते हैं। जबकि जैन, बहार्इ और कुछ दूसरे धर्म-समुदाय भी अल्पसंख्यक दर्जा हासिल करना चाहते हैं। लेकिन जैन समुदाय केन्द्र द्वारा अधिसूचित सूची में नहीं है। इसमें भाषार्इ अल्पसंख्यकों को अधिसूचित किया गया है, धार्मिक अल्पसंख्यकों को नहीं। सुप्रि्रम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक माना गया है। परंतु इन्हें अधिसूचित करने का अधिकार राज्यों को है, केन्द्र को नहीं। इन्हीं वजहों से आतंकवाद के चलते अपनी ही पुश्तैनी जमीन से बेदखल किए गए कश्मीरी पंडित अल्पसंख्यक के दायरे में नहीं आ पा रहे हैं। हालांकि व्यकितगत स्तर पर सलमान खुर्शीद भी मानते है कि कश्मीरी पंडित अल्पसंख्यक हैं। मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह की कांग्रेस सरकार के दौरान जैन धर्मावलंबियों को भी अल्पसंख्यक दर्जा दे दिया था, लेकिन अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली सुविधाओं से ये आज भी सर्वथा वंचित हैं। इस नाते ‘ अल्पसंख्यक श्रेणी का अधिकार पा लेने के क्या राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक निहितार्थ हैं, इन्हें समझना मुशिकल है। यहां तक कि आर्थिक रूप से कमजोर जैन धर्मावलंबियों के बच्चों को छात्रवृत्ति भी नहीं दी जाती।

वैसे भी मिश्र आयोग का गठन ‘जांच आयोग के तहत नहीं हुआ है। दरअसल इस रपट का मकसद केवल इतना था कि धार्मिक व भाषार्इ अल्पसंंख्यकों के बीच आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर व पिछडे़ तबकों की पहचान कर अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण सहित अन्य जरूरी कल्याणकारी उपाय सुझाये जाएं। जिससे उनका सामाजिक स्तर सम्मानजनक सिथति हासिल कर ले। इस नजरिये से सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों का औसत अनुपात बेहद कम है। गोया संविधान में सामाजिक और शैक्षिक शब्दों के साथ ‘पिछड़ा शब्द की शर्त का उल्लेख किये बिना इन्हें पिछड़ा माना जाकर अल्पसंख्यक समुदायों को 15 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था सुनिशिचत की जानी चाहिए। इसमें से 10 फीसदी केवल मुसलमानों को और पांच फीसदी गैर मुसिलम अल्पसंख्यकों को दिए जाने का प्रावधान तय हो। शैक्षिक संस्थाओं के लिए भी आरक्षण की यही व्यवस्था प्रस्तावित है। यदि इन प्रावधानों के क्रियान्वयन में कोर्इ परेशानी आती है तो पिछड़े वर्ग को आरक्षण की जो 27 प्रतिशत की सुविधा हासिल है, उसमें कटौती कर 8.4 प्रतिशत की दावेदारी अल्पसंख्यकों की तय हो। वेैसे भी केरल में 12 प्रतिशत, तमिलनाडू 3.5, कर्नाटक 4, बिहार 3, पशिचम बंगाल10 और आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा 4 फीसदी मुसिलमों आरक्षण पिछड़ा वर्ग के आधार पर ही दिया गया है। केरल में तो आजादी के पहले से यह व्यवस्था लागू है। लिहाजो इस प्रावधान के तहत छह प्रतिशत मुसलमान और 2.4 प्रतिशत अन्य अल्पसंख्यक समुदायों को आरक्षण की सुविधा दी जा सकती है। लिए सुनिशिचत हो। चूंकि सच्चर समिति की रिपोर्ट मिश्र आयोग के गठन से पहले आ गर्इ थी इसलिए इस रिपोर्ट को विपक्ष सच्चर समिति को अमली जामा पहनाने के रूप में भी देखता चला आ रहा है। सच्चर और मिश्र रिपोटों में फर्क इतना है कि सच्चर का आंकलन केवल मुसिलम समुदाय तक सीमित था, जबकि मिश्र आयोग ने सभी अल्पसंख्यक समुदायों और उनमें भी दलितों की बदहाल सिथति का ब्यौरा दर्ज किया है।

यहां संकट यह है कि पिछड़ों के आरक्षित हितों में कटौती कर अल्पसंख्यकों के हित साधना आसान नहीं है। इस रिपोर्ट का क्रियान्वयन विस्फोटक भी हो सकता है। क्योंकि पिछड़ों के लिए जब मण्डल आयोग की सिफारिशें मानते हुए 27 फीसदी आरक्षण का वैधानिक दर्जा दिया गया था, तब हालात अराजक व हिंसक हुए थे। हाल ही में राजस्थान में आरक्षण के मुददे पर ही गुर्जरों और मीणाओं के हित परस्पर टकराये तो राजस्थान समेत कुछ समय के लिए समूचे देश में असिथरता का वातावरण निर्मित की सिथति उत्पन्न होती है तो सांप्रदायिक वैमनस्य बढ़ना तय है। इसलिए धर्म-समुदायों से जुड़ी गरीबी को अल्पसंख्यक और जातीय आर्इने से देखना बारूद को तीली दिखाना है। अलबत्ता अनुसूचित जाति की जो पहचान हिंदू धर्म की सीमा में रेखांकित है, उसे विलोपित करते हुए जिस धर्म में जो भी दलित हैं उन्हें अनुसूचित जाति के लाभ स्वाभाविक रूप में मिलना चाहिए। लिहाजा मायावती को आरक्षण के मामले में झूठी दिलाशा देने से बचें, क्योंकि राजनैतिक मक्सद का कोर्इ हल इस मुददे से हासिल होने वाला नहीं है।

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