डॉ0 अम्बेडकर संकल्प दिवस – 23 सितंबर 1917
ओ पी सोनिक
भारत में स्कूली जीवन से ही पढ़ाया-सिखाया जाता है कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ यानी कि पूरी दुनिया ही एक कुटुम्ब है। दुनिया में मानवता को जिन्दा रखने के लिए इससे बेहतर कोई विचार नहीं हो सकता। फिर क्या कारण हैं कि समुद्र पार की यात्राएं धर्म विरूद्ध घोषित कर दी जाती हैं। जिन विद्यालयों में कुटुम्बकम का पाठ पढ़ाया जाता है, उन्हीं विद्यालयों में अम्बेडकर को सामाजिक अस्पृश्यताओं से जूझना पड़ता है। अम्बेडकर से समय की समस्याएं आजादी के बाद भी समाज में देखी जा सकती हैं। स्कूलों में किसी दलित बच्चे द्वारा मटके से पानी पीने के प्रयासों में शिक्षक द्वारा जातिगत रूप से प्रताड़ित किया जाता है। दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ते हुए देखना गंवारा नहीं होता। भारत में दलितों के नरसंहारों का भी अपना इतिहास रहा है। ऐसी तमाम घटनाएं बताती हैं कि भारत में सामाजिक रूप से समता, स्वतंत्रता एवं बंधुत्व के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं हो पा रहे हैं पर यह सच है कि भारतीय समाज में सामाजिक विषमताओं की जड़ें जितनी गहरी हैं, सामाजिक परिवर्तन का इतिहास भी उतना ही पुराना है। बुद्ध से लेकर ज्योतिबा फूले और अम्बेडकर से लेकर कांशीराम ने वंचित वर्गों को सामाजिक विषमताओं से मुक्ति दिलाने के लिए सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष को जारी रखा।
किसी भी समाज में सामाजिक परिवर्तन की परंपरा को जारी रखने के लिए संकल्पों एवं प्रतिज्ञाओं का अपना महत्व होता है। संकल्प की महत्ता को 23 सितंबर 1917 को वडोदरा में डॉ0 अम्बेडकर द्वारा लिए गए संकल्प से समझा जा सकता है। भारतीय इतिहास में यह दर्ज है कि बचपन से ही उन्हें सामाजिक विषमताओं का सामना करना पड़ा। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद समाज की संकीर्ण मानसिकता ने उन्हें अपमानित करने का काम किया। जब वह उच्च शिक्षा प्राप्त कर भारत लौटे और बड़ौदा नरेश के साथ हुए समझौते के अनुसार बड़ौदा राज्य में सैनिक सचिव की नौकरी स्वीकार की। बड़ौदा नरेश के फरमान के बावजूद उन्हें न तो शासकीय सम्मान मिला और न ही सामाजिक सम्मान। इतना ही नहीं, जातिवादी व्यवस्था के कारण बड़ौदा में किराए पर मकान नहीं मिल पाया. उस समय अस्पृश्यता की जड़ें लगभग सभी धर्मों से जुड़़ी थीं। पारसी के यहॉं उन्हें किराए पर रहने का अवसर तो मिला पर वहॉं भी उन्हें जातीय उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा। डॉ0 अम्बेडकर को यह अनुभव हुआ कि उनकी शिक्षा और योग्यता के बावजूद उन्हें केवल अछूत होने के कारण सामाजिक सम्मान नहीं मिलता। इन्हीं कटु अनुभवों ने उनके भीतर यह दृढ़ निश्चय पैदा किया कि जब तक समाज की संरचना नहीं बदलेगी, तब तक वंचितों के जीवन में परिवर्तन संभव नहीं होगा । उन्होंने सामाजिक परिवर्तन के संकल्प को भारतीय संविधान की रचना करके पूरा किया है ।
डा0 अम्बेडकर ने जहॉ सामाजिक परिवर्तन का संकल्प लिया था, उस संकल्प भूमि पर उनके अनुयायी प्रतिवर्ष संकल्प दिवस मनाते हैं। हजारों लोग बगैर किसी आह्वान के इकट्ठा होते हैं और सामाजिक परितर्वन के संकल्प को दोहराते हैं। इस संकल्प भूमि को राष्ट्रीय महत्व का स्मारक बनाने के सरकारी प्रयास भी जारी है। संकल्प दिवस के सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में 23 सितंबर 2017 को गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने संकल्प भूमि स्मारक का शिलान्यास किया था। 8 जुलाई 2022 राष्ट्रीय संस्मारक प्राधिकरण ने भारतीय संविधान के निर्माता एवं महान समाज सुधारक डॉ0 अम्बेडकर से जुड़े दो स्थलों को राष्ट्रीय महत्व का स्मारक घोषित करने की सिफारिश की थी। वडोदरा स्थित संकल्प भूमि बरगद के पेड़ परिसर जहॉं डॉ0 अम्बेडकर ने 23 सितम्बर 1917 को अस्पृश्यता उन्मूलन का संकल्प लिया था, यह स्थान सौ साल से भी अधिक पुराना है और डॉ0 अम्बेडकर द्वारा सामाजिक परिवर्तन के लिए शुरू किए गए संघर्ष का गवाह रहा है। राष्ट्रीय संस्मारक प्राधिकरण ने सतारा स्थित प्रताप राव भोसले हाई स्कूल को भी राष्ट्रीय महत्व का स्मारक घोषित किए जाने की सिफारिश की है। इसी स्कूल में डॉ0 अम्बेडकर ने प्राथमिक शिक्षा पूरी की थी।
भारत में समय समय पर बाबा साहब डॉ0 अम्बेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं की चर्चा विभिन्न मंचों से होती रहती है। सभी उपस्थितों को शपथ दिलायी जाती है कि सभी जीवन में उक्त प्रतिज्ञाओं का पालन करेंगे। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की केजरीवाल सरकार में दलित वर्ग से मंत्री बने एक नेता 22 प्रतिज्ञाओं को लेकर इतने चर्चित हुए कि उन्हें पहले मंत्री पद और बाद में पार्टी को भी छोड़ना पड़ा। फिर उन्होंने एक ऐसी पार्टी ज्वाइन कर ली, बाबा साहब डा0 अम्बेडकर ने दलितों को जिससे दूर रहने को कहा था, यानी कि 22 प्रतिज्ञाओं के चक्कर में एक बड़ी राजनीतिक प्रतिज्ञा को तिलांजलि दे दी गयी। अक्सर भारतीय राजनीति गिरगिट से भी ज्यादा रंग बदलती है। दलित वर्ग में ऐसे कई नेताओं के उदाहरण यहॉं दिए जा सकते हैं जिन्होंने अम्बेडकरवाद की हुंकार भरते भरते गॉंधीवादी राजनीति के सामने समर्पण कर दिया। थोड़ी देर के लिए मान लें कि अगर डॉ0 अम्बेडकर भी गॉंधीवादी राजनीति के सामने समर्पण कर देते तो क्या वो आज के अम्बेडकर बन पाते। दलित नेताओं को बस इतनी सी बात समझने की जरूरत है।
डॉ0 अम्बेडकर के उक्त संकल्प के कई गहरे संदेश निकलते हैं। उनका मानना था कि किसी भी व्यक्ति का मूल्य जन्म से नहीं बल्कि उसके कर्म और आचरण से तय होना चाहिए। आत्मसम्मान और स्वतंत्रता के लिए आवश्यकता पड़ने पर परंपराओं को तोड़ देना चाहिए। राजनीतिक आजादी तभी तक सार्थक है, जब समाज के सभी वर्गों को समान अधिकार और अवसर मिलें। 21वीं सदी का भारत तकनीक और अर्थव्यवस्था में भले ही आगे बढ़ रहा हो, पर जातीय भेदभाव, सामाजिक असमानता और धार्मिक कट्टरता आज भी भारत के लिए चुनौतियॉं बनी हुई हैं। ऐसे में डॉ0 अम्बेडकर का बड़ौदा संकल्प हमें याद दिलाता है कि स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ केवल राजनीतिक आजादी नहीं बल्कि सामाजिक और मानसिक गुलामी से मुक्ति भी है। भारत के इतिहास में डॉ0 अम्बेडकर एक ऐसे महामानव के रूप में स्मरण किए जाते हैं, जिन्होंने केवल अपने व्यक्तिगत उत्थान का मार्ग नहीं चुना बल्कि पूरे समाज के लिए समानता और न्याय का पथ प्रशस्त किया। उनकी सोच और संघर्ष ने शोषित एवं वंचित वर्गों को आत्मसम्मान और अधिकारों की चेतना दी। डॉ0 अम्बेडकर का जीवन कई निर्णायक पड़ावों से गुजरा परन्तु 23 सितम्बर 1917 का दिन विशेष महत्व रखता है। भारतीय पटल से दुनिया को वसुधैव कुटुम्बकम का संदेश देने के लिए जरूरी है कि डॉ0 अम्बेडकर के उक्त संकल्प को पूरा किया जाए।
ओ पी सोनिक